जनवरी 2016 में जब ऋतु सैन सरगुजा के कलेक्टर पद ने पदभार छोड़ा तो वहां के लोगों के मन में यही सवाल था कि उनके द्वारा महिलाओं के जिन समूहों को खड़ा करके शहर के कचरे को इकट्ठा करने, कैंटीन और ऑटो के संचालन का जो काम दिया गया है, उसका क्या होगा ? लोगों को आशंका थी कि कलेक्टर के जाते ही महिलाएं हट जाएंगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. आज भी सरगुजा में महिला स्वयं सहायता समूह अपने काम को बखूबी कर रही हैं. यही सवाल उन गौठानों को लेकर ढाई साल बाद उठना चाहिए. जबकि बहुत सारे गौठान स्वालंबी हो चुके हैं. तो वहां से प्रशासनिक हस्तक्षेप हट गया तो उनका क्या होगा. ये गौठान खुद-ब-खुद चल जाएंगी.

विशेष आलेख : नरवा गरुवा घुरवा अऊ बारी के ढाई साल, कई उपलब्धियों के साथ कुछ सवाल, जो अब भी कायम है भाग 1 

इसमें कोई शक नहीं कि अपने बूते गौठानों का संचालन होता रहा तो ये सफलता की नई कहानी लिखेंगी. लेकिन अगर नाकाम हुईं तो सरकार के खाते में एक नाकामी दर्ज हो जाएगी.

इसलिए अगर सरकार चाहती है तो उसे गौठानों के संचालन में लगातार फीडबैक लेना होगा और उसे चलाने की व्यवस्था में निरंतर सुधार करना होगा.

योजना के निर्माता मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बताते हैं कि गौठान सिर्फ एक संरचना नहीं है बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का ये मॉडल है.

विकास का कोई भी मॉडल तभी कामयाब माना जाता है जब वो टिकाऊ हो. टिकाऊ तब होगा जब जनता इससे उसी तरह जुड़े जिस तरह से योजना में निर्धारित हो.

ग्राम सुराजी योजना के तहत जब गौठानें शुरु हुईं तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने गांव-गांव जाकर बताया कि इस योजना को गांव के लोगों को चलाना है. सरकार इसे नहीं चला सकती. उन्होंने हर जगह इस बात को दोहराई. लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के इस संदेश को कई जगह प्रशासनिक अधिकारी ठीक से आज भी समझ नहीं पाए हैं.

रायपुर के बीरगांव में गोबर खरीदी करने वाले समूह की महिलाओं द्वारा वेतन की मांग करके हड़ताल करना इसका उदाहरण है. यहां महिलाओं को ये समझाया ही नहीं गया कि यहां काम के बदले वेतन नहीं लाभ में हिस्सा मिलना है. हालांकि ये एक मामला भर है. फिर भी इस खामी को दुरुस्त करना चाहिए.

ये खामी तभी दूर होगी जब इस योजना से समुदाय जुड़ेगी. उसे आत्मसात करेगी. इस योजना के क्रियान्वयन में समुदाय को जोड़ने के लिए प्रयास हो नहीं पाए.  गौठान के निर्माण की व्यवस्था और गौठान में काम करने वाली महिला समूहों को तय करने में प्रशासनिक और गैर सरकारी संगठन प्रयास शामिल थे. लेकिन समुदाय को जोड़ने के लिए किसी किस्म का प्रयास नहीं हुआ. ना मैदान में किसी किस्म की ट्रेनिंग हुई ना ही गांव वालों को समझाया गया कि योजना का लाभ उन्हें किस तरह मिलेगा.

योजना की शुरुआती ट्रेनिंग नोडल अधिकारियों को दी गई. फिर कुछ जनप्रतिनिधियों और पंचायत स्तर के अधिकारियों को दी गई. जिनके जिम्मे योजना को निचले स्तर तक मैदान में पहुंचाना था. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

योजना के लिए काम करने वाले लोगों के मुताबिक गौठान समिति के निर्माण में राजनीति घुस गई. इस समिति के नाम तय करने में प्रभारी मंत्री दखल देने लगे. जबकि इसमें सबसे बड़ी भूमिका ग्राम सभाओं की तय की गई थी. समिति को तय करने में हुई राजनीति और कोरोना के चलते मामला अटक गया.

