रजनी ठाकुर, रायपुर। दामिनी याद है, दामिनी साहू .नहीं याद??वही छत्तीसगढ़ की वर्ल्ड योगा चैंपियन,,कुछ याद आया?अब भी नहीं. भूल गए? सरकार भी आपकी ही तरह भूल गयी है दामिनी और दामिनी से किये वादे को. गुरुवार को जब बड़े ही ज़ोर शोर से लाखों खर्च करके विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है तो बरबस ही दामिनी की याद आ गई जिसने 2017 में वर्ल्ड योगा चैंपियनशिप में कई देशों को पछाड़कर भारत को गोल्ड मैडल दिलाया था. छत्तीसगढ़ की इस बेटी ने प्रदेश ही नहीं देश का भी नाम रौशन किया था.

लेकिन जिस बेटी ने देश और प्रदेश के लिए इतना कुछ किया, जानते हैं सरकार ने उसके लिए क्या किया? एक झूठा वादा.. जो एक साल बाद भी पूरा नहीं किया गया और आज वो बेटी गुमनामी के अंधेरे में जी रही है. उसकी प्रतिभा जिसमें दुनिया जीतने की कूबत है, दुनियादारी में गुम होकर रह गई है…

कौन है दामिनी, क्या था सरकार का वादा??

धमतरी जिले की रहने वाली दामिनी पहली बार तब चर्चा में आई जब उसने नेपाल में हुए योगा वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मैडल जीता था. कई देशों को पछाड़ के दामिनी ने ये मेडल जीता था. दूसरी बार दामिनी तब खबरों में आई जब उसकी सिर पर ईंट ढोते उसकी तस्वीर सामने आई और पता चला कि देश के लिए गोल्ड लाने वाली ये बेटी पेट पालने के लिए मजदूरी करती है.

खूब हल्ला हुआ मीडिया में खबरें आईं जिसके बाद योग आयोग के अध्यक्ष संजय अग्रवाल दामिनी से मिलने उसके घर पहुंचे और जोश जोश में उन्होंने कहा कि दामिनी साहू को छत्तीसगढ़ में योगा का ब्रैंड अम्बेसेडर बनाएंगे. इतना ही नहीं हर संभव आर्थिक मदद भी देंगे. ये अलग बात है कि उनके लिए हरसंभव का मतलब सिर्फ पांच हज़ार रुपये ही था.
और जैसा कि सरकारी वादा और डिमनिसिया बीमारी एक सी ही होती है.जहां थोड़ी देर पहले की कोई बात याद नहीं रहती.

तो संजय अग्रवाल भी अपना वादा भूल गए,सरकार भी भूल गयी औऱ भूलने का आलम ये है कि अम्बेसेडर बनाना तो दूर योग आयोग दामिनी को योग दिवस के कार्यक्रम में बुलाना ही भूल गया.

अब कहाँ है दामिनी

दामिनी अब एक प्राइवेट स्कूल में योग टीचर है. दामिनी को अपने स्कूल का चेहरा बनाकर तो वह निजी स्कूल आगे बढ़ गया पर खुद दामिनी की ज़िंदगी वहीं थम गई. स्कूल में उसके साथ हो रहे बर्ताव पर हम ज्यादा तो कुछ नहीं कहेंगे पर इतने से समझिए कि स्कूल जॉइनिंग के बाद दामिनी एक भी चैंपियनशिप में नहीं जा पायी.

दामिनी की तो मजबूरी है पिता दिव्यांग हैं. काम करने में अक्षम हैं, माँ पढ़ी-लिखी नहीं है. दो छोटे भाई-बहन हैं और इस परिवार को चलाने के लिए काम करना मजबूरी है. क्योंकि गोल्ड मेडल सिर्फ गले में चमक सकता है. पेट की भूख नहीं मिटा सकता पर सरकार की क्या मजबूरी है कि योगा की इस खिलाड़ी को इतनी मदद भी नहीं दे सकती कि वो अपना खेल जारी रख सके..

क्योंकि सच्चाई ये है कि ये एक दिन के आयोजन नहीं बल्कि दामिनी जैसे लोग योगा को देश विदेश में अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिला सकती है. कुछ नहीं तो कम से कम दामिनी से किया वादा ही पूरा कर दें. उसे योग का ब्रांड अम्बेसेडर बनाकर.