Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

सब्सक्रिप्शन मॉडल (1)

पिछले दिनों खनिज विकास निगम में अध्यक्ष पद दिलाने के नाम पर एक महिला ने कोंडागांव के भाजपा नेता से 41 लाख रुपए वसूल लिए. भाजपा नेता को लगा था कि कुर्सी की बोली लग रही है. उन्होंने भी ऊंची बोली लगा ली थी. सौदा 3 करोड़ का हुआ था. जब दो किस्तों में 41 लाख रुपए दे दिए गए, तब मालूम चला कि वह ठग लिए गए हैं. खैर, इस घटना के उजाले में आने के बाद कुछ भाजपा नेता टकराए. जब पार्टी विपक्ष में थी, तब संघर्ष करने वाले चुनिंदा नेताओं में ये नेता शामिल थे. मगर सरकार बनने के बाद से हाशिए पर हैं. नेताओं ने यह बताया कि निगम, मंडल और आयोग में कुर्सी की सौदेबाजी का प्रस्ताव उन तक भी आया था. मगर ‘संगठन’ नाम की व्यवस्था में उनका भरोसा था. सो दलालों को बाहर का दरवाजा दिखा दिया. एक नेता ने मायूसी भरी आवाज़ में यह कहा कि अब लगता है कि राजनीति में न तो सेवा रह गई है और न ही सिद्धांत. ये एक तरह का सब्सक्रिप्शन मॉडल बन गया है, जिसमें सर्वाइव करने की एक ही शर्त है. आप ‘पे’ करो और ‘पद’ लो. हालांकि यह फार्मूला हर नियुक्तियों पर लागू नहीं होता, लेकिन कुछ-कुछ नियुक्तियों को देखकर तो यही लगता है कि सब्सक्रिप्शन मॉडल लागू हुआ होगा. ढेरों नेता हैं, जो आज भी ईमानदारी से संगठन की ओर टकटकी निगाह जमाए बैठे हैं. उन्हें उम्मीद है कि एक दिन उनका संघर्ष सम्मानित होगा. मगर मायूसी उनका साथ नहीं छोड़ रही है. एक पूर्व मंत्री इस पर टिप्पणी दर्ज करते हुए कहते हैं कि अब कुर्सियां सिर्फ विचारधारा से नहीं मिल जाती, जेब भारी होना भी एक जरूरी योग्यता है.

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मनचाही कुर्सी (2)

नौकरशाही भी इस दलाली के चंगुल से बच नहीं पाई. सूबे की सरकार जब नई-नई आई थी. दलालों का एक जत्था यह दावा करता घूम रहा था कि सब्सक्रिप्शन मॉडल पर मनचाही कुर्सी दिला दी जाएगी. कुछ अफसर ऐसे भी थे, जिन्हें दलालों से ज्यादा खुद पर भरोसा था. इससे जुड़ा एक चर्चित किस्सा याद आ रहा है. मनचाही कुर्सी की कामना के साथ एक अफसर सूटकेस लिए मंत्री के पास पहुंचे थे. सूटकेस में रखी गई रकम करोड़ों में थी. सरकार नई थी. मंत्री नए थे. मंत्री की कुर्सी नई थी, जिस पर भ्रष्टाचार की एक खरोंच तक नहीं थी. मंत्री के सामने एक तरफ करोड़ों रुपयों से भरा सूटकेस था, दूसरी ओर जिम्मेदारियों के चार पाए पर टिकी नई कुर्सी थी. मंत्री ने कुर्सी को खरोंच लगने से बचाने वाला फैसला लिया. मंत्री के फैसले से अवाक रह गए अफसर उल्टे पांव लौट आए. मगर कुछ दिनों बाद ही उस अफसर की मुराद पूरी हो गई. न जाने कौन सा कठिन पहाड़ चढ़कर उन्होंने अपनी मंजिल पा ली. खैर, एक अफसर ऐसे भी टकराए जिनके पास अलग-अलग दलालों ने संपर्क किया था. सब्सक्रिप्शन मॉडल समझाया. मगर अफसर की जेब में छेद थे. ‘पे’ करो और ‘पद’ लो की स्कीम में फिट नहीं थे. इसलिए चूक गए.

