आत्मा का प्रतिनिधित्व गीता में किया गया है. आत्मा को किसी शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती. जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है. वेद, स्मृति और पुराणों के अनुसार आत्मा की गति और उसके किसी लोक में पहुंचने का वर्णन अलग-अलग मिलता है. हम इस संक्षिप्त में वैदिक मत जान लें जो कि गति के संदर्भ में है.

आत्माओं में पाई जाती है तीन प्रकार की गति

वैदिक ग्रंथ के अनुसार, आत्मा पांच तरह के कोश में रहती है. अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय. इन्हीं कोशों में रहकर आत्मा जब शरीर छोड़ती है, तो मुख्यतौर पर उसकी तीन तरह की गतियां होती हैं- 1.उर्ध्व गति, 2.स्थिर गति और 3.अधोगति. इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है.

  1. उर्ध्व गति

इस गति के अंतर्गत व्यक्ति उपर के लोक की यात्रा करता है. ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जिसने जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में खुद को साक्षी भाव में रखा है या निरंतर भगवान की भक्ति की है. ऐसे व्यक्ति पितृ या देव योनी के सुख भोगकर पुन: धरती पर जन्म लेता है.

2. स्थिर गति

इस गति का अर्थ है व्यक्ति मरने के बाद न ऊपर के लोक गया और न नीचे के लोक में. अर्थात उसे यहीं तुरंत ही जन्म लेना होगा. यह जन्म उसका मनुष्य योनी का ही होगा.

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3. अधोगति

जिस व्यक्ति ने किसी भी प्रकार का पाप करके या नशा करके अपनी चेतना या होश के स्तर को नीचे गिरा लिया है वह नीचे के लोकों की यात्रा करता है. रेंगने वाले, कीड़े, मकोड़े या गहरे जल में रहने वाले जीव-जंतु अधोगति का ही परिणाम है.

क्या है पुराणों के अनुसार मान्यता

पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है, तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं. उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है. ये तीन मार्ग हैं – अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग.

अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है. वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है. हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है. अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है.

यजुर्वेद में कहा गया है…

यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं. कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं. स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं. राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं. जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें. इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है.

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यमलोक के चार द्वार है. चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है. यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं. पश्चिम का द्वार ऐसे जीवों का प्रवेश होता है, जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो. उत्तर के द्वार से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो. पूर्व के द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है. इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं. इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं.

मृत्यु के बाद नजर आते हैं यमदूत

माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले वह गहरी नींद के हालात में ऊपर उठने लगता है. जब आंखें खुलती हैं तो वह स्वयं की स्थिति को समझ नहीं पाता है. कुछ जो होशवान हैं वे समझ जाते हैं. मरने के 12 दिन के बाद यमलोक के लिए उसकी यात्रा ‍शुरू होती है. वह हवा में स्वत: ही उठता जाता है, जहां रुकावट होती है वहीं उसे यमदूत नजर आते हैं, जो उसे ऊपर की ओर गमन कराते हैं.

यमराज हमसे अच्छे और शुभ कर्म की करते हैं आशा

यमराज हमसे सदा शुभ कर्म की आशा करते हैं लेकिन जब कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो भयानक दंड द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है. ऐसी आत्माओं को यमराज नरक में भेज देते हैं.