अनिल सिंह कुशवाह, भोपाल. यह तय है, मध्यप्रदेश में विकास पर चुनाव नहीं हो रहे, न सरकार की लोकप्रियता पर मोहर लगने वाली है। न ही विपक्ष ने पिछले 15 सालों में ऐसा कोई काम किया है, जो जनता उसे सत्ता देने के लिए व्याकुल दिख रही है। मध्यप्रदेश में चुनाव विशुध्द रूप से ‘तिकड़म’ के आधार पर होने जा रहे हैं। इस चुनाव में बीजेपी गरीबों को मुफ्तखोरी बढ़ाने वाली योजनाएं परोसकर फिर से सत्ता में आने के सपने देख रही है, तो कांग्रेस जाति-गठबंधन की तिकड़म से अपना वनवास खत्म करने की उम्मीदें संजोए हुए है। बड़ा सवाल यह है, क्या एमपी को भी यूपी के नक्शेकदम पर ले जाया जा रहा है ?
‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान’ 15 वीं सदी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर ने जब यह दोहा लिखा होगा तो सोचा नहीं होगा कि 1500 साल बाद लोकतंत्र में उनकी यही बात उलट तरीके से राजीनीतिक दलों के लिए जीत या हार का मुख्य आधार बन जाएगी ? राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जातिवाद को लेकर इस समय पूरे देश में शोर मचा हुआ। रह-रह कर जाति के आधार पर आरक्षण की बातें भी सामने आती रहीं हैं।
सूबे की बात करें तो विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं और मध्यप्रदेश में भी अब जातिवाद की राजनीति खुलकर सामने आने लगी है। बीजेपी और कांग्रेस, बेशक दोनों दल कुछ महीने पहले तक विकास और रोजगार की बात कर सभी जातियों को बराबर देखने की बात करते रहे हों, पर सच यह है कि अब जाति के आधार पर सत्ता पाने की उम्मीदें पाल रखीं हैं। जाति के नाम पर पद और टिकिट बंटने की सियासत में अभी तक उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य बदनाम रहे हैं। दोनों राज्यों की राजनीति ऐसी है, जहां ‘जाति’ कभी जाती नहीं है।
खैर, मध्यप्रदेश में धर्म के नाम पर तो कई बार मतदाताओं को बांटने की कोशिशें की गईं। पर जाति के आधार पर बांटने का खेल इससे पहले गुपचुप ही खेला गया है। लेकिन, इस बार के विधानसभा चुनाव में दोनों ही प्रमुख दल जीत के लिए तास के इन्हीं पत्तों को खुलकर फेंटते दिखाई दे रहे हैं। कोई पिछड़ी जातियों का कॉम्बिनेशन बना रहा तो कोई अगड़ी जातियों का।
कमलनाथ ने तो पीसीसी के पद तक जाति पूछ-पूछ कर बांटे हैं। कमलनाथ के हस्ताक्षर से 85 पदाधिकारियों की जो लिस्ट केंद्रीय नेतृत्व को भेजी गई थी, उसमें सामान्य वर्ग में भी कौन ब्राम्हण है और कौन ठाकुर ? ये भेद भी एक-एक पदाधिकारी के नाम के आगे लिखा गया। इसी तरह, पिछड़ा वर्ग में कौन लोधी है और कौन यादव, ये उल्लेख अलग से किया गया। कमलनाथ अब खुलकर यह कहने से गुरेज नहीं कर रहे हैं कि ‘जाति फेक्टर’ विधानसभा चुनाव में कमाल दिखाएगा और यह जरूरी भी है।
यूपी के जातीय दल बसपा-सपा से गठबंधन की संभावनाएं भी कांग्रेस इसी सोच के तहत देख रही है। लेकिन, क्या गठबंधन के बाद कांग्रेस मध्यप्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर पाएगी ? यह बड़ा सवाल है। कांग्रेस यदि सत्ता में आभी जाती है तो सरकार में भी उसे हिस्सेदारी देनी पड़ सकती है। ऐसे में उन कार्यकर्ताओं का क्या होगा जो अपने बूते राहुल गांधी की कांग्रेस को कम से कम मध्यप्रदेश में अपने बूते खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ? यह सवाल भी यक्ष है, गठबंधन के दल आगे चलकर फिर प्रदेश के हितों का कितना नुकसान करते हैं ? यूपी-बिहार का उदाहरण किसी से छिपा नहीं है।
खैर, मध्य प्रदेश की सत्ता से पिछले 15 सालों से बाहर कांग्रेस इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। इसलिए गठबंधन के जरिये वो शिवराज सरकार के सामने अपना दम-खम ठोकने की तैयारी में है। कांग्रेस बुन्देलखण्ड, ग्वालियर-चंबल संभाग और महाकौशल इलाके में अलग-अलग पार्टियों से गठजोड़ करने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
बुन्देलखण्ड और ग्वालियर चंबल संभाग में कांग्रेस की पहली प्राथमिकता बसपा है। यूपी से सटे इन इलाकों में सपा का भी प्रभाव है। लेकिन, पार्टी का मानना है कि बसपा का प्रभाव सपा के मुकाबले ज्यादा है। ऐसे में कांग्रेस बसपा को 12 और सपा को 5 सीटें देने को तैयार है। जबकि, बसपा ने 40 और सपा ने 10 सीटों की मांग रख दी है।
