रायपुर। आज गूगल ने जो डूडल बनाया है, जिसमें एक महिला डॉक्टर गले में स्टेथोस्कोप लगाए नजर आती है. वहीं उसके पीछे कुछ मरीज बिस्तर पर लेटे दिख रहे हैं. इस डूडल को देखकर जिज्ञासा होती है कि आखिर ये कौन है, जिस पर गूगल ने अपना डूडल बनाया है. तो हम आपको बता दें कि ये हैं भारत की दूसरी महिला डॉक्टर रुक्माबाई.

आज डॉ रुक्माबाई का 153वां जन्मदिन है, इस मौके पर गूगल ने अपना डूडल उन्हें समर्पित किया है. रुक्माबाई राउत को औपनिवेशिक भारत में पहली प्रैक्टिसिंग लेडी डॉक्टर के रूप में जाना जाता है. क्योंकि पुणे की रहने वाली आनंदीबाई जोशी ने सबसे पहले डॉक्टरी की डिग्री जरूर ली थी, लेकिन देश वापस लौटने के कुछ ही महीनों बाद उनकी मृत्यु हो गई. आनंदीबाई जोशी ने 1886 में डिग्री ली और 1887 में 22 साल की उम्र में ही उनकी मौत हो गई. इस तरह से रुक्माबाई राउत औपनिवेशिक भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं, जो प्रैक्टिसिंग डॉक्टर थीं.

डॉ रुक्माबाई राउत के बारे में खास बातें

रुक्‍माबाई के माता-पिता का नाम जयंतीबाई और जनार्दन पांडुरंग था. जनार्दन पांडुरंग की मौत के बाद जयंतीबाई ने अपनी संपत्ति 8 साल की रुक्‍माबाई को सौंप दी.

11 साल की उम्र में डॉ रुक्माबाई की शादी दादाजी भीकाजी से हो गई थी. लेकिन उन्होंने पति के साथ रहने से इनकार कर दिया. उस जमाने यानि कि 1884 में ये मामला कोर्ट पहुंचा, जब दादाजी भीकाजी ने रुक्माबाई को साथ रहने के लिए कानूनी दावा पेश किया.

लेकिन सालों पहले जब महिलाओं के लिए कोई अधिकार भी नहीं थे, उस वक्त रुक्माबाई ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और बाल विवाह के खिलाफ खड़ी हुईं. उन्होंने 11 साल की उम्र में शादी की वैधता पर सवाल खड़े किए. उस वक्त उनके पति 19 साल के थे. उन्होंने गरीबी और खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर पति के साथ रहने से इनकार कर दिया.

1885 में जजों के निर्णय ने दादाजी के वैवाहिक अधिकारों के सौंपे जाने के दावे को रद्द कर दिया. हालांकि साल 1888 में रुक्माबाई और दादाजी भीकाजी के बीच समझौता हुआ, जिसके मद्देनजर रुक्मा ने पति को मुआवजा दिया और शादी से पूरी तरह से मुक्ति पाई.

विधुर सर्जन से हुई शादी

बाद में जब रुक्मा 19 साल की हुईं, तब उनकी शादी एक विधुर सर्जन डॉक्टर सखाराम अर्जुन से हुई. हालांकि तब भी रुक्मा अपनी मां के घर पर ही रहीं और अपनी पढ़ाई जारी रखी.

डॉक्टर बनने का सफर

रुक्माबाई को डॉक्टर बनने का शौक था और वे लोगों की सेवा करना चाहती थीं. उनके इस फैसले को घरवालों और लोगों का समर्थन मिला.  इसके लिए लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसन में भेजने और पढ़ाई के लिए एक फंड तैयार किया गया. वहां से रुक्माबाई ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1895 में वापस भारत लौटीं. उन्होंने सूरत के महिला हॉस्पिटल को ज्वॉइन किया. उन्होंने जीवन भर डॉक्टरी की.

डॉ रुक्माबाई एक सामाजिक सुधारक भी थीं, जिन्होंने कई बुराईयों के लिए आवाज उठाई और महिला और बाल अधिकारों के लिए खुलकर बोला. 25 सितंबर 1991 को उनका निधन हो गया.