पटना। बिहार की राजनीति इन दिनों एक बड़े बदलाव की ओर बढ़ रही है, और इसकी जड़ में है वोटर लिस्ट की विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया। चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) अभियान के तहत राज्यभर में 52 लाख से अधिक वोटरों के नाम सूची से हटाए जाने की संभावना है। ये आंकड़े सिर्फ संख्याएं नहीं हैं, बल्कि ये 2025 के चुनावी परिणामों को हिला कर रख सकते हैं।

कट सकते हैं औसतन 21 हजार वोट

बिहार में कुल 243 विधानसभा सीटें हैं। यदि 52 लाख नाम काटे जाते हैं, तो औसतन हर सीट पर करीब 21,000 वोटर कम हो सकते हैं। यही वह बिंदु है जो राजनीतिक दलों के लिए सिरदर्द बन चुका है।

2020 का विश्लेषण:

बेहद मामूली अंतर से जीती गई सीटें

विधानसभा चुनाव 2020 के परिणामों पर नज़र डालें तो साफ होता है कि 153 सीटों पर जीत और हार का अंतर 20,000 से कम था, यानी 63% सीटें बेहद करीबी मुकाबले में तय हुई थीं।

इनमें से

80 सीटों पर अंतर 10,000 से 20,000 वोट

41 सीटों पर अंतर 5,000 से 10,000 वोट

32 सीटों पर अंतर 5,000 से कम

11 सीटों पर तो सिर्फ 500 से 1,000 वोटों का फर्क था।

इनमें से NDA ने 78 सीटें जीती थीं जबकि महागठबंधन के खाते में 69 सीटें गई थीं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि यदि इन सीटों पर औसतन 21,000 वोट घटते हैं, तो नतीजे पूरी तरह उलट सकते हैं।

वोटर कौन हैं जो कट रहे हैं?


चुनाव आयोग के मुताबिक कटने वाले नामों में शामिल हैं:

मृतक वोटर

डुप्लीकेट नाम

प्रवासी मजदूर

स्थानांतरित व्यक्ति

ग्रामीण इलाकों और झुग्गी बस्तियों के निवासी

यानी अधिकतर ऐसे वोटर जो वंचित, गरीब, प्रवासी और युवा वर्ग से जुड़े हैं। यदि ये वर्ग किसी एक दल का परंपरागत वोट बैंक रहे हैं, तो उस दल को गंभीर नुकसान उठाना पड़ सकता है।

किसे होगा फायदा महागठबंधन या एनडीए?


अब बड़ा सवाल यह है कि इस पूरे बदलाव का राजनीतिक फायदा किसे मिलेगा? महागठबंधन (RJD-कांग्रेस) का वोट बेस मुख्य रूप से गरीब, मुस्लिम, पिछड़े, ग्रामीण और प्रवासी समुदायों में है। अगर इन्हीं वर्गों के वोट लिस्ट से हटते हैं, तो यह गठबंधन के लिए झटका होगा। दूसरी ओर, NDA के पास अधिक स्थायी और कैडर-बेस वोटर माने जाते हैं। ऐसे में यह बदलाव एनडीए के पक्ष में जा सकता है, बशर्ते वह अपने वोटरों को फिर से सूची में जोड़ने में सफल हो।

चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर सवाल


महागठबंधन के नेताओं ने इस प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए हैं। उनका तर्क है कि यह कवायद राजनीतिक रूप से प्रेरित हो सकती है। हालांकि, आयोग का दावा है कि यह केवल डेटा सुधार और पारदर्शिता के लिए की जा रही नियमित प्रक्रिया है।