Uttarakhand Devbhoomi Devi Temples: उत्तराखंड को पूरे देश और दुनिया में “देवभूमि” के नाम से जाना जाता है. इसके पीछे सिर्फ एक नाम या उपाधि नहीं, बल्कि गहरी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वजहें जुड़ी हैं. हिमालय की ऊँची चोटियां, घने जंगल, पवित्र नदियाँ और शांत घाटियां इस भूमि को हमेशा से अध्यात्म का केंद्र बनाती रही हैं.

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि यही वह भूमि है जहां देवताओं ने निवास किया, ऋषि-मुनियों ने तप किया और अवतारों ने धर्म की रक्षा के लिए जन्म लिया. गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का उद्गम भी यहीं से होता है. यही कारण है कि हर साल लाखों श्रद्धालु बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे धामों की यात्रा पर आते हैं.

लेकिन देवभूमि की पहचान सिर्फ चारधाम तक सीमित नहीं है. यहां हर जिले, हर गांव और हर पहाड़ी पर देवी-देवताओं के मंदिर बने हुए हैं. गढ़वाल और कुमाऊँ के लोग अपने गांवों की कुलदेवियों को पूजते हैं और उन्हें अपनी रक्षा करने वाली शक्ति मानते हैं.

इसी कड़ी में गढ़वाल मंडल का टिहरीजिला भी देवी मंदिरों और आस्थाओं से भरा हुआ है. यहां स्थित शक्तिपीठ और लोकदेवियों के मंदिर न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं बल्कि स्थानीय संस्कृति और परंपराओं का भी अभिन्न हिस्सा हैं. नवरात्रि जैसे पर्व पर इन मंदिरों का महत्व और बढ़ जाता है, जब श्रद्धालु दूर-दूर से आकर देवी मां की आराधना करते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

आइए विस्तार से जानते हैं टिहरी के प्रमुख देवी मंदिरों का इतिहास, उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएँ और स्थानीय मान्यताएं.

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सुरकंडा देवी मंदिर
सुरकंडा देवी मंदिर

1. सुरकंडा देवी मंदिर: शक्तिपीठ का पौराणिक स्थल

सुरकंडा देवी मंदिर समुद्र तल से लगभग 2,757 मीटर की ऊंचाई पर धनोल्टी-चंबा मार्ग पर स्थित है. इसे शक्तिपीठ माना जाता है.

शास्त्रों की कथा: पौराणिक मान्यता है कि जब राजा दक्ष के यज्ञ में माता सती ने अपने पति भगवान शिव का अपमान सहन न कर आत्मदाह कर लिया था, तब शिवजी शोक में माता का शव लेकर आकाश मार्ग से विचरण करने लगे. उनके दुःख से सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया. तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े कर दिए. जहां-जहां माता के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए. कहा जाता है कि माता सती का सिर (शिर) यहीं गिरा था और तभी से यहां सुरकंडा देवी का मंदिर प्रसिद्ध हुआ.

स्थानीय मान्यता: स्थानीय लोग मानते हैं कि यहां माता की पूजा करने से मनुष्य को ज्ञान, बुद्धि और संकटों से मुक्ति मिलती है. नवरात्रि और गंगा दशहरा पर यहां विशाल मेले का आयोजन होता है.

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चंद्रबदनी देवी मंदिर
चंद्रबदनी देवी मंदिर

2. चंद्रबदनी देवी मंदिर: हृदयस्थल की दिव्यता

चंद्रबदनी देवी मंदिर देवप्रयाग के पास एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है.

शास्त्रों की कथा: मान्यता है कि यहां माता सती का हृदय भाग गिरा था. इस कारण यह स्थान भी शक्तिपीठ के रूप में पूजनीय है. मंदिर परिसर में माता की कोई प्रतिमा नहीं है, बल्कि एक चाँदी की छतरी (छत्र) और यज्ञकुंड है, जिसे स्वयं माता का प्रतीक माना जाता है.

स्थानीय मान्यता: लोग मानते हैं कि यहां की पूजा से हृदय शुद्ध होता है और जीवन में प्रेम व करुणा की वृद्धि होती है. नवरात्रि पर यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आकर विशेष अनुष्ठान करते हैं.

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कूनजा देवी मंदिर
कूनजा देवी मंदिर

3. कूनजा देवी मंदिर: जंगलों के बीच शक्तिस्थल

कूनजा देवी का मंदिर समुद्र तल से लगभग 2,000 मीटर की ऊँचाई पर पहाड़ी की चोटी पर स्थित है.

शास्त्रों की कथा: स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, यह स्थान माता दुर्गा के ध्यान और तपस्या का केंद्र रहा है. यहां की ऊर्जा इतनी प्रबल है कि साधक को आध्यात्मिक शांति का अनुभव होता है.

स्थानीय मान्यता: यहां महिलाएं विशेष रूप से अपने परिवार की रक्षा और समृद्धि के लिए माता की पूजा करती हैं. माना जाता है कि माता कूनजा देवी अपने भक्तों की हर मुसीबत से रक्षा करती हैं.

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4. कोटि देवी मंदिर: हजारों साल पुरानी मान्यता

टिहरी जिले का कोटि देवी मंदिर भी अपनी प्राचीनता और आस्था के लिए प्रसिद्ध है.

शास्त्रों की कथा: पुराणों में वर्णन मिलता है कि यह स्थान कभी राक्षसों का गढ़ था. माता ने यहां राक्षसों का संहार किया और धरती पर धर्म की स्थापना की. तभी से यह मंदिर शक्तिपीठ की तरह पूजनीय माना जाता है.

