लेखक : वैभव बेमेतरिहा, विश्लेषण: भाजपा में नए प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी के साथ ही अरुण साव को लेकर यह चर्चा खूब है कि सीएम चेहरा साव होंगे. लेकिन सच में ऐसा है क्या ? आखिर पार्टी के अंदर साव कितने मजबूत हैं ? आखिर ओबीसी केंद्रित हो चुकी छत्तीसगढ़ की राजनीति में साव किस केंद्र में खड़े हुए हैं ? क्या साहू समीकरण के साथ साव बिल्कुल फिट बैठते हैं ? और क्या 2023 के चुनाव में अघोषित तौर पर साव को सीएम चेहरा बनाकर भाजपा विधानसभा का चुनाव लड़ेगी ? इन सवालों के साथ असल में भाजपा की राजनीति साव को लेकर है किस दिशा में है इसे ही जरा टटोलने की कोशिश करते हैं.

याद करिए सन् 2000 को. सन् 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नया राज्य बना था. विभाजन के दौरान मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. संख्या बल के लिहाज से छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की सरकार बनी थी. प्रथम मुख्यमंत्री बने थे अजीत जोगी. तब कहा गया कि आदिवासी बाहुल्य राज्य में एक आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि जोगी के आदिवासी नहीं होने पर सवाल उठते रहे. प्रमाण कुछ और ही आया. जोगी और आदिवासी का जिक्र क्यों करना पड़ा इससे जरा समझिए. कांग्रेस ने जहाँ आदिवासी चेहरा के तौर पर अजीत जोगी को रखा था, वहीं भाजपा ने नेता-प्रतिपक्ष के तौर आदिवासी नेता नंदकुमार साय और अपने पहले प्रदेश अध्यक्ष के तौर छत्तीसगढ़ में साहू समाज के ताराचंद साहू को चुना था. ताराचंद साहू तब छत्तीसगढ़ में भाजपा के एक प्रमुख चेहरा और साहू समाज के सबसे मबजूत नेता थे. लेकिन 2003 चुनाव के ठीक पहले जब भाजपा ने नए प्रदेश अध्यक्ष की तलाश शुरू की, तो दोबारा ताराचंद अध्यक्ष नहीं बने, बल्कि कहा जाता है कि उस वक्त पार्टी ओबीसी वर्ग और कुर्मी समाज से आने वाले रमेश बैस को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजना चाह रही थी, लेकिन केंद्रीय मंत्री पद छोड़कर बैस दिल्ली से छत्तीसगढ़ नहीं जाना चाह रहे थे. ऐसे में सामान्य वर्ग से आने वाले डॉ. रमन सिंह को दिल्ली से छत्तीसगढ़ अध्यक्ष बनाकर भेजा गया. 2003 में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पाने में सफल रही और उसके बाद 2008 और 2013 में सफलता मिलती रही. हालांकि तब भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष जो भी होते रहे सब डॉ. रमन सिंह के ही पसंद के रहे. किंतु आज स्थिति बिल्कुल उलट है.

छत्तीसगढ़ की राजनीति को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ी अस्मिता के साथ ओबीसी की ओर मोड़ दिया है. ऐसे में भाजपा को सत्ता पाने इसी रास्ते होकर जाना पड़ेगा. लिहाजा भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष से लेकर नेता-प्रतिपक्ष तक का जो चुनाव किया है उसमें केंद्र में ओबीसी ही है. एक साहू समाज से हैं, तो दूसरे कुर्मी समाज से. नई जिम्मेदारी के साथ भाजपा में काम करने वाले दोनों नेता पूरी तरह संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं. माना यही जा रहा है कि बदलाव के पीछे संघ ही रहा है. क्योंकि चर्चा 2018 के चुनाव के बाद से यह खूब रही है कि संघ ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया था, परिणाम 15 साल सत्ता में रहने वाली रमन सरकार 15 सीटों पर सिमट गई थी. यही वजह कि 2023 के चुनाव में राष्ट्रीय नेतृत्व ने 15 साल का सत्ता सुख भोग चुके नेताओं की जगह साव को सेनापति बनाया.