महाकौशल और विंध्य इलाके में गोंड आदिवासियों पर भी कांग्रेस की निगाहें हैं। इन इलाके में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी यानी जीजीपी का प्रभाव है। गोंड जनजाति 6 लोकसभा क्षेत्रों और करीब 60 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखती है। 2003 में जीजीपी के 3 विधायक जीते थे। कांग्रेस इस पार्टी के साथ गठजोड़ करके गोंड जनजाति के साथ ही आदिवासियों को अपने साथ जोड़ना चाहती है। मध्यप्रदेश में कुल 23 फीसदी आदिवासी हैं, जिनमें करीब 7 फीसदी गोंड हैं। कांग्रेस जीजीपी को 3 से 5 सीटें देने के मूड में है।
इधर, गुजरात की तिकड़ी अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक पटेल भी मध्यप्रदेश में जाति की राजनीति को हवा देने के लिए संभावित क्षेत्रों में आ रहे-जा रहे हैं। कांग्रेस को लगता है, मध्यप्रदेश के चुनाव में भी इनके सहारे गुजरात जैसा परफार्मेंस दिया जा सकता है। कांग्रेस के चुनाव कैम्पेन में ये तिकड़ी कितना असरकारी रोल प्ले करेगी, ये आने वाले कुछ दिनों में साफ होगा ? लेकिन यह तय है, कांग्रेस के टिकट वितरण में ये तीनों ‘दिल्ली’ से अपना कोटा जरूर फिक्स करवाएंगे।
अब बात करते हैं विपक्ष की कमजोरियों के कारण पिछले 15 सालों से बड़े दंभ और चापलूसों से घिरे रहने के बावजूद सत्ता सुख भोग बीजेपी की। इसमें कोई दो राय नहीं कि बीजेपी आज सबसे ज्यादा धन संपन्न पार्टी है। राज्य का सरकारी खजाना सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। ओवर ड्राफ्ट कर्ज है और टैक्सपेयी जनता भी टैक्स की मार से तिलमिला रही है। बावजूद इसके, शिवराज सरकार वोटों के लिए एक बड़े तबके को फ्री बिजली और जन्म से लेकर मरण तक योजनाएं देकर मुफ्तखौर बना रही है। जातीय कैलकुलेशन पर भी उसकी रणनीति ‘मत चूको चौहान’ की है। सवाल यह है, कांग्रेस का बसपा-सपा और जीजीपी से यदि ‘ओपन’ गठबंधन होता है तो बीजेपी के ट्रम्प कार्ड क्या हैं ?
मध्यप्रदेश में इन दिनों बहुजन संघर्ष दल भी तेजी से सक्रिय हो रहा है। इस दल के मुखिया फूल सिंह बरैया हैं, जो कभी बसपा का मध्यप्रदेश में चेहरा हुआ करते थे। लेकिन, मायावती के कारण उन्हें बसपा छोड़नी पड़ी। फूल सिंह बरैया की नजर अब बसपा के वोट बैंक पर है। कुछ महीने पहले बरैया भोपाल के टीटी नगर दशहरा मैदान में विशाल रैली और आम सभा कर अपनी ताकत दिखा चुके हैं। बैकडोर ‘कैलुकेशन’ में बीजेपी को बरैया की पार्टी से कांग्रेस-बसपा की उम्मीदों को झटका देने की संभावना दिखाई दे रही है।
बसपा-कांग्रेस विधानसभा क्षेत्रों में जिस जाति विशेष के उम्मीदवार खड़े करती है और फूल सिंह बरैया भी यदि उसी जाति के उम्मीदवार खड़े कर देते हैं तो बीजीपी को चुनाव में लाभ मिल सकता है। बीजेपी सरकार के कुछ मंत्री, अफसर और नेता इसी गणित में जुटे हैं।
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प्रमोशन में आरक्षण’ के विरोध में अस्तित्व में आया सपाक्स का ‘सपाक्स समाज’ विंग भी चुनाव लड़ने का चौंकाने वाला ऐलान कर चुका है। चुनाव में ‘सपाक्स समाज’ के कितने उम्मीदवार जीतेंगे ? यह तो सपाक्स के संरक्षक ही बता सकते हैं ? लेकिन ‘माई के लाल’ से आहत ‘वोट’ कहीं और जाने की बजाय उन्हें मिल जाते हैं तो बीजेपी को अप्रत्यक्ष लाभ होगा। सपाक्स से सवर्ण, ओबीसी व अल्पसंख्यक वर्ग के अफसर-कर्मचारी, जबकि उसकी विंग में रिटायर्ड अफसर-कर्मचारी तथा इस वर्ग के युवा और परिजन जुड़े हैं।
खैर, मध्यप्रदेश में जातिगत आधार पर इन-दिनों तेज हो रही राजनीति पर आप चिंता जाहिर कर सकते हैं। कह सकते हैं, मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही जाति आधारित राजनीति भविष्य के लिए नुकसानदेह है। गरीब और मध्यम वर्ग को जाति के आधार पर बांटकर राजनीतिक रोटियां सेंकना सियासत के मूल्यों के खिलाफ है। लेकिन, मूल्यों को तिलांजलि दे बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही खुलकर इसी गणित में जुटे हैं। फिर प्रदेश का भविष्य कुछ भी हो।
कहते हैं, जाति ऊपर के स्तर पर काम करती है। जब आप टिकट देते हैं, जब उम्मीदवार अपना एजेंट चुनता है या पार्टी का जो कार्यकर्ता है उसमें जाति की सोच काफ़ी ज़्यादा हो सकती है। लेकिन, क्या मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में मतदान भी जाति के आधार पर होगा, या ये सिर्फ़ भ्रम है ?