रायपुर. 15 साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे डॉ रमन सिंह ने विधानसभा चुनाव में मिली हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया है. ‘चाउर वाले बाबा’ के नाम से मशहूर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का भी जादू इस बार फेल हो गया और भाजपा पूरे प्रदेश में धराशायी हो गई. 

अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्या कारण हैं कि जो शख्स लगातार 15 सालों तक प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा, लोग उसे ‘चाउर वाले बाबा’ के नाम से जानते हैं, अचानक उसका जादू कैसे खत्म हो गया? इस सवाल का जवाब जानने से पहले ये जान लेते हैं कि रमन सिंह को आखिर ‘चाउर वाले बाबा’ क्यों कहा जाता है?

दरअसल, साल 2003 में रमन सिंह अपने बेहतरीन काम और साफ छवि के चलते चुनाव जीतकर पहली बार प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे. इसके बाद भी उनके विकास कार्य जारी रहे. इस दौरान उन्होंने प्रदेश के बुनियादी ढांचे पर काम किया, जैसे कि सड़क और बिजली.

इसके अलावा इंसान की जो बुनियादी जरूरत होती है- खाना, उसपर ध्यान दिया और पूरे प्रदेश में एक योजना शुरू की, जिसके तहत गरीबों को 2-3 रुपये किलो चावल बांटा गया. बस यहीं से रमन सिंह का एक नया नाम पड़ा- चाउर वाले बाबा यानी चावल वाले बाबा.

चलिए अब जान लेते हैं कि ‘चाउर वाले बाबा’ यानी रमन सिंह का जादू इस बार प्रदेश में क्यों नहीं चला?

पहला ये कि साल 2003 से लगातार सत्ता में रही भाजपा को इस बार विरोधी लहर का सामना करना पड़ा. कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए इस बार जीतोड़ मेहनत की और डॉ. रमन सिंह के खिलाफ खूब प्रचार-प्रसार किया, जिसका फायदा भी उन्हें मिला और भाजपा का मजबूत गढ़ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में उसका का सूपड़ा साफ हो गया.

दूसरा कारण है राज्य के किसानों की सरकार के प्रति नाराजगी.

राज्य में भले ही रमन सिंह को ‘चाउर वाले बाबा’ के नाम से जाना जाता हो, लेकिन इस बार की हकीकत कुछ और ही थी. इस बार किसानों की नाराजगी उनपर भारी पड़ी है और किसानों का ये गुस्सा इस बार सरकार के खिलाफ वोट के रूप में निकल कर आया. दरअसल, पिछले कुछ महीनों की बात करें तो पूरे देश के किसानों ने इस बार एकजुट होकर मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया और निश्चित तौर पर इस प्रदर्शन का असर राज्यों पर भी पड़ा.

सरकार बनाने की चाबी आदिवासियों के हाथ

छत्तीसगढ़ की सियासत में यह माना जाता है कि चुनाव में जिसके साथ यहां का आदिवासी समुदाय होता है, उसकी सरकार बननी तय है, क्योंकि प्रदेश में आदिवासियों का एक बड़ा वोट बैंक है. बता दें कि छत्तीसगढ़ विधानसभा की 90 सीटों में से 29 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव की अगर बात करें तो राज्य में भले ही भाजपा ने सरकार बना ली, लेकिन आदिवासी सीटों पर वो अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पाए. साल 2013 के चुनाव में कांग्रेस ने कुल 29 आदिवासी सीटों में से 18 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि भाजपा को महज 11 सीटें मिली थीं.

इस बार भी आदिवासी इलाकों में कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है. भाजपा सिर्फ शहरी इलाकों में ही अच्छा प्रदर्शन करती दिख रही है, जबकि आदिवासी बहुल इलाकों में इस बार भी भाजपा पिछड़ती हुई नजर आ रही है.

नक्सलवाद पर लगाम लगाने में नाकाम रही सरकार

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पूरी तरह से हावी है. यहां भाजपा 15 सालों से सत्ता में है, इसके अलावा केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है, लेकिन इसके बावजूद रमन सरकार नक्सलवाद पर लगाम लगाने में नाकाम साबित हुई. इस बार भी नक्सलवादी क्षेत्रों में लगातार नक्सली हमले होते रहे, लेकिन सबसे खास बात ये रही है कि इस बार इन क्षेत्रों में भारी मतदान भी हुआ. नतीजों से इतना तो साफ जाहिर हो रहा है कि इस बार यहां की जनता रमन सिंह की सरकार के खिलाफ ही थी.

काम आया कांग्रेस का वादा

चूंकि सूबे के किसान पहले से ही भाजपा सरकार से नाराज थे, इसका फायदा कांग्रेस ने खूब उठाया. कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि किसानों के सभी कर्ज माफ कर दिए जाएंगे. उनका यह वादा उनके लिए वरदान साबित हुआ और राज्य में रमन सिंह की सरकार का पत्ता साफ हो गया.