रायपुर। राजनीतिक विरासत कितना ही सशक्त क्यों न हो जब तक आप जमीन पर नहीं होंगे शिखर की ओर नहीं होंगे. शिखर चढ़ने के लिए जमीन पर आना ही होता है. शायद इस सच्चाई को भवानी शंकर शुक्ल ने तब बखूबी जाना जब 2013 के चुनाव में हार मिली. भले ही ये हार उनके पिता की थी, लेकिन असल में थी तो भवानी की. क्योंकि भवानी ने अपने पिता का चुनावी कमान अपने हाथों में लिया था. और ये हार भवानी के लिए बड़ा झटका था. बात 2013 विधानसभा चुनाव की हो रही है. जब अमितेष शुक्ल भाजपा के संतोष उपाध्याय से कड़ी टक्कर में हार गए थे. लेकिन भवानी ने हार नहीं मानी. वे हार से हीरो बनकर उभरे.

कहते है न… हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं. भवानी शंकर ने इस फिल्मी डॉयलाग को राजनीति में सच साबित कर दिखाया. भवानी ने 2013 के चुनाव में हार की गहरी और नीचले स्तर पर जाकर समीक्षा की. बूथ स्तर की पूरी जानकारी जुटाई. आंकड़ों का कई स्तरों पर विश्लेषण किया. उन्होंने हार के उन तमाम वजहों को ढूँढ निकाला जिसने उन्हें कड़ी मेहनत के बाद भी जीरो बना दिया था. लेकिन जीरों बनने के बाद भवानी शंकर न निराश हुए न हताश. बल्कि उन्होंने विश्वास को पूर्ण आत्मविश्वास में बदल संघर्ष जारी रखा.

2013 में पिता को मिली हार के बाद भवानी फिर से संघर्ष के लिए तैयार थे. क्योंकि भवानी ने अपनी सेना चुनावी रण के लिए तैयार कर ली थी. 2018 के चुनाव आते-आते तक भवानी शंकर शुक्ल के पास अपनी एक पूरी टीम थी. गांव-गांव में भवानी ने कांग्रेसियों की फौज खड़ी कर ली थी. राजिम विधानसभा के भीतर भवानी को पता था कब कहां-कैसी चाल चलनी है. पिता अमितेष शुक्ल की जीत की बिसात मतदान के पहले भवानी ने बखूबी बिछा ली थी. कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर जिस तरह भवानी शंकर ने बूथ स्तर पर भरोसा जताया इससे वो नतीजे चौंकाने वाले आएंगे ये जान चुके थे.

11 दिसंबर 2018 यह वही ऐतिसाहिक तारीख है जब रिकार्ड सीटों के साथ कांग्रेस सत्ता में आई. और यही वह ऐतिसाहिक तारीख है जब अमितेष शुक्ल ने रिकार्ड मतों के साथ चुनाव में जीत हासिल की. एक ऐसी जीत जब पिता अमितेष के लिए बेटा भवानी शंकर जीत के नायक बनकर उभरे. भवानी ने इस चुनाव से न सिर्फ खुद को युवा नेतृत्व के रूप में महासमुंद संसदीय क्षेत्र में साबित किया बल्कि यह भी बता दिया कि चुनाव लड़ते कैसे हैं और जीतते कैसे हैं.

महासमुंद संसदीय क्षेत्र में आज भवानी राजिम विधानसभा से काफी आगे निकल चुके हैं. युवाओं का नेतृत्व करते हुए भवानी शंकर इलाके के हर उस कोने तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं जहां उनका संबंध धरातल पर आम जन से है. महासमुंद, धमतरी और गरियाबंद का आदिवासी अंचल हो या फिर नदी किनारे का मैदानी क्षेत्र हर जगह भवानी की टीम तैयार है. लेकिन भवानी के लिए यह सबकुछ आसान नहीं रहा है. टीम बनाने के लिए अनुभव की जरूरत होती, राजनीतिक समझ जरूरी है, कार्यकर्ताओं के मनो स्थिति को समझना पड़ता है, आम लोगों के दिलों में उतरना पड़ता है. लेकिन भवानी शंकर आज इलाके में एक ऐसा युवा चेहरा बन चुका है जिसे महासमुंद संसदीय इलाके में पहचान की जरूरत नहीं है. क्योंकि दादा श्यामाचरण शुक्ल से बचपन से मिली विरासत, पिता अमितेष शुक्ल के चुनाव संचालन से मिली जिम्मेदारी और इलाके में साथी कांग्रेसियों के साथ गांव-गांव का दौरा ने लोगों तक भवानी को न सिर्फ पहुँचा दिया है, बल्कि उन्हें एससास भी करा दिया है कि काम तो उन्हें इनके बीच ही रहकर करना होगा.  दादा के उन सपनों को पूरा करना होगा जिसमें हर चेहरे पर मुस्कान, किसानों के हर खेतों तक पानी, युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार, स्मार्ट शिक्षा की मजबूत नींव शामिल रहे हैं. भवानी शंकर नई सोच और जोश के साथ नवा छत्तीसगढ़ गढ़ने अब देश के आम चुनाव के लिए निकल पड़ा है. लेकिन भवानी की कहानी यहीं रुकती. अभी बता उन किरदारों की भी होगी जिन्होंने भवानी को अंदर से झकझोरा है, उन अनछूए किस्सों की बात होगी जिन्हें याद कर भवानी भावुक हो जाते हैं, उन पहेलियों को बूझने की कोशिश भी करेंगे जो शायद भवानी के लिए भी अभी अबूझ है. लेकिन ये सब कुछ आगे की कहानी में…. सिर्फ लल्लूराम डॉट कॉम पर….पढ़ते रहिए युवा नेतृत्वकर्ताओं पर हमारी ये खास सीरिज….सच्ची कहानी