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दर्जी की दुकान

महज यह एक अफवाह नहीं है, बल्कि एक ख़ामोश सच्चाई है कि सरकारी अफसरों की संपत्ति का नक्शा कहीं और नहीं, बल्कि दर्जी की दुकान में टंगा है. यह शहर का नामचीन दर्जी है. इस दर्जी की सिलाई मशीन सिर्फ कपड़े नहीं सिलती. यह अफसरों और नेताओं की अवैध कमाई को निवेश के धागे में पिरोती है. दर्जी की कारीगरी बहुत महीन है. वह जानता है कि भ्रष्टाचार के कपड़े कभी पारदर्शी नहीं होंगे, उन्हें सिलने के लिए सफाई के साथ-साथ समझ भी जरूरी है. इसलिए यह दर्जी सिर्फ कपड़े ही नहीं नापता, शहर का भूगोल भी नापता है. अफसरों-नेताओं के शरीर पर चढ़े कपड़ों पर जमीन में निवेश की कई कहानियां बड़ी ही बारीकी से बुनी गई हैं. अफसरों और चंद नेताओं का दर्जी पर गहरा भरोसा है. उन्हें यह लगता है कि इस दर्जी के हाथों की सिलाई कभी नहीं उधड़ती.

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निजी सौदे

सरकार ने जिन कंधों पर जिम्मेदारी सौंप रखी है, वे कंधे निजी सौदों का भार उठा रहे हैं. एक जिले के एसपी साहब इसका नायाब उदाहरण हैं, जिन्होंने कानून व्यवस्था की जगह पारिवारिक हितों की निगरानी तेज कर दी है. चर्चा है कि एसपी साहब ने अपने प्रभाव के जरिए जिले के एक औद्योगिक समूह में अपने रिश्तेदारों को ऊंचे ओहदे पर मोटी तनख़्वाह में बिठा दिया है. एसपी साहब की जिम्मेदारी कानून व्यवस्था संभालने की है, मगर वह अपनों के रोजगार की व्यवस्था में जुट गए हैं. जब-जब तबादले की सूची बनती है. कोई अदृश्य शक्ति एसपी साहब को बचा ले जाती है. आला अफसर अपनी भौंह तानकर खामोश रह जाते हैं. कभी-कभी लगता है कि आला अफसर भी यह मानते हैं कि कुछ अफसर नियमों के ऊपर होते हैं. बहरहाल, महकमे को यह सोचना चाहिए कि तंत्र जब भीतर से ही सड़ जाए, तो ऊपर की चमक किसी काम की नहीं रह जाती. इस जिले का पुलिसिया तंत्र भीतर से सड़ गया है.

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विभाजन

जेल के भीतर से यह खबर आई कि शराब घोटाले में बंद पूर्व मंत्री यह सोचकर-सोचकर दुखी हो गए हैं कि उनकी गिरफ्तारी पर आर्थिक नाकेबंदी जैसा आंदोलन क्यों नहीं हुआ? वह मंत्री थे. अविभाजित मध्यप्रदेश के जमाने से अब तक विधायक चुने गए थे. फिर पार्टी ने क्यों मोर्चा खड़ा नहीं किया? सुना है कि पूर्व मंत्री गहरे अवसाद में डूब गए हैं. महीनों जेल की सलाखों में कैद होकर बाहर निकले युवा विधायक आर्थिक नाकेबंदी के आंदोलन से दूर रहे. वह एक राज्य के प्रभारी सचिव हैं, उस राज्य में चुनाव होना है. लोग कह रहे हैं कि उनका दौरा कहीं बहाना तो नहीं था? जब उस युवा विधायक को जेल हुई थी, तब विरोध का पैमाना इतना तीव्र क्यों नहीं था? गुटों में बटी पार्टी की धार तेज कैसे होगी, जब विरोध की ऐसी चिंगारी खुद के घर से निकलेगी. पार्टी के हाल पर एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि नेता बंट गए हैं, मुद्दे बंट गए हैं. ऐसे में खुद से लड़ता विपक्ष सत्ता से क्या लड़ेगा? यह विभाजन केवल चेहरों का नहीं है, यह राजनीतिक उद्देश्य के खोने का विभाजन है. जब तक विपक्ष खुद के भीतर स्पष्ट नहीं होगा, तब तक सत्ता के विरुद्ध उसकी आवाज़ खोखली ही लगेगी.