मेरी पहली पोस्टिंग वर्ष 2000 में अविभाजित मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के रतलाम मेें हुई। मसूरी में ट्रेनिंग के बाद रतमाल में ट्रेनी आईएएस के रूप में एसडीएम के पद का कार्य संभाला। इसके बाद जब नवंबर 2000 में मध्यप्रदेश राज्य का पुनर्गठन हुआ और नवीन छत्तीसगढ़ राज्य का उदय हुआ, तो नवोदित राज्य में आने वाले प्रशासनिक अफसरो की सूची में अंतिम नाम मेरा भी था।
कल्पना कीजिए, कि आप किसी जगह गए न हों, और आपसे बार-बार हमदर्दी जताई जाए, ’’ओहो……उफ……ये क्या हो गया.’’……..आदि जुमले कहे जाएं, तो जाहिर सी बात है मन में एक आशंका, प्रश्नवाचक चिन्ह लगातार घूमने लगते हैं। मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ था उस वक्त। पता नहीं, छत्तीसगढ़ जाने पर वहां के कुछ अफसरों ने इतनी हमदर्दी और अफसोस जताया कि मैं भी थोड़ा तो डर ही गया था।
बहरहाल, नया आईएसएस था। जोश, जूनून, उमंग और उत्साह से लबरेज और मैंने हमेशा से अपना बैंचमार्क अलग ही निर्धारित किया है, मुझे लगा ये चैलेंज नहीं, अपर्च्यूनिटी यानी अवसर है। मन में इसी संकल्प के साथ मैं तब अमरकंटक एक्सप्रेस में बैठा और मेरी पत्नी के साथ निकल पड़ा छत्तीसगढ़ के रास्ते। ट्रेन ने जब छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया तो खिड़की के पास बैठकर बाहर के नजारे को देखता हुआ अपने भीतर बहुत से ख्याल बुन रहा था। जो सपने नया छत्तीसगढ़ देख रहा था, उन सपनों की जिम्मेदारी का एक हिस्सा हम भी थे। इसी भाव से दुर्ग/रायपुर पहुंचे। ठहरने का ठिकाना तय नहीं था।
पहली पोस्टिंग दुर्ग-भिलाई में मिली, बतौर एसडीएम। रतलाम और दुर्ग-भिलाई में जमीन आसमान का फर्क था, दायरा काफी बड़ा था। लेकिन जो सबसे बड़़ा सुकून यहां आकर मिला, वो ये था कि छत्तीसगढ़ आकर महसूस किया कि अपने असम के घर में आ गया। लोगों की साधारण जीवन शैली, विचारों की प्रधानता, एक-दूसरे का आदर, स्नेहभाव और परस्पर संवाद था। इन तत्वों में मुझे यहां काम करने की इतनी ताकत दी, कि मुझे उनके विचारों पर थोड़ी सी हंसी आई, जो कि छत्तीसगढ़ जाने पर मुझे बेचारा समझ रहे थे और तब मैं अपने भाग्य पर मुस्कुरा रहा था। यहां लोगों, जन प्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों के साथ तालमेल में काफी वक्त गुजर गया, पता ही नहीं चला। खूब काम किया और अपने बेंचमार्क के मुताबिक काम किया।
फिर एक शुरूआत हुई 2002 में रायपुर नगर निगम आयुक्त के रूप में। ये वह वक्त था, जब छत्तीसगढ़ अपने शैशवावस्था में था और चलना सीख रहा था। दो साल के बालक की आयु क्या होती है? चलना ही तो सीखता है। लेकिन छत्तीसगढ़ तेजी से चल रहा था, इस तेजी के साथ आवृति मिलना जरूरी था, क्योंकि यह जरूरी नही, अनिवार्य था। कारण था, रायपुर का राजधानी का वास्तविक स्वरूप दिया जा रहा था तब। कई संकल्पनाएं जन्म ले रही थी, कई प्रोजेक्ट कागजों पर उतारे जा रहे थे, जो भविष्य के गर्भ में छिपे थे। आज जो स्वरूप राजधानी का दिख रहा है, बहुत सा ब्लू प्रिंट तब तैयार