अनिल सिंह कुशवाह, भोपाल. क्या कांग्रेस मध्यप्रदेश में पिछले 15 सालों में इतना हांफ चुकी है कि उसे बीजेपी से मुकाबला करने के लिए दूसरे दलों की जरूरत पड़ रही है ? क्या सरकार के खिलाफ भारी एंटी इकंवेंसी को भुनाने के लिए उसके पास अपने कार्यकर्ताओं या ‘लोकप्रिय’ नेताओं की कमी है ? या फिर उसे अपने ऊपर ही ‘विश्वास’ नहीं रह गया है ? ये वह सवाल हैं, जो चुनावी रण में कूदने से पहले उस कांग्रेस की स्थिति को बयां कर रहे हैं, जो कई दशकों तक मध्यप्रदेश की सत्ता में रही और दिल्ली की राजनीति में उसके पास मध्यप्रदेश से ही सबसे ज्यादा नेता भी हैं। फिर ऐसी क्या कमी रह गई है कि कांग्रेस को अपने ही ‘पुराने गढ़’ में वनवास खत्म करने के लिए अब गठबंधन का सहारा लेना पड़ रहा है ?
दो दलीय व्यवस्था वाले राज्य में विपक्ष के सामने इससे बड़ी ‘अपराजय’ वाली स्थिति और क्या हो सकती है ? कहने को तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव मध्यप्रदेश में अपनी ‘साइकिल’ को हवा भरने आए थे, लेकिन सियासत यह है कि वह कांग्रेस नेताओं पर दबाव की पॉलिटिक्स खेल गए ? जबकि, कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता को भी पता है कि मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) का ज्यादा प्रभाव नहीं है। इसके जो भी नेता हैं, वे ज्यादातर कांग्रेस से बगावत करके आए हैं। कहते हैं, जब खुद पर विश्वास न हो तो ‘दुबला पतला’ पड़ोसी भी गर्दन दबा देता है।
यूपी में सपा जरूर पॉवरफुल है और यादवों व पिछड़ों की पार्टी मानी जाती है। ऐसे में कमलनाथ को लगता है कि सपा को साथ लेकर वह मध्यप्रदेश में भी इस वर्ग के वोट अपने पक्ष में कर लेंगे। कमलनाथ ये विवशता मीडिया के सामने यह कहकर स्वीकार भी कर चुके हैं कि कांग्रेस चाहती है कि सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा न हो ?
सवाल यह है, कांग्रेस मध्यप्रदेश में क्यों पिछले 15 साल में पिछड़ों का कोई बड़ा नेता खड़ा नहीं कर पाई है ? मनमोहन सिंह सरकार में इकलौते यादव मंत्री रहे अरुण यादव साढ़े 4 साल मध्यप्रदेश कांग्रेस के भी प्रदेश अध्यक्ष रहने के बाद भी क्यों पिछड़ों के बड़े चेहरा नहीं बन पाए ? या फिर बनने नहीं दिया गया ?
मध्यप्रदेश में सपा की स्थिति की बात करें तो 2003 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 7 सीटें जरूर जीती, लेकिन इनमें 6 उम्मीदवार कांग्रेस से ही बागी होकर सपा के टिकिट पर चुनाव लड़े थे। फिर अपने ही दम पर चुनाव जीते भी। इनके जरिए सपा को मध्यप्रदेश में 9 प्रतिशत वोट जरूर मिले, लेकिन, 2008 के चुनाव में सिर्फ 2 प्रतिशत ही वोट मिल सके। 2013 के चुनाव में ये और घटकर 1 प्रतिशत से भी कम हो गए। यानी, उत्तरप्रदेश में पॉवरफुल रहने वाली सपा पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में अपना जनाधार नहीं बढ़ा पाई है। फिर भी कमलनाथ को लगता है कि सपा मध्यप्रदेश में कांग्रेस की नैया पार लगा सकती है ? हालांकि, इस चुनाव में गठजोड़ कांग्रेस की आगे यानी 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों को साधे रखने की मजबूरी भी हो सकती है ?
