लखनऊ. बहुजनों के नाम पर 14 अप्रैल 1984 को बनी बसपा के लिए बीते 37 सालों में नेताओं का आना-जाना बड़ी बात कभी नहीं थी. लेकिन इस बार हालात जरा जुदा हैं. बड़े चेहरों से पार्टी अब तकरीबन खाली है. बचे खुचे नेता, अखिलेश से रिश्ते बना रहे हैं. हालिया पंचायत चुनाव बयार के सपा की तरफ होने का इशारा कर ही चुकी है. ऐसे में माया को डर है कि 2022 कहीं पार्टी के अस्तित्व के लिए सवाल न बन जाए.

हिंदुस्तान के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को हासिल करने के लिए सियासी दलों ने रणभेरी बजा दी है. भाजपा ने कांग्रेसी दिग्गज जितिन प्रसाद को पार्टी में शामिल कर इशारा दे दिया कि इस बार भी वह प्रतीकों को अपने साथ जोड़ेगी और इस बहाने जाति के खेमों में बंटे मतदाताओं को भी. पुराने छोटे दलों को साथ लेने की रणनीति भी बीजेपी रणनीतिकारों ने बना रखी है. कोरोना, बेरोजगारी सरीखे मसलों से जुड़ी नाराजगी को भी योगी और टीम कम करने में जी-जान से जुटी ही है. अयोध्या को भी, विवाद के बावजूद, भाजपा साथ लेकर चलेगी यह भी पहले से ही तय हैं

लेकिन, संकेत मिल रहे हैं कि 2022 मायावती के लिए अस्तित्व की लड़ाई हो सकती है. हाल में ही पंचायत चुनावों के नतीजों ने दिखा दिया कि जो योगी से नाराज हैं, वो फिलहाल अखिलेश के साथ हैं. यह संकेत मायावती को निश्चित तौर पर चिंतित कर रहे होंगे, उनके सपा पर हालिया तीखे ट्विट से ये लगता भी है. दरअसल, मायावती फिलहाल रण में अकेली पड़ गई दिखती हैं. कभी सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, धर्मसिंह सैनी सरीखे सितारों से सजा माया दरबार अब सूना हो चुका है. कहा जाने लगा है कि माया अगर 2017 की तरह 19 सीटें भी जीत लें तो बहुत है. वहीं सपा मुखिया अखिलेश ने बसपा के बागियों से मुलाकात कर मतदाताओं को बसपा के तकरीबन खत्म हो जाने का इशारा कर ही दिया है.

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इसके पीछे दरअसल, माया की तानाशाही और सियासत की वह शैली ही है जो राजनीति विश्लेषकों को भी समझ नहीं आती. मसलन, हालिया वक्त में उनका भाजपा के प्रति नर्म रवैय्या और बीच-बीच में दल निकाले के उनके आदेश किसी को समझ नहीं आए. हालात ये हो चुके हैं कि जाति छत्रपों की विदाई के साथ उनके समर्थक भी बसपा से जा चुके हैं और भाजपा के साथ माया की गलबहियां भी मुस्लिम वोट बैंक को नाराज कर चुकी है जिसकी तरफ सपा गौर से निहार रही है. माया के बचे खुचे दलित वोट बैंक को रावण के साथ भाजपा भी लुभाने में जुटी है. लब्बोलुआब यह कि बसपा को इस बार अपने पत्ते सोच कर, बहुत सोच कर खोलने होंगे.

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