हो रहा था। ऐसे मौके पर मुझे जब रायपुर नगर निगम आयुक्त बनने का मौका मिला तो विकास की सीढ़ी में एक ईंट जोड़ने का सौभाग्य मुझे भी मिला। जब रायपुर नगर निगम आयुक्त बनकर आया, तब छत्तीसगढ़ होटल हुआ करता था वहां कुछ दिन गुजारे। फिर देवेन्द्र नगर के पास तब फारेस्ट का रेस्ट हाउस हुआ करता था, इसी परिसर के एक रूम वाले काॅटेज में रूके और बराम्दा में खाना बनाने की व्यवस्था की। क्योंकि तब क्वाटर तत्काल नहीं मिले। इसकी बहुत ज्यादा समस्या थी। तो एक कमरा और छोटा सा बरामदा ही अशियाना हुआ करता था। यहां दो महिनेे तक रहने के बाद फिर शांति नगर के निजी मकान में शिफ्ट हुए।
ये वो दौर था जब शादी भी नई-नई हुई थी। रेल्वें में कार्यरत पत्नि दर्शनिता का इस दौरान लखनऊ और दिल्ली में ट्रांसफर हुआ था। तब रायपुर से फ्लाइट की बहुत ज्यादा कनेक्टिविटी नहीं थी और अगर फ्लाइट से जाना भी हो, तो अनुमति लेनी पड़ती थी। सभी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को अब तो पात्रता भी है और फ्लाइट भी काफी ज्यादा है। ट्रेन का लंबा सफर तय करके दिल्ली में मीटिंग में जाना होता था। ये वो प्रयासो का दोैर था, जो मेरे सपनों और छत्तीसगढ़ के सपनों के तारों को जोड़ रहा था। मुझे इस बात का एहसास करा रहा था ये दौर कि तुम्हारी जिम्मेदारी सबके प्रति है और सबको निभाओं। तो व्यक्तिगत और प्राशासनिक जिम्मेदारी निभाते हुए अपने जीवन की व्यूह रचना तैयार कर रहे थे और नई राजधानी को पूरी एक टीम बुन रही थी।
जब मै रायपुर नगर निगम आयुक्त बना, तब शहरी विकास विभाग में सचिव श्री विवेक ढांढ जी ही थे। आज वे चीफ सेक्रेटरी हैं। उस वक्त काडा (CADA) यानी कैपटिल डेवलमेंट एथार्टी के चीफ भी वही थे । मैं सौभाग्यशाली हूं कि उन्होेंने हर जिम्मेदारी के काम में मुझ पर भरोसा किया और मैंने भी कोशिश की कि उनके भरोसे को पूरा कर सकूं।पहली चुनौती दिखी थी जीई रोड को तैयार करने की। यही एक सड़क थी, सिंगल लाईन रोड था और सबसे अहम थी तब। छोटी लाइन तक निगम की सीमा थी उसके बाद वी.आई.पी. रोड से लेकर अन्य सड़को पर स्ट्रीट लाईट व्यवस्था नहीं थी। वीआईपी रोड में गिने चुने लोंगो के फार्म हाऊस थे। यानी शहर का स्वरूप बड़ा था, पर बिखरा बिखरा था। एक स्वरूप में शहर का विस्तार और विकास प्राथमिकता थी। लिहाजा काम शुरू किया। ढांढ सर के निर्देश में योजनाएं बनाई, इंप्लीमेंनटेशन किया और आगे बढ़ते गए। CADA के सहयोग से माना रोड में लाइट्स का प्रबंध हुआ, जबकि उस वक्त निगम क्षेत्र के बाहर था। इसके बाद तेलीबांधा, से टाटीबंध तक सड़क का चैड़ीकरण हुआ, डिवाइडर बनवाए, टयुबर पोल और लाइट्स की व्यवस्थाएं करवाई । मुझे याद हैं, उस वक्त तेलीबांधा तालाब के किनारे की सड़क काफी कम चैड़ी थी। जलविहार काॅलोनी, आनंद विहार से गुरूद्वारा तक रिटेनिंग वाॅल बनाकर सड़कों का चौड़ीकरण किया गया था।
दिलचस्प वाक्या हैं उसी वक्त का। जब हम चैड़ीकरण कर रहे थे, तो उस वक्त कई छोटे-बड़े धार्मिक स्थल रास्ते पर थे। उसे शिफ्ट किया जाना बेहद जरूरी था। लेकिन जनविरोध को देखते हुए रूक-रूक कर फैसले लेने पड़े थे। विरोध प्रदर्शन शिफ्टिंग को लेकर चल रहा था। सबकी सहमति से धार्मिक स्थलों की शिफ्टिंग हुई और आज जो चैड़ी-चैड़ी सड़कें दिखती है वह अपने वास्तविक स्वरूप में आ सकीं। उस वक्त गणेश विसर्जन और अन्य मूर्तियों का विसर्जन बूढ़ा तालाब, तेली बांधा एवं अन्य तालाबों में होता था। ऐसे विरोध के माहौल में पहली बार महादेव घाट में विसर्जन की व्यवस्था की गई। बाद में इसके लिये नगर बंद का ऐलान भी हुआ। ऐसा तालाबों को बचाने के लिए भी किया गया था । मूर्तिपूजा के विसर्जन झांकी बूढ़ापारा से होकर जाते थे। हमने तय किया कि हम और हमारी टीम बूढ़ापारा के पास खड़ी होगी और लोगों को हाथ जोड़कर तालाबों में विसर्जन की जगह महादेवघाट में विसर्जन हेतु समझाएगी और उसकी जरूरतों से अवगत कराएगी। पूरी रात ऐसा हम लगातार करते रहे। हम कामयाब हुए और विसर्जन हेतु नई व्यवस्था कायम हुई।
दूसरी बड़ी समस्या उस वक्त पानी की थी। तब पूरे रायपुर के लिए सिर्फ 40 एमएलडी पानी हुआ करता था। शहर बढ़ रहा था। हम ये भी जानते थे कि शहर आने वाले समय में और आगे बढ़ेगा लिहाजा क्षमता बढ़ाना बेहद जरूरी था। तो पहली प्राथमिकता के साथ एमएलडी का शोधन सिस्टम तैयार किया। यह काम इतना जल्दी किया गया कि रायपुर के लिए अब 40 की जगह 120 एमएलडी जल व्यवस्था हो गई थी। यह बहुत बड़ा काम था। यहां तक की उस वक्त गायत्री नगर तक पानी पहुंचाने का काम किया गया जबकि वह निगम क्षेत्र के बाहर का स्थान था। इसे 50-50 प्रतिशत योजनाओं के आधार पर तैयार कराया गया था। ये तमाम उस वक्त की जरूरत के हिसाब से नहीं बनाए गए थे। ये सारी चीजें आज की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई थीं। आज सुकून होता है यह देखकर कि कहीं कोई विरोध भी हुआ होगा आलोचनाएं भी हुई होंगी। लेकिन आज तो कम से कम जरूरतों को पूरा कर पा रहे हैं उन योजनाओं के जरिए। इसके लिए उस वक्त की पूरी टीम आज गौरवांन्वित होती होगी।
आज देशभर में स्मार्ट सिटी को लेकर चर्चाएं हैं। जिसमें साफ सफाई का अहम रोल है। मुझे याद है तब हमने एक नई कार्यक्रम प्रारंभ किया था जिसे हम सफाई मित्र योजना कहते थे। घर घर जाकर कचरा संग्रहण का कार्य प्रारंभ किया। रात्रिकालीन सफाई की भी योजना शुरू की। इतना ही नहीं लोगों को प्रेरित किया करते थे कि वे सफाई के लिए जागरूक रहें और यदि उनके पास स्वच्छता को लेकर कोई आइडियाज हों तो हम तक शेयर करें। हमने उस वक्त इस सहभागिता का काफी फायदा लिया। एक और बात थी उस वक्त की कि घरों में मल निकाली सीधे नालियों में होती थी और नालियों से नालों के जरिए तालाबों में भी ये गंदगी पहुंच जाया करती थी। ये बहुत बड़ी चुनौती थी कि लोगों को समझाया जाए और घरों से शुष्क मल निकासी के प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाए। इसका नतीजा ये हुआ कि कुछ ही अरसे में घर-घर में शुष्क मल निकासी व्यवस्था का संचालन होने लगा और शहर के तालाब और नालियां इस गंदगी से बचने लगे। इसी तरह सीवरेज