रमेश सिन्हा, पिथौरा। छत्तीसगढ़ में हरेली का त्यौहार धूमधाम से मनाया जा रहा है आइए जानते हैं क्या खूबी है इस त्यौहार की।

छतीसगढ़ के प्रमुख त्याहारों में हम हरेली तिहार की प्रतीक्षा बेसब्री से करते है क्योंकि इस दिन चीला खाने के साथ “गेड़ी”  चढने का भी भरपूर मजा लेते है। 

यूँ हो सावन का महीना प्रारंभ होते ही चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है। नदी-नाले प्रवाहमान हो जाते हैं तो मेंढकों के टर्राने के लिए डबरा-खोचका भर जाते हैं। जहाँ तक नजर जाए वहाँ तक हरियाली रहती है। आँखों को सुकून मिलता है तो मन-तन भी हरिया जाता है। यही समय होता है श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में अमावश्या को “हरेली तिहार” मनाने का। 

नाम से ही प्रतीत होता है कि इस त्यौहार को मनाने का तात्पर्य भीषण गर्मी से उपजी तपन के बाद वर्षा होने से हरियाई हुई धरती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ही होता है, तभी इसे हरेली नाम दिया गया। मूलत: हरेली कृषकों का त्यौहार है, यही समय धान की बियासी का भी होती है। किसान अपने हल बैलो के साथ भरपूर श्रम कृषि कार्य के लिए करते हैं, तब कहीं जाकर वर्षारानी की मेहरबानी से जीवनोपार्जन के लिए अनाज प्राप्त होता है। उत्सवधर्मी मानव आदि काल से ही हर्षित होने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता और खुशी प्रकट करने, रोजमर्रा से इतर पकवान खाने की योजना बना ही लेता है, यह अवसर हमारे त्यौहार प्रदान करते हैं।

जो ऊंची गेड़ी में चढता में उसे हम अच्छा मानते है। गेड़ी के बांस के पायदान की धार से पैर का तलुवा कटने का भी डर रहता है इसलिए ध्यान से ही गेड़ी चढते है। गेड़ी पर चढकर अपना बैलेंस बनाए रखते हुए चलना भी किसी सर्कस के करतब से कम नहीं है। इसके लिए अपने को साधना पड़ता है, तभी कहीं जाकर गेड़ी चलाने का आनंद मिलता है। 

अबरा-डबरा को तो ऐसे ही कूदते-फ़ांदते पार कर लेते है। बदलते समय के साथ अब गांव में भी गेड़ी का चलन कम हो गया। परन्तु हरेली की पूजा के नेग के लिए गेड़ी अभी भी बनाई जाती है। छोटे बच्चे मैदान में गेड़ी पर चढ़ते हुए दिख जाते हैं।

 कुल मिलाकर हरेली पारम्परिक उत्सव का प्रमुख त्यौहार में एक है।