विक्रम मिश्र, प्रयागराज। अखाड़ों की परंपरा, प्रतिष्ठा और नाम किसी रहस्य से कम नहीं है। सदियों से चली आ रही उनकी परम्परा का निर्वहन आज भी यानी 21 वीं सदी में भी ये अखाड़े कर रहे है। उसी में शामिल है सेनापति का पद जिसके पास उसकी खुदकी बटालियन यानी साधुओं की फौज होती है। लेकिन सेनापति का चुनाव बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है।
सेनापति बनने के लिए एक संत को 27 महीने कड़े परिश्रम से गुजरना होता है।

READ MORE : जस्टिस शेखर यादव की बेंच बदली, विपक्ष कर रहा महाभियोग लाने की तैयारी

प्रशिक्षण फिर मिलता है पद

सेनापति बनने के लिए संत को 26 महीने प्रशिक्षित किया जाता है। जबकि 26 महीने में जो उसने सीखा है उसे 27 वे महीने में करके दिखाना पड़ता है। जब उसमें खरा उतरते है तब उसे सेनापति के पद से नवाजा जाता है।

एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला

आदि शंकराचार्य ने सनातन की रक्षा के लिए इस नीति को हर अखाड़े में स्थापित किया था। जिसके तहत संत को ये निर्देश थे कि वो शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत हो साथ ही किसी विपदा में वो डिगे नहीं और एक हाथ में माला तो दूसरे में भाला रखकर संत अपने सनातन समाज की सुरक्षा और उनकी परवरिश कर सके।

READ MORE : BJP विधायक के खिलाफ दर्ज होगा मुकदमा, एमपी एमएलए कोर्ट ने दिए आदेश, जानिए पूरा मामला

आपको बता दें कि एक हाथ में माला और दूसरे में भाला की नीति पहले के जमाने में अनुचित रीति से हो रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए भी बनाई गई थी। जिसका फायदा भी सनातन सम्प्रदाय को मिला है। अखाड़ों के सफल संचालन के लिए कई अन्य पद भी सृजित है। जिसमे की थानापति, कोठारी, सभापति, खजांची बनाये जाते है।

अखाड़ों को चलाने के लिए हर पद पर चयनित होते है उम्मीदवार

इसके अलावा नागा साधुओं को बाहरी व्यवस्था की देखभाल के लिए लगाया जाता है। यह पद सात शैव अखाड़ों में होते है। जिसके तहत सेनापति और नागा साधुओं को योद्धा बनाया जाता है और बाहरी व्यवस्था में लगाया जाता है। सेनापति और नागा साधुओं को विपरीत परिस्थितियों में रहने और अस्त्र शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। और बटालियन में शामिल संतों को सेनापति के आदेश को सर्वोच्च स्थान देना ही पड़ता है।

READ MORE : Mahakumbh 2025 : प्रयागराज में आज पीएम मोदी, 7000 करोड़ की परियोजनाओं का करेंगे शुभारंभ

सेनापति बनने के लिए जरूरी योग्यताएं

किसी भी संत को सेनापति बनने के लिए 5 से 8 वर्ष पूर्ण होने आवश्यक है। जबकि ये भी देखा जाता है कि उम्मीदवारी करने वाले संत की आयु 35 वर्ष से अधिक न हो। अखाड़ों में 52 मढियो के संत होते है। जबकि मढ़ी उनके गोत्र के रूप में एक पहचान होती है। 8वीं और 9वीं शताब्दी में संतों ने अलग अलग क्षेत्रो में अपने आश्रम बनाये थे। आश्रम के संस्थापको के नाम पर मढिया बनी। इसमें मीरजापुर, गोरखपुर, उज्जैन, त्रयम्बकेश्वर, कपूरथला, देवगिरी,मथुरा, हिमाचल, अयोध्या, अमरावती, हरिद्वार, खंडवा सहित 120 स्थल है। हर जगह जून, अग्नि, श्रीनिरंजनी,आवाहन, श्री महानिर्वाणी, आनंद और अटल अखाड़े है। जिसका प्रतिनिधित्व करने वाले को सेनापति कहा जाता है। गुलामी के दिनों में सेनापति का कार्य अवैध धर्मांतरण पर प्रभावी रोक के साथ धर्म का प्रचार और आश्रम की सुदृढ़ व्यवस्था करना अनिवार्य था।