वैसे, सपा के अखिलेश यादव कांग्रेस के ‘नाथ’ से मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कितनी सीटें मांगेंगे यह कुछ दिन बाद ही पता चलेगा ? लेकिन, उत्तरप्रदेश की ही बहनजी और अखिलेश की ‘वर्तमान’ बुआ यानी मायावती ने जरूर 27 सीटें बसपा के लिए छोड़ने की मांग कर कांग्रेस के फेंटे हुए पत्तों को बिखेर दिया है।
वैसे, मध्यप्रदेश में बसपा भी अकेले कोई बहुत बड़ी ताकत नहीं है। अपने दम पर वह बीजेपी को नुकसान नहीं पहुंचा सकती है। लेकिन, पिछले कई चुनावों के दौरान कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। 2003 विधानसभा चुनाव कांग्रेस दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में लड़ी थी। 230 सीटों वाली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 38 सीटें जीत सकी थी। इसी विधानसभा चुनाव में बसपा मात्र 2 सीटें जीत पाई थी, लेकिन कांग्रेस 25 सीटें सिर्फ बसपा की वजह से हार गई थी और कुछ ऐसा ही बसपा के साथ भी हुआ था। बसपा 14 सीटों पर सिर्फ इसलिए हार गई थी, क्योंकि कांग्रेस के साथ वोट बंट गए थे। यदि इन दोनों पार्टियों के नुकसान को जोड़ा जाए तो ये वो 39 सीटें हैं, जो दोनों दल अलग अलग लड़ने की वजह से हार गए थे। बसपा मध्यप्रदेश में हर चुनाव में 5 से 7 प्रतिशत वोट जरूर पाती है। यदि बसपा और कांग्रेस ने साथ में चुनाव में लड़ा होता तो कम से कम 79 सीटें तो इन्हें मिल ही जातीं। 2008 विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो 2003 में 38 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2008 में 71 सीटों पर विजयी रही थी। वहीं 2003 में 173 सीटें जीतने वाली बीजेपी 143 सीटों पर जीत के साथ सत्ता में लौटी थी। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस को करीब 39 सीटों पर झटका दिया था। जबकि खुद बसपा को करीब 14 सीटें पर कांग्रेस की वजह से मात खानी पड़ी। अगर इसे जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 131 पहुंच जाता है। मतलब बीजेपी की 143 सीटों के बेहद करीब और सिर्फ 12 कम। ऐसे में कमलनाथ की रणनीति यह है कि अगर बसपा को कुछ सीटें देने से कांग्रेस के खाते में 40 के आसपास अतिरिक्त सीटें आ रही हैं तो इसमें नुकसान क्या है ?
मध्यप्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से ही कमलनाथ गठबंधन की राजनीति के लिए सक्रिय हो गए थे। हर हाल में प्रदेश में चौथी बार कमल न खिले, इसके लिए कमलनाथ कोई कोर कसर नही छोड़ना चाह रहे हैं। ऐसे में कमलनाथ के नेतृत्व में बसपा के लिए जो ऑफर तैयार किया जा रहा है, उसमें बसपा को 15 सीटें देने की बात है। कांग्रेस चाहती है कि बसपा को वो चार सीटें दे दी जाएं, जिन पर 2013 में उसने जीत दर्ज की थी। साथ ही उन 11 सीटों को भी दे दिया जाए, जिन पर वह दूसरे स्थान पर रही थी। हालांकि सीटों की यह संख्या फाइनल नहीं है। लेकिन, 27 सीटें मांग रहीं मायावती क्या 15 सीटों से संतोष करेंगी ?
मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों और विशेष कर ग्वालियर-चंबल तथा उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में बसपा की हमेशा से अच्छी पकड़ रही है। यह इसलिए भी है क्योंकि राज्य के दलितों की उच्च जनसंख्या, करीब 15 प्रतिशत, इन्ही क्षेत्रों में निवास करती है।बसपा का दबाव इन सीटों पर ज्यादा रहेगा। लेकिन, ग्वालियर-चम्बल, कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रभाव क्षेत्र भी है, ऐसे में वह अपने समर्थकों को कैसे एडजस्ट करेंगे ?
खैर, यूपी के दलों से गठजोड़ कर कांग्रेस मध्यप्रदेश में जीत का गणित देख रही है। लेकिन, सवाल यह है कि कांग्रेस को इससे कितना फायदा होगा और सपा-बसपा को कितना ज्यादा ? क्या ये चुनाव मध्यप्रदेश में दो दलीय व्यवस्था में तीसरे मोर्चे का उदय भी कर रहे हैं ? क्योंकि, यह तय है कि गठबंधन के बाद कांग्रेस सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतार सकेगी। सत्तारूढ बीजेपी से लड़ने के लिए उसके हिस्से में करीब 200 सीटें रहेंगी। ऐसे में बहुमत के जादुई आंकड़े यानी 116 सीटें हासिल करने के लिए फिर हर चल साधी हुई चलनी पड़ेगी। अगर बहुमत के करीब आकर कांग्रेस की सरकार बन भी जाती है तो सत्ता में बसपा-सपा को भी हिस्सेदारी देना होगी। ये हिस्सेदारी और क्षेत्रीय दल बाद में कितना नुकसान पहुंचाते हैं ? ये पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में हम सब लम्बे समय तक देख और सुन चुके हैं। यूपी ‘ब्लैकमेल पॉलिटिक्स’ से अब तक नहीं उबर पाया है। गठबंधन के भरोसे रहकर, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रतिनिधित्व वाले राज्य यूपी में कांग्रेस आज सबसे छोटा दल है !