रायपुर. आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इसका विशद वर्णन हेमाद्रि, सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थ-चिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है. हेमाद्रि ने विजयादशमी के विषय में दो नियम प्रतिपादित किए हैं.
1. वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है.
2. वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो.
स्कंद पुराण में आया है- जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए. उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए.
मुख्य कृत्य
इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य हैं – अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लाँघना), घर को पुनः लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमणा करना. दशहरा या विजयादशमी सभी जातियों के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण दिन है, किंतु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है.
धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है – अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए, संकल्प करना चहिए – मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध् यर्थमपराजितापूजनं करिश्येय राजा के लिए – मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये. इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार एवं उमा को नमस्कार कहना चाहिए. इसके उपरांत अपराजितायै नमः, जयायै नमः, विजयायै नमः, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकार कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं. राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है.
राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए – वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे, इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए. तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए. शमी की पूजा के पूर्व या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए. यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए.
दशहरा अथवा विजयादशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाय अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, क्योंकि यह शस्त्र पूजन की तिथि है. हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है. प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है. दशहरा पर्व दस प्रकार के पापों – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है.
दशहरा पूजन
दशहरे के दिन सुबह दैनिक कर्म से निवृत होने के पश्चात स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र धारण किए जाते हैं. घर के छोटे-बडे सभी सदस्य सुबह नहा-धोकर पूजा करने के लिए तैयार हो जाते हैं. उसके बाद गाय के गोबर से दस गोले अर्थात कण्डे बनाए जाते हैं. इन कण्डो पर दही लगाई जाती है. दशहरे के पहले दिन जौ उगाए जाते हैं. वह जौ दसवें दिन यानी दशहरे के दिन इन कण्डों के ऊपर रखे जाते हैं. उसके बाद धूप-दीप जलाकर, अक्षत से रावण की पूजा की जाती है. कई स्थानों पर लड़कों के सिर तथा कान पर यह जौ रखने का रिवाज भी दशहरे के दिन होता है.
भगवान राम की झाँकियों पर भी यह जौ चढाए जाते हैं. सुबह के समय पूजा करने के बाद संध्या समय में जब ‘विजय’ नामक तारा उदय होता है तब रावण का दाह संस्कार पुतले के रुप में किया जाता है. रावण के पुतले जलाने का कार्य सूर्यास्त से पहले समाप्त किया जाता है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में हिन्दु धर्म के अनुसार सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार नहीं किया जाता है.