Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

बदलती ब्यूरोक्रेसी!

पिछली सरकार में एक उप सचिव स्तर की महिला अफसर ने ब्यूरोक्रेसी को जमकर उठक-बैठक कराई। ब्यूरोक्रेसी का गुरूर चकनाचूर कर दिया था। ब्यूरोक्रेसी के एक बड़े धड़े ने जी हुजूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी रीढ़ की हड्डी ज्यादा लचीली थी। ब्यूरोक्रेसी की मौज भी थी। गलत काम को गलत कहने वाला कोई नहीं था। बहती गंगा में हर कोई हाथ धोने को आतुर दिख रहा था। खैर, सरकार बदलने के बाद जब ब्यूरोक्रेसी की उखड़ चुकी ट्रैक की मरम्मत की जरूरत महसूस हुई, तब मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव के रूप में सुबोध सिंह की एंट्री हुई थी। अफसरों के कामकाज में पसरी बेतरतीबी पर डंडा चलना शुरू हुआ था। परफॉर्मेंस पर बात होने लगी थी और अब जब सरकार को दो साल का वक्त पूरा होने को है, तब राज्य को नए मुख्य सचिव विकासशील मिल गए हैं। अब सूबे की सरकार ‘विकासशील’ नजरिया रख रही है। मुख्य सचिव बनते ही विकासशील ने अफसरों को दो टूक कह दिया है कि जो अफसर नियम कायदे से चलेगा, उसे कोई दिक़्क़त नहीं होगी। सुना है कि उनके आने के बाद से ही मंत्रालय से लेकर निचले स्तर तक के अफसरों के मुंह से तीन शब्द बार-बार गूंज रहे हैं. Yes Sir, Noted, Action Taken! बहरहाल, जब कोई योग्य अफसर किसी मजबूत भूमिका में लाया जाता है, तब राज्य बेहतरी की उम्मीद भरी नजरों से उसकी ओर देखता है। यह कौन नहीं जानता कि सूबे की भ्रष्ट नौकरशाही ने राज्य को सिर्फ ठगा नहीं है, बल्कि उसके भरोसे को रौंदा भी है। अब काबिल अफसरों की कड़ियां जुड़ रही है, जाहिर है हर जुड़ती कड़ियां उम्मीद के धागों से बंधी हैं। किसी भी सरकार में ब्यूरोक्रेसी ही असली ताकत होती है। सरकार योजना तैयार करती है। उसे जमीन पर उतारने का काम ब्यूरोक्रेसी का होता है। ऐसे में ब्यूरोक्रेसी को इस बात का इल्म होना चाहिए कि व्यक्तिगत हित नहीं, बल्कि जनहित उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता बने। जो काम एक ब्यूरोक्रेट कर सकता है, वह कोई दूसरा नहीं कर सकता। बहरहाल, नए मुख्य सचिव विकासशील आ गए हैं। उनका नाम ही किसी सरकारी योजना सा लगता है और सरकारी योजनाएं बेहतरी के वादे के साथ लाई जाती हैं। 

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सीएम ने तरेरी आंखें

‘पावर सेंटर’ के इस स्तंभ में हमने यह बताया था कि सरकार ने बड़े जतन से करोड़ों रुपयों की होने वाली सरकारी खरीदी के लिए GEM पोर्टल (Government e-Marketplace) यानी ईमानदारी की ई-दुकान शुरू की थी, मगर अफसरों ने इसे Government Exclusive Monopoly बना डाला। सरकार ने सोचा था कि खरीदी में गड़बड़ी पर रोक लगेगी और ट्रांसपेरेंसी लाई जाएगी, मगर अफसरों ने पूरा ”किया-धरा” ही ट्रांसपेरेंट कर दिया। नए मुख्य सचिव के आने के बाद हुई पहली बड़ी बैठक में मुख्यमंत्री ने GEM पोर्टल पर अपना इरादा साफ कर दिया है। उन्होंने अपनी आंखें तरेर दी है और दो टूक कह दिया है कि गड़बड़ी सामने आने पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। पता चला है कि यह सुनते ही कई अफसरों ने GEM पोर्टल पर लागिन करना बंद कर दिया है। इस डर से कि कहीं सरकार उन्हें लाग आउट न कर दे। सरकार में थोड़ी पारदर्शिता भी ‘बहुत’ होती है। अच्छी बात है कि सरकार की नजर GEM पोर्टल की गड़बड़ियों पर गई है। एक ब्यूरोक्रेट ने कहा कि अगर GEM पोर्टल से अब तक हुई सरकारी खरीदी की ठीक-ठाक जांच करा ली जाए, तो यह एक बड़े घोटाले के रूप में बाहर आएगा। सूबे के नए प्रशासनिक मुखिया आ गए हैं। सरकार की साख का इकबाल बुलंद रखने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है, जाहिर है अब तक का सब ”किया -धरा” उनकी आंखों के सामने होगा ही। ऐसे में कितना अच्छा होगा अगर वह GEM पोर्टल की गड़बड़ियों पर एक जांच बिठा दें!