स्थानीय मान्यता: स्थानीय लोग कहते हैं कि माता कोटि देवी को ‘संकट हरणी’ के रूप में पूजा जाता है. हर साल नवरात्रि में यहां मेला लगता है, जिसमें गांव-गांव से लोग आकर माता का आशीर्वाद लेते हैं.

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5. अंबा माता मंदिर: गांव की कुलदेवी

टिहरी के कई ग्रामीण इलाकों में अंबा माता के छोटे मंदिर हैं.

शास्त्रों की कथा: अंबा माता को शक्ति का स्वरूप माना जाता है. पुराणों में उल्लेख है कि देवी अंबा ने महिषासुर जैसे असुर का संहार किया और धर्म की रक्षा की.

स्थानीय मान्यता: ग्रामीण समाज इन्हें अपनी कुलदेवी मानकर पूजा करता है. नवरात्रि में यहां विशेष भजन-कीर्तन, जागरण और सामूहिक अनुष्ठान होते हैं.

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6. मां धारी देवी मंदिर: उत्तराखंड की जाग्रत शक्ति

उत्तराखंड में “माँ दुधाधि” के बजाय “माँ धारी देवी” और “माँ दुध्याड़ी देवी” नामक दो प्रसिद्ध देवी के मंदिर हैं, जिनमें से माँ धारी देवी को चारधाम की संरक्षक माना जाता है और उनकी प्रतिमा दिन में तीन बार स्वरूप बदलती है. दूसरी ओर, टिहरी जिले में माँ दुध्याड़ी देवी का एक प्राचीन मंदिर है, जहाँ 12 वर्षों में एक भव्य मेला लगता है.

स्थान: यह मंदिर श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है.

शास्त्रों की कथा: माँ धारी देवी को माता काली का अंश माना जाता है. मान्यता है कि जब भगवान विष्णु ने माता सती के शरीर को खंडित किया था, तब उनके अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरे और शक्तिपीठ बने. किंतु गढ़वाल की कथाओं में कहा जाता है कि माँ धारी देवी का स्वरूप एक शिला के रूप में अलकनंदा नदी से प्रकट हुआ. यह भी कहा जाता है कि कालीखंबा (कालीमठ, रुद्रप्रयाग) में माता का निचला भाग स्थापित है और श्रीनगर स्थित धारी देवी मंदिर में माता का ऊपरी भाग. इस कारण माँ धारी देवी को अर्धनारीशक्ति का रूप माना जाता है और उनकी पूजा अलग ही महत्व रखती है.

स्थानीय मान्यता: मान्यता है कि माँ धारी देवी उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की रक्षा करती हैं. इस मंदिर की मूर्ति दिन में तीन बार अपना स्वरूप बदलती है – सुबह कन्या, दोपहर में युवती और शाम को वृद्ध महिला के रूप में. जब भी इस क्षेत्र पर कोई संकट आता है, देवी स्वयं जागृत होकर सुरक्षा प्रदान करती हैं.

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7. माँ दुध्याड़ी देवी मंदिर: आस्था और चमत्कारों का केंद्र

माँ दुध्याड़ी देवी का मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में पहाड़ियों के बीच बसा है. यहां पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है, लेकिन जैसे ही कोई श्रद्धालु मंदिर तक पहुँचता है, वहां की शांति और दिव्यता उसकी सारी थकान मिटा देती है.

माँ दुध्याड़ी देवी का मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में पहाड़ियों के बीच बसा है. यहाँ पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है, लेकिन जैसे ही कोई श्रद्धालु मंदिर तक पहुँचता है, वहां की शांति और दिव्यता उसकी सारी थकान मिटा देती है.

शास्त्रों की कथा: माँ दुध्याड़ी देवी को शक्ति का स्वरूप माना जाता है.

  • मान्यता है कि जब राक्षसों का आतंक धरती पर बढ़ा था, तब देवी ने इस क्षेत्र में अवतार लेकर दुष्ट शक्तियों का संहार किया.
  • माता का नाम “दुध्याड़ी” इस वजह से पड़ा क्योंकि उनके मंदिर में कभी दूध की धारा बहने जैसी अनुभूति होती थी.
  • स्थानीय बुजुर्ग कहते हैं कि माता ने अपने भक्तों की रक्षा के लिए इस स्थान को चुना और तब से यहां उनकी विशेष पूजा होने लगी.

स्थानीय मान्यता:

  1. गांव की कुलदेवी: स्थानीय लोग माँ दुध्याड़ी को अपनी कुलदेवी मानते हैं. हर परिवार अपने सुख-दुख में सबसे पहले माता को याद करता है.
  2. चमत्कारिक स्थान: कहा जाता है कि यहाँ की चट्टानों से पहले दूध जैसी धवल धारा बहती थी, जिसे माता का आशीर्वाद माना जाता है.
  3. संकट हरणी: माता की आराधना करने से रोग, संकट और जीवन की कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं.
  4. नवरात्रि का महत्व: नवरात्रि में यहाँ विशेष पूजा, भजन-कीर्तन और जागरण का आयोजन होता है. भक्त मानते हैं कि इन नौ दिनों में माता स्वयं प्रकट होकर आशीर्वाद देती हैं.

मंदिर की विशेषता

  • यहाँ देवी की मूर्ति बहुत ही प्राचीन और दिव्य मानी जाती है.
  • मंदिर में पशुबलि की परंपरा पहले होती थी, लेकिन अब अधिकतर लोग नारियल और चुनरी चढ़ाकर पूजा करते हैं.
  • आसपास के गाँवों से लोग पैदल यात्रा करके आते हैं और सामूहिक भजन-कीर्तन करते हैं.

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