सरकार इस योजना को ज़मीन पर सरकारी व्यवस्था के ज़रिए लेकर गई. सरकारी तंत्र जनता को योजना से ज़्यादातर जोड़ नहीं पाई. ये काम मुश्किल और सतत परिश्रम का है. इसके लिए वहां की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थिति के हिसाब से टूल बनाने पड़ेगे. अधिकारियों के पास अपनी व्यस्तताएं होती है और उन पर शासन के कई कामों का दायित्व होता है. लिहाज़ा वे ज़्यादातर जगहों पर इस काम को बखूबी अंजाम दे पा रही होंगी, इसमें शक करने की पर्याप्त गुंजाइश है.

गौठान को गांव वालों से जोड़ने और बेहतर नतीजों के लिए उस इलाके में काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं को जोड़ा जा सकता है. जिनके पास पहले से उन क्षेत्रों के भौगोलिक,सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक अध्ययन और अनुभव होते हैं. इनके ज़रिए गैर सरकारी संस्थाएं वहां की स्थानीय आबादी तक योजना को पहुंचाने का काम कर सकती हैं. गौठान से समुदाय को जोड़ने का काम गैर सरकारी संगठनों को देने पर सरकार को विचार करना चाहिए इसका एक फायदा होगा कि सरकारी सिस्टम और कांग्रेस के संगठन के साथ गैर सरकारी सिस्टम भी योजना को सुचारू रुप से लागू कराने में शामिल हो जाएगा.

हालांकि इस सवाल के बाद भी गौठानों के ज़रिए सरकार के खाते में बड़ी उपलब्धि जुड़ गई – इस साल वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन व्यापक पैमाने पर हुआ और इसका इस्तेमाल कृषि में हुआ. सभी कृषि वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि तमाम शिकायतों और परेशानियों के बाद भी खेती को रसायन मुक्त करना होगा. सबसे अच्छी बात है कि इस साल सरकार ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए. सिर्फ बस्तर के खेतों में इस साल तीस जून तक करीब साढ़े तीन हज़ार टन वर्मी कंपोस्ट पहुंच चुका था. ये काम भूपेश बघेल की सरकार ने तमाम आलोचनाओं और शिकायतों के बाद भी किया है और इस पर सरकार आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध दिखती है.

क्यूबा ने यही काम तब किया था जब अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगाए. उसके यहां रासायनिक खाद और कीटनाशक ज़हर आना बंद हो गया. उसने यहां दूसरे देशों से रासायनिक खाद के आयात करने की कोशिश नहीं की. बल्कि रासायनिक खेती को ही छोड़कर जैविक खेती को अपना लिया. शुरुआती दिक्कतों के बाद क्यूबा ने कृषि उत्पाद कई गुणा बढ़ा लिया है. क्यूबा के इस दृष्टिकोण ने सिर्फ छह साल के भीतर प्रभावशाली परिणाम देने शुरू कर दिए.  1996-97 के सीज़न में, क्यूबा ने 13 बुनियादी खाद्य फसलों में से दस फसलों में काफी ऊंचे स्तर का उत्पादन दर्ज किया था. 2007 तक सब्जियों का उत्पादन 1988 की तुलना में 145 प्रतिशत रहा, जबकि कृषि रसायनों का इस्तेमाल 1988 की तुलना में 72 प्रतिशत कम हो गया.  सेम/बीन्स का उत्पादन 2007 में 1988 की तुलना में 351 प्रतिशत हुआ. 2007 में कंद-मूल का उत्पादन 1988 के मुक़ाबले 145 प्रतिशत तक बढ़ गया था.

