भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक रक्षाबंधन (Raksha Bandhan) का पावन पर्व इस वर्ष 22 अगस्त (रविवार) को मनाया जाएगा. इस बार रक्षाबंधन के दिन भद्रा का कोई प्रभाव नहीं रहेगा. सावन पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म और द्विजातियों द्वारा विशेष अनुष्ठान, पूजन भी किया जाएगा.

इस वर्ष Raksha Bandhan के  इस दिन चन्द्रमा का संचरण मकर राशि से कुंभ राशि में सुबह 8:35 बजे होगा. इसी के साथ पंचक प्रारंभ हो जाएगा. ज्योतिष के मुताबिक पूर्णिमा तिथि शनिवार, 21 अगस्त को शाम 6:10 बजे से शुरू हो जाएगी, जो 22 अगस्त को शाम 5:01 बजे तक रहेगी.

श्रावणी उपाकर्म और जनेऊ पूजन होगा: ज्योतिषाचार्य अवध नारायण द्विवेदी के अनुसार सावन पूर्णिमा के दिन श्रावणी उपाकर्म, जनेऊ पूजन सुबह 8:30 बजे तक विशेष शुभ रहेगा. श्रावणी उपकर्म द्विजातियों का विशेष पर्व होता है. इस दिन गंगा स्नान कर पंचगव्य पानकर विधिवत संकल्प लिया जाता है.

Raksha Bandhan का शुभ मुहूर्त

  • सुबह 7 बजे से सुबह 8:35 बजे तक.
  • लाभ चौघड़िया सुबह 7 बजे से सुबह 10:20 बजे तक.
  • शुभ चौघड़िया : दोपहर 1:40 से 3:10 बजे तक.

कौन है भद्रा

भद्रा माता छाया से उत्पन्न भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनिदेव की सगी बहन हैं इनका वर्ण काला रूप भयंकर लंबेकेश और दांत विकराल हैं. जब इनका जन्म हुआ तो ये संसार को अपना ग्रास बनाने के लिए दौड़ी और यज्ञ में विघ्न बाधाएं पहुंचाने लगीं, उत्सव तथा मंगल कार्यों में बाधा डालते हुए जगत को पीड़ा पहुंचाने लगीं. इनके ऐसे आचरण को देखकर सूर्य की पुत्री होते हुए भी कोई भी देव इनसे विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुआ. एक बार सूर्यदेव ने स्वयंवर का भी आयोजन किया, जिसके मंडप, आसन आदि को भद्रा ने उखाड़ दिया और फेंक दिया. सूर्यदेव ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि मेरी पुत्री को समझाओ फिर ब्रह्मा जी ने समझाया और कहा कि हे भद्रे ! तुम सभी बव, बालव आदि सभी करणों के अंत में सातवें करण के रूप में स्थित रहो जिसे विष्टि नाम से जाना जाएगा.

जो व्यक्ति तुम्हारे समय में यात्रा, गृह प्रवेश, कार्य व्यापार अथवा किसी भी तरह का मंगल कार्य करें तुम उसमें विघ्न डालो जो तुम्हारा अनादर करें उसका कार्य ध्वस्त कर दो. भद्रा ने ब्रह्मा जी का आदेश मान लिया और भद्राकाल के रूप में आज भी विद्यमान हैं. इनकी उपेक्षा करना विपरीत परिणाम कारक होता है.

कल्पभेद से भद्रा की उत्पत्ति के संबंध में पौराणिक कथा आती है कि दैत्यों से पराजित देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शंकर ने अपने शरीर से भद्रा नामक देवी को आबिर्भुत भूत किया. इनके कई नामों में धान्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, हंसी, नंदिनी, त्रिशिरा, सुमुखी, करालिका, वैकृति, रौद्रमुखी चतुर्मुखी आदि हैं.

मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार शुक्ल पक्ष में अष्टमी तथा पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्ध, चतुर्थी एवं एकादशी तिथि के उत्तरार्ध में भद्रा का वास माना गया है, जबकि कृष्ण पक्ष में तृतीया एवं दशमी तिथि के उत्तरार्ध और सप्तमी एवं चतुर्दशी तिथि के पूर्वार्ध में भद्रा की उपस्थिति रहती है.

भद्रा का वास

भद्रा हर समय तीनों लोकों में विचरण करती रहती हैं. जब इन का वास स्वर्ग लोक और पाताल लोक में रहता है तो यह वहां के लोगों के लिए कष्ट कारक प्रभाव देती हैं किंतु पृथ्वी वासियों के लिए तब शुभफलदाई रहती हैं. वहीं जब इनका वास पृथ्वी पर रहता है तो पृथ्वी वासियों के लिए अशुभ रहता है. जब चंद्रमा मेष, वृषभ, मिथुन और वृश्चिक राशि पर गोचर कर रहे होते हैं तो भद्रा का वास स्वर्ग लोक में होता है. कुंभ, मीन, कर्क और सिंह राशि में विचरण कर रहे हो तो भद्रा का वास पृथ्वी लोक पर होता है. कन्या, तुला, धनु और मकर राशियों में चंद्रमा का गोचर होता है तो इनका का वास पाताल लोक में होता है.

भद्रा का वास और उसका फल

मुख में भद्रा का वास रहे तो कार्य नाश, कंठ में रहे तो धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश करती हैं, नाभि में कलह कराती हैं और कमर में मान हानि कराती हैं. पुच्छ भाग में भद्रा का वास हो तो विजय और कार्य सिद्धि दिलाती हैं. इस प्रकार 12 घंटे में केवल 1 घंटा 12 मिनट का अंतिम समय ही भद्रा वास में कार्य करना शुभ रहता है.

भद्रा के प्रकार 

मुहूर्तग्रंथों में कृष्ण पक्ष की भद्रा को सर्पिणी और शुक्ल पक्ष की भद्रा को वृश्चिकी कहा गया है. अतः सर्पिणी भद्रा के मुख एवं वृश्चिकी भद्रा के पुच्छ भाग को मंगल कार्यों के लिए निषेध माना गया है. अतः इसका चिंतन करके यदि हम अपने मांगलिक कार्यों, उद्योग-व्यापार यात्रा आदि करें तो सफलता की संभावना सर्वाधिक रहेगी.