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कांफ्रेंस

12 से 14 अक्टूबर। तारीख तय है। जगह तय है। एजेंडा भी तय है। कलेक्टर-एसपी कांफ्रेंस में सरकार कामकाज की बारीक पड़ताल करेगी। कुछ अफसरों के काम को सराहना मिलेगी, तो कुछ के हिस्से लानतें भी आएंगी। इस बार कलेक्टर-एसपी के साथ डीएफओ भी कांफ्रेंस का हिस्सा होंगे। जंगल विभाग अक्सर इस किस्म की समीक्षा में छूट जाता था। पिछली दफे जब इस तरह का कांफ्रेंस हुआ था, तब सीएम ने कहा था कि कलेक्टर-एसपी सरकार के आंख, कान और हाथ हैं। कुछ अफसरों ने आंख का इस्तेमाल अपना लाभ ढूंढने में किया, पीड़ितों की गुहार सुन-सुन कर कान पक ना जाए, इसलिए कानों में रूई डाल लिया और हाथों से बटोरने में उन्होंने कोई गुरेज नहीं रहा। रेत, शराब, जुआ-सट्टा जैसे किस्म-किस्म के काम में भागीदारी ले ली। ऐसे ही कुछ अफसर हैं, जो सरकार की नजर में चढ़ गए हैं। उनकी हरकतें सरकार को परेशान कर रही है। कलेक्टर-एसपी को भी यह पता है, लेकिन उनकी ढिठाई ऐसी है कि उन्हें इससे फर्क तक नहीं पड़ रहा। वह जानते हैं कि उनकी कुर्सी क़ाबिलियत से नहीं, राजनीतिक पैरवी से मिली है। मगर सरकार अब सतर्क हो गई है। सरकार यह जानती है कि जिलों में कलेक्टर-एसपी ही उनका चेहरा हैं। चेहरा बेदाग रहे, इसलिए दागियों को बाहर का रास्ता दिखाना जरूरी है। मुमकिन है कि कलेक्टर-एसपी-डीएफओ कांफ्रेंस खत्म होने के बाद सरकार कईयों के पर कतर दे। अबकी बार कलेक्टर-एसपी कांफ्रेंस आसान नहीं होगा। सरकार डंडा लेकर बैठने वाली है। 

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वीआईपी नेता

कलेक्टर-एसपी कांफ्रेंस की तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं। एजेंडा है – सुशासन, जवाबदेही, पारदर्शिता, लेकिन उससे पहले पर्दे के पीछे कुछ और भी चल रहा है। सरकार को अब समझ आ गया है कि किसी जिले में अगर उस जिले के बड़े नेता के मन के मुताबिक अफसर न बैठे, तो काम करने की जगह उस नेता को मनाने में ही वक्त जाया होगा। इसलिए कुछ खास वीआईपी नेताओं से पूछा गया है कि बताइए, किस अफसर से आपका तालमेल ठीक बैठेगा? खबर मिली है कि एक वीआईपी जिले में मामला थोड़ा उलझ गया है। वीआईपी जिले के नेता जी ने जो नाम सुझाए थे, उन नामों पर सरकार अपनी नाक भौं सिकोड़ रही है। वीआईपी जिले के नेताजी के नाम सुझाए जाने के बाद उनसे कहा गया है कि माफ कीजिए, ये नाम बहुत संवेदनशील है। आप कुछ और नाम दे दीजिए। मतलब अब सरकार भी थोड़ा ‘संभल’ गई है, जिन अफसरों के ‘ट्रैक रिकॉर्ड’ पर लाल निशान लग चुके हैं, उन्हें अब वीआईपी सर्टिफिकेट से भी क्लीन चिट नहीं मिल रही। सरकार सुशासन लाना चाहती है और इधर वीआईपी नेता हैं जिन्हें समझदार अफसर चाहिए, जो काम की बात बड़ी आसानी से समझ जाए। एक पुरानी कहावत है, हाथी के दिखने के दांत अलग और खाने के अलग। सरकार हाथी दांत की तरह होती है। दिखाने के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता के किस्से और भीतर वह हर फैसले, तो पावर बैलेंस के लिए जरूरी लगे। खैर, इन सबके बावजूद इस बार संकेत तो यही है कि सरकार अब आड़े तिरछे अफसरों से तौबा करना चाहती है। यह कहने में जितना आसान है, जमीन पर उतरने में उतना ही मुश्किल। मगर इस बार सरकार मुश्किलों के उस पार जाना चाहती दिख रही है। 

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अपने ही बाड़े में बैल बिदक गया…

सत्तापक्ष दो विपक्ष से जूझ रहा है। सामने दिखने वाले विपक्ष से लड़ना आसान है, लेकिन जब खुद के लोग विपक्ष बन बैठे, तब सरकार की सारी युक्ति धरी की धरी रह जाती है। अब भाजपा के वरिष्ठतम नेता और पूर्व गृहमंत्री ननकीराम कंवर का मामला ही देख लें। कंवर साहब ने ठान लिया कि कलेक्टर को हटाना है। क्यों हटाना हैं, यह मत पूछिएगा। पुराने नेताओं की भावनाएं तर्क से ऊपर होती हैं। उन्होंने जैसे कहा कि कलेक्टर को हटाओ नहीं तो धरना दूंगा। यह सुनते ही सरकार में तेज घर्षण हुआ, लेकिन इस घर्षण से चिंगारी नहीं निकली। दिए गए मियाद तक कलेक्टर नहीं हटे। कंवर साहब कोरबा से रायपुर कूच कर बैठे। प्रशासन हरकत में आया और उन्हें नजरबंद कर दिया गया। अब कंवर साहब कोई मामूली आदमी थोड़ी हैं, जो नजरबंद कर दिए जाएं और किसी को पता भी ना चले। खूब हल्ला मचा। कंवर साहब की नाराजगी सार्वजनिक थी, मगर मजाल है कि संगठन में कोई पहले से जाकर उन्हें समझा-बुझा लेता। संगठन ने सोचा पहले बिदकने दीजिए फिर संभालेंगे। खैर, देर शाम प्रदेश अध्यक्ष किरण देव को भेजा गया। जैसे-तैसे उन्होंने कंवर साहब को मनाया। उन्हें यह भरोसा दिलाया गया कि हफ्ते भर के भीतर ही उनकी मांग मान ली जाएगी। वह लौट गए। धरना टल गया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। असली सवाल इसके बाद खड़ा हुआ। सवाल यह कि आख़िर सत्ताधारी दल अपने ही नेताओं के गुस्से को क्यों नहीं समझ रहा?ननकीराम कंवर तो उस गुस्से का प्रतीक भर हैं। सत्ता के गलियारों में यह बात समझ लेनी चाहिए कि हर नेता की नाराजगी ‘घर का मामला’ कहकर नहीं निपटाया जा सकता। गुस्से से भरे नेताओं की भीड़ बड़ी है। इसे समय रहते ना संभाला गया, तो बवाल कटना तय है। अबने ही बाड़े में बैल बिदक गया, तो संभाले नहीं संभलेगा। 

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निराला विभाग

जंगल विभाग बड़ा निराला विभाग है। यहां तक हर किसी की नजर पहुंच नहीं पाती। यहां क्या हुआ और क्यों हुआ? आमतौर पर बहुत कम मौकों पर इसकी चर्चा होती है। जंगल विभाग के भीतर की राजनीति पर किसी का ध्यान नहीं। हुआ यूं कि हाल ही में पीसीसीएफ अरुण पांडेय को चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन बनाया गया। अरण्य भवन में यह नंबर टू का पद माना जाता है। अरुण पांडेय चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन बने तो बने, विकास एवं योजना का अतिरिक्त प्रभार भी नहीं छोड़ा। खैर, यह प्रभार तो उन्हें सरकार ने दिया है। भला अपनी मर्जी से छोड़ कैसे सकते हैं? लेकिन दिलचस्प पहलू यह है कि उनकी बिरादरी यह कह रही है कि राज्य के इतिहास में यह पहला मौका है, जब ऐसी स्थिति बनती दिखी है कि चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन के साथ-साथ किसी अफसर के हिस्से विकास और योजना का दायित्व भी आया हो। यानी चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन का पूरा बजट तो है ही। टैरिटोरियल का भी पूरा बजट अरुण पांडेय के हाथों है। विभाग में बजट संबंधी फैसला लेने का पूरा अधिकार उनके हिस्से है। विभाग की योजनाओं से जुड़ा बजट उनके टेबल से ही होकर गुजरेगा। अब विभाग के अफसर उनकी ओर टकटकी निगाह लगाए बैठे रहते हैं। ये कहते हुए कि क्या ही किया जा सकता है? सारी चीजें भला एक ही आदमी कैसे डिसाइड कर सकता है?