धार्मिक परंपराओं में यह बात अक्सर देखने को मिलती है कि पुरुष और स्त्री की पूजा-पद्धतियों में अंतर होता है. कहीं स्त्रियों को विशेष तिथियों पर उपवास रखने का विधान होता है, तो कहीं कुछ विशेष मंत्रों या पूजा विधियों से उन्हें वर्जित रखा जाता है. लेकिन क्या यह भेदभाव है? या इसके पीछे कोई गहरा आध्यात्मिक और ऊर्जा संतुलन का रहस्य छिपा है?

पुरुष और स्त्री की ऊर्जा संरचना भिन्न

भारतीय संस्कृति में शरीर और ऊर्जा को एक गहरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा गया है. योग और तंत्र परंपरा में पुरुष और स्त्री की ऊर्जा संरचना भिन्न मानी जाती है. पुरुषों में ‘सौर ऊर्जा’ (सक्रियता) प्रमुख होती है, जबकि स्त्रियों में ‘चंद्र ऊर्जा’ (शीतलता और पोषण) अधिक प्रभावी मानी जाती है. इसी संतुलन के आधार पर उनकी साधनाएं और पूजा विधियां निर्धारित की गईं.

उदाहरण के तौर पर, कुछ विशेष देवताओं की पूजा में स्त्रियों की भूमिका प्रमुख होती है, जैसे करवा चौथ, तीज, और देवी पूजन. वहीं, कुछ अनुष्ठान पुरुष प्रधान होते हैं, जैसे यज्ञ, उपनयन संस्कार आदि. यह भेदभाव नहीं बल्कि ऊर्जा के अनुरूप साधना का निर्धारण है, जिससे पूजा का प्रभाव अधिक गहरा और सकारात्मक हो.

शुद्धता या अपवित्रता

इसके अलावा, मासिक धर्म जैसे प्राकृतिक चक्रों को ध्यान में रखते हुए स्त्रियों की पूजा विधियों में कुछ सीमाएं रखी गईं, जो शुद्धता या अपवित्रता नहीं बल्कि शारीरिक विश्राम और ऊर्जा संचय की दृष्टि से थीं. आज जरूरत है कि इन परंपराओं को अंधविश्वास नहीं, बल्कि गहराई से समझा जाए और उनके पीछे छिपे आध्यात्मिक विज्ञान को स्वीकार किया जाए.