रायपुर. धान खऱीदी को लेकर प्रशासनिक खर्च के मामले में छत्तीसगढ़ सरकार को सालाना करीब 268 करोड़ तक का सालाना नुकसान हो रहा है. दरअसल, राज्य सरकार का सहकारिता विभाग और खाद्य विभाग ने न तो नीति में इसे लेकर कोई प्रावधान किया है न ही वो इसका क्लेम कर पा रहे हैं.
मौजूदा व्यवस्था के तहत सहकारी समितियों द्वारा जो खरीदी होती है, उसमें सहकारी समितियों के स्टाफ का सारा खर्च समितियों खुद वहन करती हैं. जो दावा केंद्र सरकार को भेजा जाता है, उसमें यहां प्रशासनिक गतिविधियों के खर्च का न कोई ऑडिट कराया जाता है. न खर्चे का विवरण भेजा जाता है. जबकि केंद्र सरकार ने इसके लिए ढाई फीसदी का प्रावधान किया है.
दरअसल, केंद्र सरकार धान खरीदी में लगे अमले की तनख्वाह एवं अन्य खर्चों के हिसाब से प्रशासनिक व्यय देती है. जिस धान के चावल एफसीआई खरीदती है, उसके समर्थन मूल्य ढाई प्रतिशत तक और जो धान एफसीआई नहीं खरीदती है, उसके समर्थन मूल्य का एक प्रतिशत तक प्रशासनिक व्यय केंद्र द्वारा दिया जाता है. पिछले साल रायपुर में हुए क्षेत्रीय मध्य परिषद की बैठक में राज्यों ने इसे केंद्र से साढ़े तीन फीसदी करने की मांग की थी. जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है.
लेकिन छत्तीसगढ़ ने पिछले 15 साल- जब से राज्य में बड़े पैमाने पर धान की खरीदी शुरु की है, तब से कभी डेढ़ फीसदी से ज़्यादा प्रशासनिक व्यय का दावा नहीं कर पाई है. साल 2018-19 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मद के लिए करीब 80 करोड़ रुपये सरेंडर किए थे.
बताया जाता है कि विभाग के अधिकारियों ने सोसाइटियों के खर्चे के बारे में न न आज तक पूछा, न कभी ख्याल आया. जबकि प्रशासनिक व्यय पर हर साल खर्च की राशि बढ़ती जा रही है.
इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ता राकेश चौबे का कहना है कि लगता है कि विभाग में डटे अधिकारियों को कानून और नीति के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है. चूंकि रमन सिंह की सरकार तक इस विभाग में खूब लूट हुई है. इसलिए अधिकारियों की लूट और पैसे बनाने वाली मानसिकता नहीं बदल रही है. अगर विभाग में बदलाव लाना है तो सरकार को दूसरे राज्यों से कुछ उच्च अधिकारियों को बुलाना चाहिए.