माना जाता है कि छत्तीसगढ़ में 52 फीसदी ओबीसी आबादी में साहू समाज के लोगों की आबादी 22 फीसदी से अधिक है. और यह भी माना जाता है कि साहू समाज भाजपा के साथ ही रहा है और साव का अध्यक्ष बनाने का फायदा 2023 के चुनाव में सीधे तौर पर मिलेगा. वैसे इस बीच 2018 के चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस सीएम चेहरे को लेकर जब मंथन चल रहा था, तब समीकरण साहू समाज के ताम्रध्वज के पक्ष भी बने थे, हालांकि कुर्मी समाज से आने वाले भूपेश बघेल कांग्रेस में सवर्मान्य नेता बने और मुख्यमंत्री चुने गए थे.

अब सवाल यही उठता है कि इन समीकरणों के बीच अरुण साव आखिर पार्टी के अंदर कितने मजबूत हैं ? और क्या सच में अघोषित तौर पर भाजपा साव को सीएम चेहरा बनाकर चुनाव लड़ने जा रही है. इसे और बेहतर ढंग से समझने के लिए हमने भाजपा और संघ की रणनीति को गहराई से मापने वाले और छत्तीसगढ़ की सियासत को बतौर पत्रकार दशकों से कवर वाले पत्रकारों से चर्चा की.

वरिष्ठ पत्रकार शशांक शर्मा का मानना है कि भाजपा एक प्रयोगवादी पार्टी है. भाजपा कभी भी कोई भी बदलाव कर सकती है. ऐसे कई उदाहरण भाजपा में देखने को मिलते रहे हैं. इसका सबसे ताजा उदाहरण है अरुण साव और नारायण चंदेल ही है. हालांकि इसका सही आंकलन अभी नहीं किया जा सकता. 2023 चुनाव में अगर भाजपा सत्ता में वापसी करती है, तब स्पष्ट कुछ कहा जा सकता है. फिलहाल तो भाजपा मोदी के चेहरे को ही आगे रखकर चुनाव लड़ने की स्थिति में दिखती है. लेकिन भाजपा नेताओं की रेस में अरुण साव मौजूदा दौर में सबसे आगे हैं. 75 प्रतिशत समीकरण साव के पक्ष नजर आता है. छत्तीसगढ़ की राजनीति जिस तरह ओबीसी केंद्रित होती जा रही है उसमें साव का साहू होना भी एक बड़ा फैक्टर है. क्योंकि साहू समाज का जुड़ाव भाजपा के साथ रहा है. साव की कमजोरी ये है कि उनके पास अनुभव कम है. पहली बार के सांसद हैं, कभी विधायक रहे नहीं और न ही संगठन में किसी बड़े पद पर रहे हैं. लेकिन अब वे प्रदेश अध्यक्ष हैं. उनका प्रोफाइल बड़ा हो चुका है.

