जशपुर जिले के गाँवों में चलाए जा रहे पत्थलगढ़ी आंदोलन का समर्थन छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन संगठन ने किया है। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में राज्य सरकार और उद्योपतियों को निशाना बनाय गया है साथ कई गंभीर आरोप लगाए हैं. आलोक शुक्ला की ओर से जारी बयान के मुताबिक
पत्थलगढ़ी में संविधान और पांचवी अनुसूची के प्रावधान की व्याख्या सही गलत हो सकती हैं जिस पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए परन्तु उसे पूर्णतः नकारते हुए तोड़ देना अनुचित व गैरकानूनी हैं। इसके साथ ही पत्थलगढ़ी की आड़ में भाजपा अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के तहत मिशनरियों को बदनाम करने की कोशिश कर रहा हैं । पत्थलगढ़ी कोई अचानक हुई घटना नही हैं बल्कि आदिवासी समाज के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के विरोध स्वरूप एवं संविधान प्रदत्त संरक्षण की सतत अवहेलना का परिणाम हैं। इसलिए आज आदिवासी समाज स्वयं संविधान की व्याख्या कर प्रतिरोध जाता रहा हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण से ही प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाकर उनके जंगल  जमीन को कार्पोरेट को सौपने का कार्य राज्य व केंद्र सरकारों द्वारा किया जा रहा हैं। रमन सरकार के पिछले 15 वर्षो के कार्यकाल में  आदिवासी क्षेत्रों की संवैधानिक व्यवस्था को  पूर्णतः ही दरकिनार कर पेसा कानून का सतत उल्लंघन किया गया हैं। राज्य सरकार की इस जन विरोधी नीतियों के खिलाफ पूरे प्रदेश में आदिवासी, किसानों के बीच  व्यापक आक्रोश व्याप्त हैं।
 पांचवी अनुसूची के प्रावधानों  और पत्थलगढ़ी में ग्रामीणों द्वारा उनकी व्याख्या पर यदि कोई भी आपत्ति हैं तो सरकार का दायित्व हैं कि वह ग्रामीणों के साथ व्यापक चर्चा करें और उन्हें आश्वस्त करे कि आदिवासियों के संविधानिक अधिकारों की राज्य सरकार रक्षा करेगी । परंतु इसके विपरीत राज्य सरकार की सहमति से भाजपा के पदाधिकारियों और स्वयं केंद्रीय मंत्री की उपस्थिति में सद्भावना यात्रा के नाम पर पत्थल गढ़ी को तोड़ना और ग्रामीणों के साथ मारपीट की घटना ने स्पष्ट कर दिया हैं कि भाजपा सरकार पूर्णतः आदिवासी विरोधी हैं। और वह स्वयं गैरकानूनी व गैरसंवैधानिक कार्यो में ही विश्वास रखती हैं।
आज छत्तीसगढ़ में कार्पोरेट लूट भयानक तरीके से जारी हैं और पूरा प्रशानिक तंत्र इसके लिए तमाम कानूनों व प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर कार्य कर रहा हैं।
राज्य सरकार हमेशा आदिवासी, किसान हितेषी होने का दावा करती हैं लेकिन सच्चाई यह हैं  कि अनुसूचित क्षेत्रो में ओधोगिक व खनन परियोजना की स्थापना के पूर्व पेसा कानून अनुसार ग्रामसभा की सहमति के प्रावधान की लगातार धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। अदानी जैसी कंपनियों के लिए प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा जबरन ग्रामसभाओं से प्रस्ताव पारित करवाये जा रहे हैं। वनाधिकार मान्यता कानून के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक वनाधिकरो की मान्यता की प्रक्रिया को पूरे प्रदेश में अघोषित रूप से बंद कर दिया गया हैं।  आज भी लाखों लोग अपने जंगल जमीन के दावा फार्म को जमा  नही कर पाए हैं । जिन ग्रामीणों ने दावा फार्म जमा किये हैं उनमें भी बिना किसी सूचना के 60 प्रतिशत दावे राज्य सरकार ने निरस्त कर दिए हैं। सामुदायिक वनाधिकार की मान्यता का तो सिर्फ मजाक बना दिया गया हैं। वर्ष 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में जमीन के चार गुणा मुवावजा राज्य में एक गुणा कर दिया गया जिससे कंपनियों को सस्ती दर पर जमीन मिल सके ।
वर्तमान समय मे सिर्फ मुनाफे के लिए खनन व उधोगों के नाम पर प्रदेश के सघन वन क्षेत्रों का विनाश किया जा रहा हैं जिससे जंगल जमीन पर निर्भर समुदाय की आजीविका और उनके अस्तित्व का गहरा संकट हैं। पूरी पारिस्थिकी और पर्यावरण गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा हैं। इसलिए इस विनाश के खिलाफ एवं लोगो के आजीविका के अधिकारों की सुरक्षा हेतु  छत्तीसगढ बचाओ आंदोलन प्रतिवद्ध हैं। आंदोलन वीर भोग्या वसुंधरा की अवधारणा नहीं बल्कि संपूर्ण प्राणी जगत के नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा के लिए सतत संघर्षरत है ।