– भूपेश बघेल
पराली जलाने से पैदा हुआ संकट अभूतपूर्व है. इस संकट ने हमे ऐसी जगह पहुँचा दिया है जहां से हमे अब इस चुनौती से सीधे सामना करना होगा और इसका दीर्घकालीन समाधान खोजना होगा. हमे इसका समाधान सिर्फ इसलिए नहीं खोजना है कि इसने दिल्ली का गला घोंट कर रखा हुआ है या सांस से सबंधी बीमारियां पचास फीसदी बढ़ गई है या इससे एनसीआर में लोगों को अस्थमा हो रहा है बल्कि इसलिए भी करना है क्योंकि हम मिट्टी की उर्वरक क्षमता खो रहे हैं और पंजाब और हरियाणा में कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं.
पंजाब और हरियाणा में किसान 35 मिलियन टन यानि 3 करोड़ 50 लाख टन पराली जलाते हैं. ये दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते है. एक अध्ययन के मुताबिक फसल के बचे हुए अवशेष वाली पराली को जलाने से 149 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड 9 मिलियन टन कार्बन मोनोऑक्साइड 0.25 मिलियन टन सल्फर डाइऑक्साइड 1.28 मिलियन टन पार्टिकुलेट मैटर पैदा होते हैं जो गंभीर पर्यावरण संकट का कारण बनते हैं.
आइये अब इसकी पृष्ठभूमि में चलकर विश्लेषण करते हैं. हरियाणा और पंजाब के किसानों को खरीफ के बाद बोए जाने वाली रबी फसल के बीच काफी कम वक़्त मिल पाता है. अगर ख़रीफ़ की कटाई के बाद किसान रबी की बुआई में देरी करते है तो अपेक्षाकृत कम समयावधि तक पड़ने वाली सर्दी के चलते अच्छा- खासा नुकसान उन्हें झेलना पड़ सकता है. अगर वे पराली को खेतो में ही छोड़ दें तो दीमक जैसे कीट आगामी फसल पर हमला कर सकते हैं. आर्थिक अनियमितता के चलते किसान पराली को खेतों से हटाने का सस्ता विकल्प चुनते हैं. लेकिन हमें उनकी कीट, बाज़ार और भूमि से जुड़ी समस्याओं को भी समझना पड़ेगा.
खेती एक पुनर्जीवन की चक्रीय प्रक्रिया है. ज़रुरत इस बात की है कि हम इस प्रक्रिया में हर उत्पाद का इस्तेमाल करें और जो जमीन से लिया है उसे वापिस कर दें. 35 मिलियन यानि 3 करोड़ 50 लाख टन पराली से हम 21 मिलियन यानि 2 करोड़ 10 लाख टन उच्च गुणवत्ता युक्त जैविक खाद बना सकते हैं. 2 करोड़ 30 टन पराली में मौजूद 7 लाख टन नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम और सल्फर हम उत्तर पश्चिम भारत में जला देते हैं. जिसकी कीमत 1 हज़ार करोड़ हैं. इसके अलावा फसल की ठूंठ जलाने से भारी मात्रा में जैविक कार्बन भी नष्ट होते हैं.
इस तरह, पराली फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों का महत्वपूर्ण स्त्रोत होता है जो मिट्टी को भी बेहतर बनाता है. ये जैविक तत्व मिट्टी में कार्सिनोजीन के स्तर को कम करके पंजाब में कैंसर के खतरे को भी कम कर सकते हैं. ये काम किसान अकेले नहीं कर सकता. राज्य को इसमें मनरेगा जैसे अपने कार्यक्रमों के साथ शामिल होना होगा. इसके लिए केंद्र को राज्यों को ये अनुमति देनी होगी कि वो कटाई और खाद निर्माण के काम के लिए मनरेगा का इस्तेमाल कर सके. खेती को मनरेगा से जोड़ने की कई राज्यों की काफी पुरानी मांग है. गाय के गोबर में पराली मिलाकर कुछ प्राकृतिक एंजाइम की मदद से उच्च स्तर का खाद बनाया जा सकता है.
छत्तीसगढ़ में हम इस पहल को गौठान के माध्यम से प्रयोग में ला चुके हैं. गौठान पांच एकड़ ज़मीन पर हर गांव में बनाई जा रही है. जहां इस्तेमाल में न आने वाली पराली (छत्तीसगढ़ में इसे पैरा कहते हैं) पैरादान कार्यक्रम के लिए इकट्ठा करते हैं. इसे स्थानीय युवाओं द्वारा जैविक खाद में बदला जाता है. ये उन्हें जीवकोपार्जन का साधन मुहैया कराता है. हमारी सरकार केवल खेतों से गौठान तक पराली के परिवहन को सुनिश्चित करती है. छ्तीसगढ़ ने सफलतापूर्वक 2 हज़ार गौठान बना लिए हैं.
अब, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण के संकट को लेकर संज्ञान लिया है, तब ये सही वक्त है कि प्रदूषण को कम करने का सही कदम उठाया जाए. मैंने इस संकल्पना को हाल ही में नीति आयोग के सामने भी पेश किया था. हमारे राज्य में चलाए जा रहे नरवा(नाले का संरक्षण), गरुवा(पशुओं का संरक्षण),घुरवा (खाद) और बारी (बाड़ी) का मॉडल गांवों के विकास का एकीकृत मॉडल है. मैं सुप्रीम कोर्ट से गुज़ारिश करता हूं कि वो अर्थशास्त्रियों, कृषि विशेषज्ञ, किसान और नौकरशाहों को शामिल करके एक कमिटी बनाए जो पराली के जलने से पैदा होने वाले संकट का मूल्यांकन कर सकें और मनरेगा का विस्तार करके इसे खेती से जोड़ने की संभावनाओं का पता लगा सकें.
पारंपरिक बुद्धिमत्ता और स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल करके और बेहतर प्रशासनिक सहयोग से हस्तक्षेप करके राष्ट्रीय हो चुकी इस समस्या का हल खोजा जा सकता है.
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं)