- विजय बहादुर सिंह
कल शाम जब मैं अपनी कालोनी निराला नगर के कुछेक कवि-लेखक मित्रों को यह दुखद सूचना दे रहा था कि शायर राहत इन्दौरी हार्टअटैक से अचानक चले गए तो साहित्य अकादमी प्राप्त एक कवि साथी ने बेहद ठंडी प्रतिक्रिया देते हुए कहा –हाँ वे एक पापुलर शायर थे-। उसकी प्रतिक्रिया से मुझे काफी धक्का लगा और मजबूर हो कर कहना पड़ा कि कबीर, सूर,मीरा,मैथिलीशरण गुप्त,दिनकर,बच्चन,भी पापुलर कवि भी रहे हैं, क्योंकि देश के लोगों तक उनकी गहरी पहुँच रही। मेरी बात पर उस साथी कवि ने चुप्पी जरूर साध ली।बाद में लगातार मैं यह सोचता रहा कि भारत की साक्षर विरादरी अगर कल तक बच्चन,नीरज,दुष्यन्त जैसों को पढ़ती और सुनती आई है तो क्या वह रसिक समाज की सहृदयता से बाहर है। दुष्यन्त जैसे कवियों और शायरों को भी इन्होंने पापुलर मान खारिज करने की कोशिश लगातार की गो कि कर फिर भी नहीं पाए।
सवाल यह कि राहत इन्दौरी या निदा फाजली जैसों को क्या पापुलर कहने का अपराध किया जा सकता है? यों पापुलर होना उतना ही कठिन है जितना आसान है सरकारों द्वारा बाँटे जाते पुरस्कारों को कबाड़ लेना। इनमें करना कुछ नहीं पड़ता,बस निर्णायक मंडलों में अपनों को रखवा लेना काफी है। मैं खुद कभी कभी साहित्य अकादमी और म प्र के शिखर पुरस्कारों के निर्णायकों में रह चुका हूँ और जानता हूँ कि पुरस्कार कैसे दिए और लिए जाते हैं।
समकालीन की बात न कर याद करना चाहूँगा कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद का एक पुरस्कार सुभद्रा कुमारी चौहान को उसी वक्त मिला जबकि निराला की किताब भी उसमें इसीलिए शामिल थी। निराला ताकते ही रह गए। पन्द्रह अक्तूबर 1961को निराला जी गुजरे। साहित्य अकादमी दिल्ली फिर भी कभी उन्हें पुरस्कार योग्य नहीं पा सकी। नागार्जुन को मैथिली में देकर उनका हिन्दी वाला प्रधान हक छीन लिया गया। पर सहृदय समाज अपने कवियों और लेखकों को हमेशा पहचानता आया है।
लेखन की श्रेष्ठ कसौटी यह नहीं है कि आपको पुरस्कार कितने मिले हैं,बल्कि यह है किआपके पाठक कितने हैं? एक बार का वाकया तो भूलता ही नहीं जब गुलजार, चन्द्रकांत देवताले और राजेश जोशी तीनों भोपाल के रवीन्द्र भवन में एक साथ मंच पर थे। भोपाल की काव्य रसिक विरादरी और चुनिंदा साहित्यिकों की उस सभा में अपना प्रभाव सिर्फ गुलजार छोड़ पाए। वह दृश्य मेरे जैसे पाठकों और आलोचकों को भी नसीहत दे गया कि जनता की अपनी कविता क्या है और सहृदयता क्या है।
बनी बनाई लीक पर चिकनी-चुपड़ी कविता लिख लेना हमेशा आसान रहा है।पर लीकों को छोड़कर नयी राह पर निकल पड़ना ,सत्ता की आँख से आँख मिलाकर जीना और अपने भाषा-समाज के काव्य रसिकों के चित्त पर छा जाना बेहद कठिन, चुनौतीपूर्ण और असाधारण है। इस स्थिति में पहुँच कर जब कोई लोकप्रिय हो उठे तब आलोचकों का समाज भी उस प्रतिभा का क्या कर लेगा?हाँ,अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिये झखमार कर उस कवि या लेखक के पास आना जरूर पड़ेगा।
स्वर्गीय राहत इन्दौरी को पूरा देश और दुनिया एक साथ सुन रहे थे ।अगर इतना बड़ा संसार उन्हे मुग्ध हो कर सुन रहा था और महसूस कर रहा था कि अनुभव तो उसके थे जिसे राहत भाई उन्हें अपने लफ्जों मे बस कह भर रहे थे।बात अगर उनकी अकेले की होती तो उन्हीं तक सीमित होकर रह जाती।पर ऐसा कहाँ था? उनकी मृत्यु पर टी वी चैनलों और अखबारों ने जितना ध्यान दिया और खबरें दीं उससे उनका महत्व स्वत:प्रमाणित है।
ऐसा भी कहने की जुर्रत अब तक कहाँ किसी ने की है कि उन्हें ग़ज़ल कहने की तमीज़ नहीं थी।मेरी अपनी समझ से यह खूब थी और जरुरत से कुछ ज्यादा ही थी। अपने समय से बातें करने का सलीका वे खूब जानते थे ।
कई लोग उनसे इसलिए नाराज थे कि वे सत्ताओं से इतनी नाराजगी की जुबान में क्यों संवाद करते थे?इसका एक ही जवाब है कि उन्हें अपन देश ,उसके लोगोंऔर धरती से बहुत प्यार था और सत्ताओं के आचरण उनकी अपनी समझ से देश विरोधी थी।याद करता हूँ तो निराला, नागार्जुन, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, भवानी प्रसाद मिश्र अगर नेहरू और इन्दिरा गांधी के खिलाफ लिख सकते थे तो कमलेश्वर, दुष्यन्त कुमार, अदम गोंडवी और राहत इन्दौरी क्यों नहीँ?
अब राहत नहीं है पर उनका कलाम एक मूल्यवान विरासत के तौर पर हमारे पास है। सत्ता के अन्याय और अत्याचार जब जब असह्य होंगे, उनके शेर और ग़ज़लें हमारी पीड़ाओं को व्यक्त करने में मददगार साबित होंगे।
(विजय बहादुर सिंह हिंदी के प्रख्यात कवि एवं लेखक हैं. ये उनके निजी विचार हैं. )