वैभव बेमेतरिहा, रायपुर। आज युवाओं के प्रेरणास्त्रोत स्वामी विवेकानंद की जयंती है. जयंती पर आज विवेकानंद के सपने के भारत के विपरीत सरकारी युवा उत्सव भी है. विपरीत इसलिए क्योंकि जिस विवेकानंद के भाषण की पहली पंक्ति भाईयो और बहनों से हम विश्वपटल पर हिंदु-हिंदी का गौरव करते हैं अब वह हिंदी संस्कृति के बीच अ-राइज में बदल चुका है.
वैसे भाषायी गौरव से परे उत्सव के बीच मातम की बात करिए. जी हाँ, राजधानी रायपुर में एक बार फिर प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में एक ही दिन में 4 बच्चों की मौत ने सरकार के विकास पर सवालियां निशान लगा दिया है. तो दूसरी ओर इन मौतों से बे-ग़म सरकार मातम के बीच उत्सव में मस्त है. उत्सव भी उन युवाओं के लिए जहां करीब 20 लाय युवा बेरोजगार है. बेरोजगारी का आलम भी ऐसा कि भृत्य जैसे पद के लिए 10 हजार से अधिक भीड़ उमड़ पड़ती है. मतलब युवा नौकरी के लिए व्यापमं से लेकर पीएससी और सीधी भर्ती करने वाले विभागों के दरवाजें पर कतार में खड़े हैं. अगर युवाओं की भीड़ बेरोजगारों की जमात में दिखती है, तो फिर अ-राइज उत्सव है किसके लिए ?
जाहिर इन सवालों के जवाब सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी से दी जाएग. जैसे शैडो कलेक्टर बनाकर युवाओं की दक्षता को बताने और उसके जरिए विकास को दिखाने में दिखता है. मसलन सवाल मूल में रह जाता और उत्तर अ-राइज जैसे उत्सवों के जरिए देने की कोशिश की जाती है.
अब जरा इन उत्सवों के बीच स्वामी के विचारों और विवेकानंद को तलाशिए. शायद उत्सवों के भीड़ और सपने के रंगीन दुनिया के बीच न विचार मिलेंगे और न युवाओं में विवेकानंद.
मतलब आप ये सवाल तो कर ही सकते हैं, कि आज विवेकानंद होते, कहाँ होते ? जाहिर वे अ-राइज उत्सव में नहीं होते ! वे अंबेडकर अस्पताल में होते, वे मृत बच्चों के परिवारों के बीच होते, वे किडनी पीड़ित मौत वाले उस सुपाबेड़ा गाँव में होते जहाँ अब तक 56 से अधिक के आँकड़े मृतकों के हो चुके हैं, वे वहाँ होते जहाँ गाँवों को उजाड़कर शहर बसाने की विकास को दर्शाया जा रहा है, वे वहाँ होते जहाँ आदिवासी जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे वहाँ होते जहाँ बेरोजगारों की लाइन नौकरी के लिए लगी है.
वे इन उत्सवों में न होते जो उनके विचारों के विपरीत जान पड़ता है, जो उनके संदेशों को सही दिशा में न ले जाए, वे मातम के बीच न तो किसी सौंदर्यीकरण के लोकार्पण में होते, न तो किसी शोरूम या शिविर के उद्घाटन में, न वे किसी भूमिपूजन में, न शिलान्यास में!
दरअसल आज हमने महापुरूषों के विचारों को अपनाया नहीं, न हम उसे जीते हैं. हम तो विशालकाय प्रतिमा स्थापित कर, किसी स्थान-संस्थान का नामकरण कर यह संदेश देने के की कोशिश करते हैं कि हम महापुरूषों के सिद्धांतों पर चल रहे हैं. पर सच यह कि विवेकानंद जैसे महानुभावों को हम छल रहे हैं.