अमन शुक्ला, डेस्क. 2024 खत्म होने में दो-तीन दिन ही रह गए हैं. हम सभी इस साल के आखरी महीने के आखरी दिनों में हैं. दो से तीन दिन के भीतर हम सभा नए साल में प्रवेश कर जाएंगे. अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार हम सभी नए साल 2025 (New Year 2025) में कदम रखने वाले हैं. लेकिन इससे पहले एक बार उन यादों को ताजा किया जाए जिसकी चर्चा पूरा साल रही. सियासी गलियारों में इस साल जिसका सबसे ज्यादा शोर रहा वो है लोकसभा और उपचुनाव के परिणाम. इस बीच तमाम ऐसे समीकरण बने, कई घटनाएं हुई जिसने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा. इतना ही नहीं दोनों चुनावों के परिणाम ने सूबे की सियासत को नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया. ये परिणाम पार्टियों को सीख भी दे गया. (Year Ender 2024)

पूरे साल में सूबे की सियासत में जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा रही वो था लोकसभा चुनाव का परिणाम. उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2024 का साल काफी महत्वपूर्ण और घटनाक्रम से भरा रहा. लोकसभा चुनाव 2024 के परिणामों ने यूपी में बीजेपी को सबसे बड़ा झटका दिया. 2014 में 73 और 2019 में 64 सीटें जीतने वाले भाजपा और उसके घटक दलों के खाते में प्रदेश की 80 सीटों में से केवल 36 सीटें ही आईं. जबकि इंडी गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 43 सीटें अपने कब्जे में की.

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राम के घर में ही हार गए ‘रामभक्त’

इतना ही नहीं भाजपा को सबसे ज्यादा बड़ा झटका तो अयोध्या की सीट पर लगा. राम मंदिर का मुद्दा लेकर भाजपा के नेता और कार्यकर्ता खुद को सबसे बड़े रामभक्त बताते नहीं थक रहे थे. जिस राम मंदिर को भाजपा चुनाव में मुद्दा बना रही थी, जो राम मंदिर शुरुआत से ही भाजपा के एजेंडे में रहा, वो राम मंदिर बनने के बाद भाजपा को पूरी उम्मीद थी की परिणाम एकतरफा होंगे. लेकिन जब नतीजे आए तो वो भाजपा के लिए चौंकाने वाले थे. फैजाबाद (अयोध्या) सीट पर कमल नहीं खिल सका. यहां बीजेपी के सांसद लल्लू सिंह को हराकर समाजवादी पार्टी के अवधेश प्रसाद ने अपना परचम लहरा दिया. हालांकि मेरठ के लोगों ने भाजपा की लाज रख ली. यहां पर उन्हें श्रीराम का आशीर्वाद मिला. क्योंकि यहा से रामायण के ‘राम’ यानी अरुण गोविल ने जीत दर्ज की.

कांग्रेस की परंपरागत सीट पर सुधरी स्थिति

अमेठी लोकसभा सीट, जो कांग्रेस पार्टी का गढ़ मानी जाती रही है, 2019 में भाजपा की स्मृति ईरानी के हाथों हारने के बाद 2024 में कांग्रेस के लिए एक बड़ी जीत लेकर आई. कांग्रेस के उम्मीदवार किशोरी लाल शर्मा ने भारतीय जनता पार्टी की स्मृति ईरानी को 1,67,256 वोटों के बड़े अंतर से हराया, जिससे अमेठी सीट पर कांग्रेस की दमदार वापसी हुई. इधर रायबरेली लोकसभा सीट पर भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत रही, जहां राहुल गांधी ने भाजपा के दिनेश प्रताप सिंह को हराकर 6 लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की. राहुल गांधी ने इस सीट पर अपनी चुनावी मेहनत का पूरा फायदा उठाया, और रायबरेली को कांग्रेस का सुरक्षित गढ़ बनाए रखा.

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पीडीए बनाम पीडीएम

इस साल उत्तर प्रदेश की राजनीति में अलग-अलग सियासी फॉर्मूले भी देखने को मिले. सपा लोकसभा चुनाव 2024 में PDA यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक के फॉर्मूले को लेकर चल रही थी. इसी नीति के साथ पार्टी आगे बढ़ी. जो हिट भी साबित हुआ. सपा ने लोकसभा चुनाव में 37 सीटों पर कब्जा जमा लिया. सपा के इस पीडीए फैक्टर ने लोकसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. दूसरी ओर एआईएमआईएम (AIMIM) सांसद असदुद्दीन औवैसी भी अपने अलग फॉर्मूला लेकर चल रहे थे. उन्होंने सपा के पीडीए के जवाब में पीडीएम यानी पिछड़ा, दलित और मुस्लिम की वकालत शुरु कर दी. इसी नीति के साथ उन्होंने चुनाव लड़ा. लेकिन उनके हाथ सिर्फ हार ही लगी.

