आने वाले चुनाव में संत समाज के अपने विचारों को हमें सिर्फ राजनैतिक चश्में से नहीं देखना चाहिए. वास्तव में संत परिस्थिति में नहीं स्थति में जीता है. भारत ऋषि और कृषि संस्कृति का देश है. इतिहास इसका साक्षी है. राजतन्त्र का राजमार्ग जब तक आश्रमों की पगडंडियो से जुड़ा रहा, प्रतिबद्ध एवं समर्पित रहा है तो उसने समाज को प्रकाशित किया है. संतो से संपोषित परंपरा का हमारा देश रहा है. आज हमें समाज में संतो की भूमिका को ठीक से समझने की ज़रूरत है. संत का दर्शन सभी के लिए सम्यक सम होता है और उसका स्वभाव निर्द्वंद,निर्विकार होता है. स्वर्गीय क्रांतिकारी राष्ट्र संत तरुण सागर जी महराज कहते थे कि “संत की विचारधारा बच्चों के हाथ का खिलौना होती है, जवानी की ऊर्जा होती है और बुढ़ापे की लाठी होती है.” जब पूरा देश चैन की नीद सोता है तो उस समय देश का संत अपनी संस्कृति, सभ्यता और अपनी परंपरा के लिया जागता है. समाज में व्याप्त आलस्य प्रमाद को देखकर व्यथित होता है. इसीलिए कबीर साहब ने कहा है कि “सुखिया सब संसार है खावै अर सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै अर रोवै”. सामाजिक और वैचारिक संतुलन बिगड़ने पर संत का व्यथित होना स्वाभाविक है. जब कोई संत राजनेताओं को या समाज को सही दिशा देने की बात कहते हैं तो उसके पीछे कोई राज राजनैतिक उच्चता प्राप्त करने उनकी की मंशा नहीं होती बल्क़ि, वो समाज में अच्छे सदविचारों को स्थापित करना चाहते है.
स्पर्धा देखकर वो प्रसन्न होते है वहीं किसी भी स्तर में निर्लज्जता देखकर दुखी होते हैं. इसीलिए ” संत ह्रदय सु विमल कपासु” कहा गया है तात्पर्य संत स्वभाव से विमल एवं कपास की तरह होता है. कपास सभी रंगों को सहज भाव से स्वीकार कर लेता है. कपास को और ठीक ढंग से समझे, कपास से धागा बनता है, धागा कपास से थोडा कड़ा होता है और धागे से वस्त्र बनता है. वस्त्र का क्या स्वभाव , वस्त्र क्या काम आता है ? सीधा उत्तर होगा पहनने के लिए होता है पर कोई वस्त्र केवल परिधान बस नहीं होता है वो हमारी लज्जा का निवारण करता है. ठीक उसी प्रकार जब सामाजिक गतिविधियों में हलचल होता है, हमारा चिंतन बिखर जाता है. जब शब्द संयम खो देते है, सार्वजनिक जीवन में वैचारिक निर्लज्जता आ जाती है तब उस लज्जा को बचाने के लिए संत वस्त्र बनकर आते हैं. यही हमारे देश के संत का स्वभाव भी और कर्त्तव्य भी. मेरा यह मानना है कि संत समाज (हर किसी पंथ) के उनके द्वारा आने वाले विधानसभा के चुनाव में कोई जय पराजय के लिए नहीं बल्क़ि, हमें सही दिशा देने के लिए अपने विचारों से समाज को अवगत कराते रहते हैं. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि चुनाव के पूर्व ही में शिष्टता एवं शालीनता आहत होते जा रही है. राजनेता शब्द-संवाद और संयम खोते हुए दिखाई दे रहे है. एसे समय में देश के संतो का चिंतित होना स्वाभाविक है. उनका मार्गदर्शन ही स्वस्थ और स्वच्छ राजनीति की स्थापना करेगा. इसीलिए लिए संतो का आशीर्वाद कोई राजनेता लेने जाते है उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।।।।।।
( लेखक संदीप अखिल, वरिष्ठ पत्रकार)