पुरुषोत्तम पात्र, देवभोग. बिंद्रनवागढ में प्रवेश के लिए आदिवासियों के आराध्य देव कचनाधुरवा की लेनी होती थी अनुमति, ये रिवाज आज भी है. वादियों में आज भी राजा धुरवा व कुमारी कचना की प्रेम कहानी गूंजती है. जीते जी एक नहीं हो सके पर अमर हुए तो दोनों का नाम एक साथ जुड़ गया.

मूल निवासी कहे या आदिवासी इनके अराध्य देव में कचना धुरवा का नाम सुमार है. धार्मिक, समाजिक हो या कोई भी मांगलिक कार्य बगैर कचना धूरवा के स्मरण के बिना कार्य पूर्ण नहीं होता. इतना ही नहीं घनघोर जंगलों से गुजरना हो और यात्रा को सफल बनाना होता था, तब भी इनके चरणों में अर्चना के बाद ही आगे बढ़ा जाता था. मैनपुर के बाजाघाटी, गरियाबंद के बारूका व छुरा प्रवेश से पहले मुख्य मार्ग पर कचना धुरवा का देवालय मौजूद है. जंहा आज भी राहगीर देवालय में माथा टेकने के बाद ही आगे बढ़ते हैं. कहा जाता है यह उनके क्षेत्र में निर्बाध आवागमन की अनुमति मांगी जाती थी.

46 बार हुए युद्ध, फिर छल से मारे गए राजा धुरवा उल्लेखित कहानी अनुसार बिंद्रनवागढ़ के राजकुमार धुरवा धरमतराई जो आज धमतरी कहलाता है की राजकुमारी कचना से प्रेम करते थे. धरमतराई क्षेत्र के राजा मारादेव भी कचना के खुबसुरती से प्रभावित थे, जिसके चलते कचना धुरवा का मिलन बर्दाश्त नही था. मारादेव ने 46 बार युद्ध किया था. जिसमें 45 बार हार हुई थी. देवी आराधना व पुरखो से मिले आशीर्वाद के कारण धुरवा एक वरदानी पुरुष थे, जिन्हे ऐसा वरदान मिला था की उनकी मौत जल व थल के संजोग स्थल पर ही हो सकेगा. मौत का रहस्य जानने के बाद मारादेव ने 46 वे बार महनदी मुहाने पर हुए युद्ध में धुरुवा का सर धड़ से उस वक्त अलग कर दिया जब धुरूवा के घोड़े का एक पाव थल पर था और दूसरा जल पर था. धड़ से अलग सर को गोद में लेकर कचना ने भी प्राण त्याग दिए.

अमर प्रेम कहानी के प्रमाण मौजूद,पर उल्लेखित इतिहास नहीं जानकारो के मुताबिक ब्रिटिश के दखल के पहले की यह ऐतिहासिक घटना है. इसे 12वी व 13वी शताब्दी में घटित घटना माना गया है. बिंद्रनवागड़ के पहाड़ का नाम कचना धुरवा डोंगरी रखा गया. राजा धूरवा के हत्या के बाद उनके कटे सिर के आग्रह पर गोबर बिनने वाली वृद्ध महिला सिर को बास की टोकरी में लेकर बिंद्रानवागढ पहूंची थी. राजा के वंशज शीश उठाए महिला का स्मारक डोंगर के ऊपर बनवाया था. जिसे आज भी राउताईंन पथरा के नाम से पूजा जाता है. धुरवा व कचना के आत्मा का मिलन के जीवंत प्रमाण के बाद दोनों को सयुक्त रूप से पूजा जाने लगा. इसी डोंगर के नीचे प्रतिवर्ष चैत्र में आदिवासी परंपरा से कचना धुरवा की पूजा होती है.

बिलाईमाता मंदिर नही जाते धुरवा के वंशज अध्यात्म व प्रेम से जुड़ी कचना धुर्वा के अमर प्रेम की पुष्टि करने भले कोई लिखित इतिहास न हो लेकिन मौजूदा परिस्थिति में इसके कई जीवंत प्रमाण ऐसे भी हैं, कहानी को प्रमाणित करती है. राजा धुरवा के वंशज माने जाने वाले छुरा के शाह परिवार, वंशावली से जुड़े देवभोग के दाऊ परिवार हो या फिर गुढियारी व धवलपुर के दीवान परिवार के सदस्य आज भी धमतरी के बिलाई माता मंदिर प्रवेश नहीं करते न ही मंदिर से जुड़े आदिवासी परिवार के घर अन्न जल ग्रहण करते हैं. कहा जाता है की राजकुमारी कचना के माइका से यह जुड़ा हुआ है.

कौन थे राजकुमार धुरवा

बालाघाट लांजीगढ़ रियासत के राजा सिंहलशाय के पुत्र थे धुरवा, माता गागिन देवी थी, लांजीगढ एक संपन्न रियासत माना जाता था, लेकिन भीषड अकाल की त्रासदी ने सब कुछ छीन लिया. कहा जाता है इसी बीच लांजिगड़ में मुस्लिम राजाओं का आक्रमण हुआ. राज्य छोड़ कर राजा पंडरापाथर नामक जगह में शरण लिया. कुछ समय बाद सिंहल शाय बिंद्रनवागढ के घनघोर जंगल पहुंच गए. राजा बुढ़ादेव यानी भगवान शिव के उपासक थे. प्रसन्न करने के बाद बुढ़ादेव से राजा ने राज्य विस्तार का वरदान मांगा. बुढ़ादेव के आदेश पर राजा ने अपने कटार (छुरा) को फेंका, वरदान से छुरा का विस्तार हुआ. इसी छुरा में आज भी गोड राजाओ के वंशज रहते हैं. धीरे धीरे राजा सिंहल शाय का शक्ति व संपत्ति बढ़ते गई. लेकिन इलाके में दूसरी ताकत चिनडा भुंजिया ने सिंहल शाय से क्षल कर हत्या कर दिया. गर्भवती रानी गागीन को भाग कर कालाहांडी के पटबागड़ इलाके में शरण लेना पड़ा था. गरीब ब्राह्मण दंपत्ति के निगरानी में बेटे ने जन्म लिया, धूल मिट्टी से सने स्थान पर जन्म हुआ इसलिए नाम धुरवा दिया गया. 15 साल के उम्र में धुरवा ने अराधना से शक्ति पा लिया, फिर बदला लेने बिंद्रनवागढ आकर भूंजिया राजा को परास्त कर छुरा तक फैले राज्य को अपने अधीन कर लिया था.