लेखक- अमन सिंह
केंद्र सरकार ने संयुक्त सचिव के पद पर सीधी भर्ती का निर्णय लिया तो ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो. एक आईएएस अधिकारी को पदोन्नति के बाद इस पद पर पहुंचने में 16-17 साल लग जाते हैं. इस पद पर गैर-शासकीय क्षेत्र से किसी विशेषज्ञ को सीधे लेने की व्यवस्था अपवाद स्वरूप की जाती रही है. पहली बार बड़ी संख्या में विशेषज्ञों को लेने का संगठित प्रयास किया जा रहा है. इसके पक्ष और विपक्ष में आ रहे विचारों को ‘ बासी कढ़ी में उबाल’ माना जाए या सार्थक बहस? फिलहाल तो ‘ जनरलिस्ट बनाम स्पेशलिस्ट ‘ जैसे पुराने विवाद को फिर हवा मिल गई है.
भारत में 1920 में संयुक्त सचिव का पद बनाया गया था, जिसकी संख्या 1937 में आठ और 1946 में बढ़ाकर 25 की गई थी. सातवें वेतन आयोग के बाद केंद्र में अब संयुक्त सचिव के 341 पद हो गए हैं. इसमें 249 आईएएस अधिकारी हैं. संयुक्त सचिव पद प्रशासन की रीढ़ हैं. क्या नौकरशाहों का यह डर स्वाभाविक नहीं है कि उनके प्रति सरकार का विश्वास कम हो रहा है? बाहरी लोग इस पद पर आने लगेंगे तो उनके कैडर का नायकत्व खतरे में पड़ जायेगा? क्या अब ‘ नौकर ‘ लुप्त हो गया है और बचे हुए ‘ शाह ‘ को ताजा हवा के झोंके से डर लगने लगा है? ‘ लेटरल एंट्री ‘ के समर्थकों को लगता है कि 19 वीं शताब्दी की सोच वाली नौकरशाही काम में रुकावट और विकास में अवरोध डालती है. नवाचार समर्थकों का यह भी तर्क है कि देश में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, आधार, अंतरिक्ष क्रांति जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धियां, विशेषज्ञों के नेतृत्व में और नौकरशाही के बिना मिलीं.
विरोधियों का मत है कि नई पहल से सामाजिक सरोकारों से खाली, लोभी, लालची निजी क्षेत्र की कथित प्रतिभाएं ‘ कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट ‘ की मिसाल बनेंगी, जो अपने ही विशिष्ट कार्यक्षेत्र का ज्ञान रखते हैं. वे सरकार में रहकर अपने पसंदीदा कॉरपोरेट घरानों के प्रतिनिधि की तरह काम करेंगे. वामदलों को तो यह सब नौकरशाही में ‘ भगवाकरण ‘ की साजिश प्रतीत हो रहा है.
सरकार में अच्छे अधिकारियों और प्रतिभाओं की कमी नहीं रही है. बल्कि व्यवस्था की कमियों ने उनकी धार को भोथरा कर दिया है. ‘ थ्री-सी’ ( सीएजी, सीबीआई, सीवीसी) के डर से बहुत अच्छे अधिकारी भी बड़े निर्णय लेने और काम करने में हिचकिचाते हैं. सरकारी क्षेत्र में अच्छा काम करने वाले को प्रोत्साहन की कमी और कैलेंडर आधारित पदोन्नति प्रणाली से ‘ सभी धान- बाई पसेरी ‘ मूल्यांकन प्रणाली से ग्रसित है. संरचना और प्रणालीगत सुधार के बिना सिर्फ अफसर के भरोसे जीत का ख्वाब ‘ दिवा-स्वप्न ‘ साबित हो सकता है. फार्मूला वन वर्ल्ड चैंपियन माइकल शूमाकर से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे एम्बेसडर कार से एफ -1 रेस जीत सकें. रेसिंग ड्राइवर को, रेसिंग कार चाहिए. सिर्फ ड्राइवर बदलने से रेस नहीं जीती जा सकती. परिणाम चाहिए तो कार्य की गति, दक्षता और कार्य निष्पादन पर आधारित पुरस्कार प्रणाली अपनानी होगी. हमें निजी क्षेत्र के दिग्गज से ज्यादा निजी क्षेत्र की कार्यप्रणाली की आवश्यकता है.
वर्तमान में ‘ लेटरल एंट्री ‘ की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को दी गई है, जिस पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं. सार्वजनिक जीवन में धारणा, वास्तविकता से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है. अतः डीओपीटी की सक्षमता का सवाल उठाए बिना यूपीएसएससी की साख और विशेषज्ञता का लाभ लेते हुए यह कार्य सीधे यूपीएसएससी को करना चाहिए.
वैसे भी ‘ लेटरल एंट्री ‘ के लिए अत्यंत साधारण अर्हता निर्धारित करने के कारण आवेदनों की बाढ़ आ जायेगी, जिससे चयन हेतु सही प्रतिभाओं का मूल्यांकन अत्यंत समय और श्रम साध्य है.
वर्तमान वीयूसीए जगत की अवधारणा ही तेज परिवर्तन, अनिश्चितता, जटिलता और अस्पष्टता से बनती है. वर्तमान समय में नौकशाही के सामने सबसे बड़ी चुनौती विशेषज्ञों की उपलब्धता नहीं बल्कि रोज बदलती टेक्नोलॉजी की क्रांति और उसे आत्मसात करने की है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और एनालिटिक्स की त्रिवेणी दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रही है. सरकार भी इससे अछूती नहीं रह सकती. अतः आवश्यक है कि नौकरशाही इस त्रिवेणी को साधकर अपनी कुशलता बढ़ाये.
आकांक्षी समाज की चुनौतियों से जूझने के लिए एक अकेला सुपर हीरो सक्षम नहीं है. शायद इसी कारण ‘ मार्वल कॉमिक्स ‘ ने अलग-अलग विशेषताओं वाले 22 सुपर हीरो ‘ अवेंजर्स ‘ को एक साथ लेते हुए अवेंजर्स-इन्फिनिटी वार फ़िल्म बनाई थी. अपने आंतरिक मतभेदों को भुलाकर एक टीम के रूप में काम करने की तरकीब अपनाने वाली यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर दुनिया की सर्वाधिक कमाई वाली चार फिल्मों में शुमार है. इस अकेली फ़िल्म ने 12 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा कमाई की थी. वक़्त के तकाजे और जन-आकांक्षाओं की पूर्ति करने वाली नौकरशाही के लिए भी इस फ़िल्म में बड़ा संदेश छुपा है. ‘ अवेंजर्स ‘ जैसी क्षमता के साथ संगठित रूप में काम करने से ही भावी सफलता सुनिश्चित की जा सकती है, हालांकि यह रास्ता दुर्गम भी है और लंबा भी.
( लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव हैं, लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)