रायपुर. शिक्षा आज व्यापार का एक बड़ा साधन हो गया है. अच्छी और बेहतर शिक्षा देने के नाम पर अब स्कूल खोलने का धंधा चल पड़ा है. किराने की दुकान की तरह निजी स्कूल शहरों में गली-मोहल्ले से लेकर गांव-गांव तक खुल गए हैं, खोले जा रहे हैं. सरकारी स्कूलों की बदहाली, पढ़ाई का गिरता स्तर और सिस्टम की लाचारी भी इसके पीछे एक बड़ी वजह है. सरकारी सिस्टम की इसी बेबसी के आगे पालक भी निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने मजबूर और बेबस हैं. और इसी लाचारी का फायदा आज बड़े से बड़े तो छोड़िए छोटे से छोटे निजी स्कूल संचालक उठा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में सरकारी स्कूलों का हाल कैसा है यह बताने की जरूरत नहीं. एक अनुमान के मुताबिक एक बड़ी आबादी को राज्य की सरकारी स्कूलों पर भरोसा नहीं है. इस भरोसे को सर्वाधिक बल सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और शिक्षकों से मिलता है. जिनके बच्चें सरकारी स्कूल में नहीं, निजी स्कूल में पड़ते हैं. और सरकारी सिस्टम के इन लोगों को बल सरकार बनाने-चलाने वाले नेताओं और मंत्रियों से मिलता है. क्योंकि उनके अपने बच्चें भी सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते. और तो और कई ऐसे भी हैं जो राजनीति में सेवा के भाव से जुड़कर शिक्षा का व्यापार करते हैं, निजी स्कूलों का संचालन करते हैं, सरकारी सिस्टम को ध्वस्त कर धंधा करते हैं.

मेरे बहुत से रिश्तेदार-दोस्त-यार ऐसे हैं, जो सरकारी स्कूलों में शिक्षक हैं या अन्य सरकारी नौकरी में, लेकिन अधिकांश के बच्चें निजी स्कूल में ही पढ़ते हैं. क्योंकि उन्हें अपने ही सिस्टम पर भरोसा नहीं. शिक्षकों को उन स्कूलों पर भी भरोसा नहीं, जहाँ वे खुद स्कूली बच्चों को पढ़ाते हैं, या फिर शिक्षा विभाग में रह कर स्कूलों की दशा को सुधारने के लिए कार्यरत हैं.

इसी व्यवस्था के साथ निजी स्कूल संचालकों को बढ़ावा मिलता है, मिल रहा है. वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे-छोटे गांव तक में निजी स्कूलों का संचालन हो रहा है. और इसे विडंबना ही कहिए कि सरकारी स्कूल में जो शिक्षक डीएड-बीएड डिग्री लेकर अध्यापन करा रहें, उन पर भी भरोसा गांव वालों को नहीं रहा है. गांव में आज जिनकी भी आमदनी थोड़ी-बहुत अच्छी है वे अपने बच्चों को उन स्कूलों में भेज रहे हैं, जहाँ शिक्षकों की डिग्री सरकारी स्कूल वाले शिक्षकों से कम है. इसके पीछे कारण क्या है समझा जा सकता है.

सच्चाई यह है कि आज सरकारी स्तर पर शिक्षा का सिस्टम बुरी तरह से बिगड़ गया है. और इसे बिगाड़ने में जिम्मेदार सरकार, शिक्षा मंत्रालय, सचिवालय, विभाग और बहुत हद तक अभिभावक भी हैं. क्यों हैं इसे समझिए- कहीं भवन ठीक है, तो शिक्षकों की कमी है. कहीं शिक्षकों की मौजूदगी है, तो स्कूल बदहाल हैं. कहीं बच्चों की भीड़ ज्यादा, तो शिक्षक राम भरोसे. शासन और अनुशासन का तो हाल पूछिए ही मत.

स्कूल शिक्षा विभाग की वेबसाइट पर दर्ज आंकड़ों के मुताबिक-

राज्य में सरकारी स्कूलों की संख्या- 56 हजार 895 हैं. वहीं छात्रों की संख्या- 51 लाख 67 हजार 357 हैं, जबकि शिक्षकों की संख्या- 1 लाख 78 हजार 731 हैं.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 5500 शालाओं में सिर्फ एक ही शिक्षक हैं, जबकि 610 स्कूल में एक भी शिक्षक नहीं है. ( यह आँकड़ा 10 माह पूर्व का है )

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राज्य में 7 हजार से अधिक निजी स्कूल संचालित हैं.