के लिए बड़े काम किए गए। इन सबका उद्देश्य था कि रायपुर को राजधानी के रूप में परिवर्तित करना। जाहिर सी बात है कि रायपुर राजधानी बनेगी तो पूरे देश और विदेशों से लोग यहां आएंगे और जो लोग यहां आएंगे उनके मन में रायपुर को लेकर छवि भी बनेगी। तो यह कड़ी चुनौती थी उस वक्त नई राजधानी के रूप में रायपुर के लिए कि वह बाहर के लोगों के दिलोदिमाग पर अपनी स्वस्थ तस्वीर अंकित करे और कम समय और कम संसाधनों में तब यह तस्वीर काफी खूबसूरत बनी थी। इसी कारण हम तालाबों का जिक्र कर रहे थे।
रायपुर तालाबों का गढ़ हुआ करता था। एक वक्त यहां तकरीबन 150 से ज्यादा तालाब हुआ करते थें। तब करीब 40 तालाब केन्द्र संवर्धन-सौंदर्यीकरण का काम लिया गया। निर्णय हुआ कि किसी भी हालात में इन तालाबों को न केवल बचाना है बल्कि इनका सौंदर्यीकरण भी करना है। इसके लिए लोग दलगत भावना से ऊपर आकर काम करने लगे। तेलीबांधा, बूढ़ा तालाब, महाराजबंध तालाब, नईया तालाब, कटोरा तालाब, करबला तालाब कंकाली तालाब जैसे तालाओं की सफाइर्, सवर्धन एवं सौदर्यीकरण का का कार्य कराया गया। एक तरफ स्व. तरूण चटर्जी महापौर रहते हुए इन कामों में साथ देते तो दूसरें तरफ तत्कालीन सभापति श्री सुनील सोनी जो बाद में महापौर बने एवं सभी पार्षदों का भी साथ मिला। सबकी एक ही इच्छा थी कि रायपुर को ऐसा बनाया जाए जिससे प्रदेश के लोग गौरवान्वित महसूस करें अपनी राजधानी के रूप में इस तरह तालाबों के किनारों को मजबूत करना पौधारोपण सड़कों के किनारे पौधरोपण ऐसी बहुत सी व्यवस्थाएं की जिससे शहर सुंदर और स्वच्छ हो सके। आज जब हम रायपुर की सड़को से गुजरते है तो हमारे लगाए हुए पौधों को पेड़ों में बदला हुआ देखकर उतनी ही खुशी मिलती है जितनी एक पिता को अपने बच्चों के बड़े होने पर देखने से मिलती है। मन तृप्त हो जाता है। ऐसे कई पेड़ कचहरी चैक कलेक्टोरेट परिसर और सड़को के किनारे लगाए गए थे। उस वक्त गांधी उद्यानको संवारने के लिउ कितनी तोड़फोड़ की तो आज का स्वरूप वैसा है। इस सौंदर्यीकरण के लिए मैं अपने वरिष्ठ अधिकारियों जैसे तत्कालीन मुख्य सचिव श्री एस.के. मिश्र, नगरीय प्रशासन विभाग के सचिव श्री विवेक ढांड, के साथ सुबह सुबह निकल पड़ता था। वरिष्ठ अधिकारियों के साथ जनप्रतिनिधि भी शामिल होते। हम भ्रमण करते और योजनाएं तैयार करते भ्रमण करते करते हमारा ब्रेकफास्ट भी इंडियन काॅफी हाउस में होता था। तो एक जिजीविषिका थी कि कुछ करना है तो करना है और उसे पूरा किए बिना रूकते ही नहीं थे। राजधानी तेजी से बदल रही थी।
एक और बड़ी चुनौती थी कि अफसरों/कर्मचारियों के लिए आवास निर्माण । मै स्वयं उस व्यवस्था को भुगत चुका था। जब पहली बार रायपुर आया था। हमारे वरिष्ठ इसे लेकर काफी मंथन कर रहे थे। उस वक्त श्री एस.के.