पूरे कोरोना संकट के दौरान आश्चर्यजनक रूप से केवल सरकारों की ही ज़िम्मेदारी की बातें हुईं हैं ,नागरिकों की भूमिका पर कोई बहस नहीं हुई है। महामारी से बचने के जो उपाय बताए गए हैं उन्हें ही नागरिकों ने अपनी भूमिका और एक सीमा के बाद उनके उल्लंघन को दंडनीय अपराध मान लिया हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।लगभग सभी प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में नागरिक इस तरह के उल्लंघन करते हैं।समाज जितना विकसित और सम्पन्न होगा, प्रतिबंधों का उल्लंघन और उनके प्रति विद्रोह भी उतना ही मुखर होगा।हम चूँकि अमेरिका और योरप की तरह सम्पन्न नहीं हैं इसीलिए विश्व का सबसे बड़ा और लम्बा लॉक डाउन बिना किसी मुखर विरोध के हमारे यहाँ जारी है।अमेरिका में तो कई स्थानों पर नागरिक प्रतिबंधों के विरोध में हथियार लेकर सड़कों पर उतर आए हैं।ये प्रदर्शनकारी इस सच्चाई से भी बेख़बर नहीं हैं कि उनकी जानें बचाने में लगे स्वास्थ्यकर्मी धीरे-धीरे थकते हुए खुद भी मरीज़ों में बदल जाएँगे।
नागरिक क्या ऐसे किसी परिदृश्य की कल्पना करने को तैयार हैं कि महामारी सालों-साल चले और वे उन लोगों को ढूँढते रह जाएँ जिन्हें उनका इलाज करना है ? कोरोना की वेक्सिन को लेकर एक चर्चा यह है कि इसराइल ने तैयार कर ली है और दूसरी यह है कि एच आई व्ही और डेंगू की तरह ही कोरोना की भी कोई वेक्सिन कभी मिल नहीं पाएगी।अगर मिल भी गई तो समाज के आख़िरी गरीब तक कब और कैसे पहुँच पाएगी कहा नहीं जा सकता।जो अभी हो रहा है उसे हम जानते हैं: अपर्याप्त टेस्टिंग, रिपोर्ट प्राप्ति में विलम्ब और इसी बीच होने वाली मौतें।
इस तरह की परिस्थितियों में नागरिकों की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि सरकारें एक महामारी को भी युद्ध बताकर जिस जनता से त्याग के लिए आह्वान करने लगती हैं वही एक स्थिति के बाद विपक्ष बनकर विरोध पर उतर आती है।सरकार की सही सलाहों को भी वह प्रतिबंध मानने लगती है।सरकारें तब इस विरोध को स्व-स्फूर्त और अस्थायी न मानते हुए राज्य के प्रति विद्रोह समझ क़ानून-व्यवस्था का मसला बना लेती है।वास्तविक युद्ध में ऐसा नहीं होता।जनता अपनी ओर से ऐसे त्याग करती है जिसकी कि राज्य कल्पना भी नहीं कर पाता।लॉक डाउन की अवधि को लेकर सरकार एक ऐसे विषय की समय-सीमा में नागरिकों को बांधना चाह रही है जो उसके वश में है ही नहीं।चूँकि कोरोना युद्ध से अलग एक अन्य बड़ी समस्या है ,उसे एक-तरफ़ा युद्ध-विराम करके भी नहीं रोका जा सकता।
नागरिकों की भूमिका को लेकर बहस का सवाल दो कारणों से उपस्थित हुआ है।पहला और सबसे बड़ा तो सरकार का यह ऐलान कि नागरिकों को अब कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी और दूसरा यह कि सार्वजनिक क्षेत्र की कमज़ोर और ध्वस्त कर दी गई स्वास्थ्य सेवाओं पर ही भरोसा करते हुए अपने आपको उसके समक्ष पेश करना पड़ेगा।इसे सरकारों के चिकित्सा सम्बन्धी आश्वासनों और सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति अविश्वास भी माना जा सकता है कि संक्रमण के ज़्यादातर नए मामले अब घनी गरीब बस्तियों और मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों से निकल रहे हैं।बताया गया है कि तीन मई तक महाराष्ट्र में हुई कुल 548 मौतों में 44 प्रतिशत का सम्बन्ध मुस्लिम समुदाय से है जबकि राज्य में उनकी कुल आबादी 12 प्रतिशत लगभग ही है।यही स्थिति मुंबई के धारावी से बाहर आ रहे कोरोना मामलों को लेकर है।
‘संक्रमण’ काल में जिस नागरिक की भूमिका सरकार से ज़्यादा अहम होती वही अगर अपनी बीमारी को ग़रीबी और अभावों का कलंक मानकर छुपाना चाहेगा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से डर कर भागता रहेगा और केवल प्रतिबंधों के पालन को ही कर्तव्य मानकर चलेगा तो फिर उसे एक अंतहीन समय और सीमा के लॉक डाउन के लिए भी तैयार रहना चाहिए।सरकारों को भी फिर छूट मिल जाएगी कि मौतों के कितने आँकड़े सार्वजनिक किया जाए और कितने छुपा लिए जाएँ जिससे कि नागरिकों में भय और भगदड़ नहीं मचे।नागरिकों को उनकी भूमिका के लिए तैयार करने के जो राजनीतिक ख़तरे हैं वे अपनी जगह क़ायम हैं।