वहीं वरिष्ठ पत्रकार राम अवतार तिवारी कहते हैं कि ऐसा मान लेना इतनी जल्दी ठीक नहीं है. प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते सीएम चेहरा होना स्वभाविक है. लेकिन पार्टी के अंदर साव अभी सर्वमान्य नेता हो गए हैं यह नहीं कहा जा सकता. प्रदेश भाजपा में बहुत वरिष्ठ और अनुभवी नेता हैं. सबकी अपनी पहुँच और पैठ है. जनाधारवाले नेता भी कई हैं. ऐसे में साव के सामने पार्टी के अंदर ही ढेरों चुनौतियां हैं. साव के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती आगामी चुनाव तक खुद को सर्वमान्य नेता साबित करने की है. उनका संपर्क अभी बिलासपुर के बाहर नहीं है. बस्तर से लेकर सरगुजा तक उन्हें कार्यकर्ताओं के बीच अपने नेतृत्व का लोहा मनवाना होगा. वैसे भी मुझे नहीं लगता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से विधानसभा चुनाव में भाजपा मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव लड़ेगी. भाजपा इस चुनाव को 2003 की तरह ही लड़ना चाहेगी. उसी दिशा में पार्टी आगे भी बड़ रही है. हालांकि ओबीसी केंद्रित छत्तीसगढ़ की सियासत में साहू फैक्टर अहम है. ऐसे में साव का साहू पक्ष मजबूत जान पड़ता है, लेकिन सीएम रेस की दौड़ में आप एकदम से कुर्मी फैक्टर को भी नहीं नकार सकते. ओबीसी कार्ड और कुर्मी फैक्टर के बीच आपको रमेश बैस का चेहरा भी याद रखना होगा, जो कि लोकसभा चुनाव के पूर्व से छत्तीसगढ़ की राजनीति से बाहर कर दिए गए हैं. साथ ही आप इस सवाल को भी सिरे खारिज नहीं कर सकते हैं कि राज्य में आदिवासी नेतृत्व कमजोर पड़ गया है या मुख्यमंत्री के दावेदारी से आदिवासी नेता बाहर हो गए हैं.

जबकि वरिष्ठ पत्रकार रुद्र अवस्थी मानते हैं कि भाजपा ने एक संकेत तो दे ही दिया है कि अगर 2023 में सफलता मिली, तो मुख्यमंत्री चेहरा साव ही होंगे. इसके पीछे जहाँ तक मैं समझ पा रहा है हूँ वो ओबीसी केंद्रित छत्तीसगढ़ की राजनीति है. इस राजनीति के नायक अभी भूपेश बघेल बने हुए. भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी अस्मिता और ओबीसी का जो कार्ड खेला है उस खांचे में साव फिलहाल फिट बैठते हैं. क्योंकि साव शिक्षित भी हैं, ठेठ छत्तीसगढ़िया हैं, ओबीसी वर्ग से आते हैं, प्रदेश में वोट बैंक के लिहाज से मजबूत समाज साहू समाज से आते हैं. इन सबके साथ जनता के लिए नए और निर्विवाद चेहरा हैं. साव के साथ एक और बात जो उसे पार्टी के अंदर मजबूत बनाती है, वो सौम्यता के साथ विषयों की समझ है. साव न तो किसी मालगुजार परिवार से आते हैं और न अमीर नेताओं की श्रेणी में खड़े हैं. और न किसी धनाड्य नेता का हाथ उनके सर पर है. साव के पिता संघ के सामान्य कर्तकर्ता रहे और साव भी संघ में बिना किसी पद एक साधारण कार्यकर्ता क रूप में सक्रिय रहे हैं. पेशे से वकील साव की छवि एक सामान्य नेता के तौर पर बिलासपुर जिले में रही है. शायद यह साधारण पृष्ठभूमि ही राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए महत्वपूर्ण रही हो. यही वजह है कि पार्टी ने 14 चिरपरचित, अनुभवी, दिग्गज नेताओं, विधायकों के बीच से किसी को न चुनकर साव को चुना. पार्टी ने यह जोखिम भी लिया है कि आदिवासी दिवस के दिन ही विष्णुदेव साय को अध्यक्ष पद से हटाया है. यही नहीं नेता प्रति-पक्ष के चयन में भी भाजपा ने कम खतरा नहीं मोल लिया, पार्टी ने अनुभवी नेताओं को किनारे रखा और महज तीन बार के विधायक चंदेल को जिम्मेदारी सौंपी. इन संकतों से यह तय माना जा सकता है कि साव फिलहाल प्रदेश में राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए पहली पसंद हैं. ऐसे में प्रदेश भाजपा में सीएम चेहरा के तौर साव उपयुक्त भी जान पड़ते हैं और मजबूत भी.

लेखक : वैभव बेमेतरिहा

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