फिर चला गठबंधन का दौर

सूबे की सियासत में मान-मनौव्वल और गठजोड़ का भी दौर चला. चाहे लोकसभा हो या उपचुनाव दोनों गठबंधन का बोलबाला रहा. लोकसभा चुनाव के दौरान ‘दो लड़कों’ (अखिलेश यादव-राहुल गांधी) की जोड़ी बनी. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा. दोनों की ये जोड़ी परिणाम में बदली और प्रदेश से अपने 43 सांसद लोकसभा में भेज दिए. वहीं ओवैसी और पल्लवी पटेल की पार्टी भी साथ आई. हालांकि इन्हें आशातीत परिणाम नहीं मिले.

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लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश में उपचुनाव की बारी आई. राज्य की 9 विधानसभा सीटों पर चुनाव की घोषणा हुई. मैदान सभी पार्टियों ने ताल ठोकी. इसी साल लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय लोकदल ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया था. जो कि उपचुनाव में कायम रहा और दोनों ही पार्टियों को सफलता मिली. जिसमें बीजेपी ने प्रदेश की 9 सीटों में से 6 सीटों पर कब्जा करके सपा और कांग्रेस से लोकसभा का बदला लिया. वहीं एक सीट पर रलोद की जीत हुई और दो सीटों पर सपा ने मात दी.

कुंदरकी के परिणाम ने सभी को चौंकाया

कुंदरकी विधानसभा सीट के उपचुनाव के परिणामों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ लिया. यहां मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र होने के बावजूद भाजपा ने रामवीर सिंह को उम्मीदवार बनाकर जीत दर्ज की, जबकि सपा के मोहम्मद रिजवान को दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा. भाजपा के इस जीत से साफ हो गया कि धर्म आधारित राजनीति के बावजूद भाजपा को बड़ा लाभ हो सकता है, और इसका संदेश भी गया कि आगामी चुनावों में चुनौती और दिलचस्पी बनी रहेगी.

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नहीं दिखा हाथी का दम

उत्तर प्रदेश की राजनीति का महत्वपूर्ण चेहरा रही सूबे की चार बार की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती इन चुनावों में परिणामों के मामले में जुदा नजर आईं. चाहे लोकसभा चुनाव हो या फिर उपचुनाव दोनों में बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया. इन दोनों ही चुनावों में हार का सामना करने के बाद मायावती ने अहम निर्णय लेते हुए भविष्य में किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन ना करने का निश्चय किया.

हरियाणा से निकले नारे ने बदला सियासी रुख

देश में हुए चुनावों में उत्तर प्रदेश के दिए हुए नारे ने महती भूमिका अदा की. बीजेपी के फायर ब्रांड नेता और सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ के नारे ने देश के लोगों में हिंदुत्व की नई चेतना जगाई. ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे ने देशभर में सुर्खियां बटोरी. हरियाणा से निकले इस नारे ने महाराष्ट और झारखंड विधानसभा चुनाव में भी लोगों को अपनी ओर खींचा. भाजपा की जीत में नारों ने भी अच्छा रोल निभाया.

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संगठन बनाम सरकार

चुनाव के बीच एक और मुद्दा था जिसने विपक्ष के कान खड़े कर दिए. सरकार और संगठन के विवाद ने जोर पकड़ा तो इसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची. मुख्यमंत्री योगी और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा था. ऐसी चर्चाएं सियासी गलियारों में थी. जिसकी वजह से भाजपा की खूब किरकिरी हुई. विवाद इतना बढ़ा कि दिल्ली दरबार से नुमाइंदों को बीच में आना पड़ा. हालांकि बाद में सुलह हुई और संगठन और सरकार के बीच सामंजस्य स्थापित हुआ. फिर दोनों की साझेदारी में यूपी का उपचुनाव लड़ा गया. जिसका परिणाम भाजपा के लिए शानदार रहा.

2025 में किस करवट बैठेगा सियासी ऊंट?

कहीं ना कहीं 2024 में यूपी की सियासत ने भाजपा समेत तमाम पार्टियों को एक ओर चुनौती दी, जहां लोकसभा चुनाव में उसे कुछ झटका मिला, लेकिन उपचुनावों में उसकी जीत यह संकेत दे रही है कि आगामी विधानसभा चुनाव 2027 में मुकाबला उतना आसान नहीं होगा. वहीं दोनों ही चुनावों के परिणाम मिलेजुले रहे, जिसके चलते पार्टियों को आगे के लिए और मेहनत करनी होगी. इसके अलावा इन चुनावों के नतीजे किसी के लिए उत्साहपूर्ण रहे को किसी के लिए खट्टे अंगूर साबित हो गए. फिलहाल आने वाले नए साल में सूबे की सियासत का ऊंट किस करवट बैठता है ये देखने वाली बात होगी.