इन स्थितियों के बीच पालक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने तो मजबूर होंगे ही. पालकों की इसी मजबूरी का फायदा आज मनमाने ढंग से निजी स्कूल संचालक उठा रहे हैं. वे अपने हिसाब से शिक्षण सत्र का कैलेंडर तैयार करते हैं. स्कूलों में प्रवेश का नियम बनाते हैं. स्कूलों में फीस और अन्य सामग्रियों को तय करते हैं. सरकारी नियम-कायदे कानून को किनारे रखते हैं.

निजी स्कूल संचालकों ने आज ऐसी व्यवस्थाएं कायम कर दी है कि, सरकारी सिस्टम तो छोड़िए पूरी सरकार ही उनके आगे विवश नजर आती है. इस विवशता को प्रवेश और शाला आरंभ जैसी शुरुआती व्यवस्थाओं से भली-भाँति समझा जा सकता है.

निजी स्कूलों में प्रवेश की प्रकिया जनवरी-फरवरी से ही प्रारंभ कर दी जाती है. और कहीं-कहीं तो फरवरी माह के समापन के साथ प्रवेश को बंद भी कर दिया जाता है. इस दौरान या इसके बाद मोटी फीस के साथ प्रवेश की आंतरिक प्रकिया चलती रहती है. लेकिन इसी बीच जब चैत्र माह आरंभ के साथ गर्मी की शुरुआत होने लगती, तो निजी स्कूल शुरू होने लगते हैं.

और यहीं से सवाल ये खड़ा होता है कि गर्मी में स्कूल खोलने के पीछे क्या कारण है ?

जनवरी-फरवरी में प्रवेश प्रकिया क्यों ? इसके पीछे जवाब एक ही है फीस, फीस और फीस. याद करिए कुछ दशक पहले तक मार्च में आयोजित होने वाली परीक्षाओं के समापन के साथ स्कूलों में छुट्टियां घोषित हो जाती थी. सरकारी स्कूलों में यही व्यवस्था थी. निजी स्कूलों में पहले इसी सिस्टम का पालन होता था. लेकिन शिक्षा में बाजारवाद के हावी होते ही पूर्व की सारी व्यवस्थाएं चौपट हो गई और शुरू हो गई मनमानी.

यहाँ यह भी जान लेना जरूरी है-

छत्तीसगढ़ में निजी स्कूलों फीस की मनमानी को रोकने और निर्धारण के लिए सरकार ने फीस विनियमन अधिनियम कानून 2020 लागू किया है. इस कानून के तहत निजी स्कूल वर्ष में एक बार फीस में 8 प्रतिशत की वृद्धि कर सकते हैं. इससे अधिक की वृद्धि के लिए उसे आय-व्यय का हिसाब प्रस्तुत कर शिक्षा विभाग से अनुमति लेनी होगी. वहीं अधिनियम के तहत सभी जिले में फीस रेगुलेशन समिति भी गठित की जानी है. लेकिन राजधानी रायपुर में अभी कमेटी का गठन नहीं हो सका है.

निजी स्कूलों ने अपने हिसाब से शिक्षा सत्र तय कर लिया और सरकार चुप-चाप देखती रही. यहाँ तक सरकार भी उस स्थिति में पहुँच गई कि उन्होंने भी अप्रैल माह से सरकारी स्कूल आरंभ करना शुरू कर दिया. इससे यह संदेश स्पष्ट रूप से गया कि सरकार अपनी व्यवस्थाओं को निजी स्कूलों में भले लागू न करवा पाए, लेकिन निजी स्कूलों की व्यवस्था जरूर सरकारी सिस्टम पर प्रभाव डाल सकती है. जैसा कि आज दिख रहा है. लेकिन ऐसा भविष्य में पुनः दिखे यह जनहित में सही नहीं होगा.

सरकार को जनहित में ध्यान रखकर निजी स्कूलों की मनमानी पर कड़ाई से रोक तो लगानी ही चाहिए. इससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि वे सरकारी स्कूलों की दशा को सुधारे, स्कूलों में व्यवस्थाओं को बेहतर से बेहतर करे. आम लोगों में और उससे कहीं ज्यादा सरकारी शिक्षक, कर्मचारी और अधिकारियों में यह विश्वास पैदा करे कि उनके बच्चें सरकारी स्कूल में पढ़ सकें. हालांकि यह पहल सरकार को अपनी ओर से पहले करने की जरूरत है. अर्थात मंत्रियों को, राजनेताओं को सरकारी स्कूूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने की पहल करनी चाहिए. इससे शिक्षा के व्यापार को या व्यापारी शिक्षा को रोकने में काफी हद मदद मिल सकती है.