मिश्र, चीफ सेक्रेटरी थे। श्री विवेक ढांढ सर विभाग के सचिव थे। शैलेन्द्र नगर में/रिंग रोड में/विजेता काॅम्प्लेक्स में अधिकारियों/कर्मचारियों हेतु आवास निर्माण किया गया। रायपुर डव्हलपमेंट अथाॅरिटी की जिम्मेदारी भी तब मेरे पास ही थी और हमें कहा गया था कि यह काम जल्द से जल्द किया जाए। श्री अमिताभ जैन जी रायपुर के कलेक्टर थे और उसके बाद श्री खेतान जी। इन दोनों के साथ मिलकर युद्ध स्तर पर कम किया। कई स्थानों पर अतिक्रमण हटाते हुए बहुत ही जल्द आवासीय काॅलोनी का निर्माण प्रशस्त किया गया। आवास अधोसंरचना निर्माण हेतु आवश्यक भूखण्ड से अतिक्रमण हटाया गया औरा डीडीनगर, हीरापुर और कबीर नगर जैसे क्षेत्रों में पक्के मकान देकर शिफ्ट किया गया ।वास्तव में उस वक्त के सपनों की फेहरिस्त काफी लंबी है। कई योजनाओं की नींव रखने का काम हम कर रहे थे। शदीद स्मारक भवन का लोकार्पन सरकारी कर्मचारियों के आवास, पंडरी कपड़ा बाजार का विस्तार, तालाबों का सौंदर्यीकरण, पानी की उपलब्धता, सड़कों का चैड़ीकरण, उद्यानों का सौंदर्यीकरण, स्वच्छ कालोनियाॅं, सड़कों का विस्तार, ट्यूबलर लाइट की व्यवस्था जैसे बहुत से काम के अलावा एक अहम काम था इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम को प्रारंभ करना। शहीद वीरनारायण इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम आज जिस स्वरूप में है, उसकी संकल्पना तब उस टीम ने की थी और सौभाग्य से उस टीम का हिस्सा मैं भी था। उस वक्त स्टेशन के सौंदर्यीकरण के लिए डीआरएम के साथ समन्वय बनाकर काम किया।
जिस वक्त मैं छत्तीसगढ़ आया, श्री अजीत जोगीजी, मुख्यमंत्री थे और उसके बाद मुख्यमंत्री मान0 डाॅ. रमन सिंह जी हुए। दोनों के साथ कार्य करने का अवसर मिला। माननीय मुख्यमंत्रीजी से तो पहली मुलाकात 2001 में ही हुई थी, जब वे कवर्धा जाते हुए बेमेतरा में कुछ देर के लिए रूके थे, तब वे केंद्रीय मंत्री थे और मैं उन्हें रिसीव करने गया, लेकिन प्रोटोकाॅल की वह मुलाकात भी बेहद आत्मीय थी । इसके बाद वे मुख्यमंत्री बने और काफी जिम्मेदारियाॅ यानी अवसर उन्होंने मुझे दिए।छत्तीसगढ़ के साथ अन्य दो राज्यों का भी गठन हुआ था और उन दोनों राज्यों उत्तरांचल और झारखंड की तुलना में छत्तीसगढ़ राज्य ने काफी तरक्की की। मानव विकास सूचकांक, जिसमें शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, ये तमाम चीजे आती हैं, आज नई बुलंदियों पर है और देश के प्रथम पांच राज्यों की पंक्ति में शुमार है। ये यहां की राजनीतिक, प्रशासनिक दृष्टि और क्रियान्वयन का परिणाम है। यह टीम वर्क है। मुझे गर्व है कि मैं भी इस टीम मेें हॅू।
खैर फिलहाल मुझे वो ट्रेन अमरकंटक एक्सप्रेस और उसकी खिड़की आज 17 साल बाद इस लेख को लिखते हुए फिर याद आ रही है। लग रहा है जैसे रफ्तार से पीछे छूटती हुई चीजें वह वक्त है, जो लम्हों में मेरे कई आत्मीय स्वर्णिम क्षण हैं, जिसके पायदान पर मेरे जीवन के अनगिनत पहलू समाये हुए हैं।
ये लेख वरिष्ठ आईएएस सोनमणि बोरा, सचिव, छत्तीसगढ़ शासन, समाज कल्याण, खेलएवं युवा कल्याण विभाग मंत्रालय, नया रायपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा लिखा गया है. ये लेखक के संस्मरण हैं. हेडिंग के अलावा हम इसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं.