पुरुषोत्तम पात्र,गरियाबंद। देवभोग में लंकेश्वरी देवी की परिक्रमा के बाद रावण के दहन करने की परंपरा चली आ रही है. कादाडोंगर में रावण दहन की सूचना पर 84 गांव की ग्रामदेवियों को एकत्रित किया जाता है. वनांचल आदिवासी राजाओं का गढ़ होने के कारण यहां देवियों की पूजा प्राथमिकता से की जाती है. विकासखंड के अधिकांश गांवों में अपनी ग्राम देवियों की पूजा होती है और लगभग प्रत्येक गांव में देवालय होता है. इसे देवीगुढ़ी कहते हैं कहा जाता है यह इलाका खर -दूषण के राज्य वाले दण्डाकारण्य का इलाका था.

जमीदारों के अधीन इस इलाके में प्राचीन काल से ही देवी देवताओं को विशेष दर्जा दिया जाता था. उनमें से एक थी मां लंकेश्वरी जिन्हें राज देवी का ओहदा मिला हुआ है. मां लंकेश्वरीकी पूजा अर्चना की जाती है.

बुजुर्ग जानकारों ने बताया कि लंकेश्वरी देवी ,लंका की रक्षा करने वाली लंकनी ही है, जो लंका प्रवेश करने वाले हनुमान के साथ युद्ध में हारकर दण्डाकारण्य इलाका भाग आई थीं. जमीदारों के पूर्वजों ने दक्षिण भारत के भ्रमन के दरम्यान देवी को यंहा से 20 किंमी दूर बरही में लाकर स्थापित किया था. आज भी लंकेश्वरी की पूजा बरही में होती है. 1987 को देवभोग गांधी चौक में अवस्थी परिवार द्वारा मंदिर निर्माण कर  यंहा स्थापित किया था. देवी का पट साल में एक दिन दशहरे को खुलता है. इस दिन लंकेश्वरी रावण दहन की अनुमति भी देती हैं.

रावण वध का संदेश मिलते ही झूम उठते है देव

यंहा से 28 किंमी दूर कांदाडोंगर का दशहरा भी अनूठा है. विजय दशमी के दिन 84 गांव की ग्राम देवी पताका व पूरे परीधान में एकत्र होती हैं, डोंगर के नीचे सभी देव एकत्र होकर देव वाद्य में नृत्य करते हैं, और दशहरा सम्पन्न होता है. डोंगर के प्रमुख पुजारी मुकेश सिंह है.

पजारी ने बताया कि दशहरा पर देव पूजन करने वाले वे 7वीं पीढ़ी के पुजारी हैं बताया कि इस दण्डकरण्य में  असुरों का आतंक था. राम रावण का युद्ध पर सभी देव की नजर थी,विजयदशमी को रावण वध कि सूचना मिलते ही ग्रांम देवी इसी कांदाडोंगर  के नीचे एकत्रित होकर खुशियां बाटी थी. आज भी उसी रस्म को पूरा करने विजय दशमी के दिन ग्राम देवी के साथ हजारों की तादात में ग्रामीणों की भीड़ जुटती है. और सत्य की जीत की खुशियां मनाकर एक दूसरे को विजय चिन्ह के रूप में सोंनपत्ति  भेंट करने का रिवाज है.