इसी तर्ज पर जब केंद्र सरकार ने राज्य को रासायनिक खाद पर्याप्त मात्रा में नहीं दी तो छत्तीसगढ़ सरकार ने उस कमी को गौठानों से उत्पादित वर्मी कंपोस्ट से पूरा करने की कोशिश की है. इस साल रासायनिक खादों को लेकर जो किल्लत हुई, वर्मी कंपोस्ट किल्लत की रफ्तार को कम करने में कामयाब रहा. हालांकि इसे लेकर कई शिकायतें आईं. उसके बाद भी गोबर खरीदने और वर्मी कंपोस्ट बनाने की व्यवस्था सफल है. जब इसमें काम करने वाले समूहों को लाभ मिलेगा तो समूह और प्रभावी तरीके से इसका उत्पादन करेंगीं. इसके परिणाम आने में वक्त लगेगा. लेकिन ये दिशा समय की मांग के अनुरुप है. ज़ाहिर है, जब उत्पाद जैविक होंगे तो इसके दाम भी बाकी जगहों की तुलना में ज़्यादा होंगे

सरकार ने एक और अच्छी कोशिश की है कि गौठानों को ग्रामीण पशु चिकित्सालय की तरह विकसित किया जाए. लेकिन ये मंशा अभी भी बेहतर परिणाम के इंतज़ार में है. सरकार ने हर गौठान के लिए एक नोडल पशु चिकित्सक नियुक्त किया. लेकिन अगर इन चिकित्सकों की तय सेवाएं हर जगह एक समान गौठानों को मिलती तो यकीनन गौठान और बेहतर प्रदर्शन करते.

गौठानों को ग्रामीण पशु चिकित्सालय की तर्ज पर विकसित करने का एक फायदा ये होगा कि मवेशियों में टीकाकरण और नस्ल सुधार का काम अपने लक्ष्य को बेहतर तरीके से कम खर्चे में हासिल कर पाएगा. लेकिन इस काम को केवल पशु चिकित्सकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. गौठान चलाने वाले समूह को सामान्य प्रेक्टिशनर की तरह विकसित करना होगा. उन्हें लगातार ट्रेनिंग और प्रैक्टिस के पर्याप्त मौके देते रहने से वे पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रुप में काम करने लगेंगे और गौठान लोगों की ज़रुरत से जुड़ जाएगा. इससे पशु चिकित्सकों पर निर्भरता कम होगी.

विदेशी गाय की कौन सी नस्ल से मिलता है ए2 दूध

जो गौठान स्वावलंबी बनने की ओर बढ़ रहे हैं वहां एनडीडीबी जैसी सरकारी संस्था और एबीएस व डब्ल्यू डब्ल्यू एस जैसी कंपनियों को जोड़कर सेलेक्टिव ब्रीडिंग करके नस्ल सुधार का काम तेज़ी से करना चाहिए. इस मामले में पंजाब में डेयरी फार्मर्स का समूह पीडीएफए के अनुभव से सीखना चाहिए. जिसने 2000 के पहले दशक में इंपोर्टेंट सीमेन और साइलेज निर्माण करके प्रति पशु दुग्ध उत्पादन में क्रांति ला दी. पीडीएफ ने आयातित सीमेन से दुग्ध उत्पादन के सारे भारतीय मिथक तोड़ दिए और कीर्तिमान स्थापित किए. आज देश में सबसे ज़्यादा दुधारु पशु पंजाब तैयार करता है. इसका सबसे बड़ा ग्राहक राज्य गुजरात है. पंजाब की देखादेखी हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात नस्ल सुधार में तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. छत्तीसगढ़ को भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए.

सरकार की एक और उपलब्धि के बिना इसकी चर्चा अधूरी रहेगी. सरकार ने गौठानों को ग्रामीण औद्योगिक गतिविधियों का केंद्र बनाया. जिसका फायदा हुआ कि समूह अन्य कामों के ज़रिए अपनी कामयाबी की इबादत लिख रहे हैं.