शुभम नांदेकर / शरद पाठक, छिंदवाड़ा। पांढुर्णा में जाम नदी के तट पर लगने वाले गोटमार मेले ने अब तक न जाने कितने घर-परिवार उजाड़ दिए, कितनी माताओं की गोद सूनी हो चुकी हैं, तो कितनी सुहागिनें विधवा हो गईं। फिर भी प्रशासन परंपरा के नाम पर इस खूनी खेल को रोकने में नाकाम साबित हो रहा है। इस बार भी मेले की तैयारियां जोरों से है।

प्रशासन की सख्ती एवं धारा 144 के बावजूद यहां नदी के दोनों तट पर लोगों ने ट्रैक्टर-ट्रॉली से लाकर पत्थर इकट्ठे किए हैं। इनका उपयोग कल एक-दूसरे पर बरसाने के लिए किया जाएगा। नदी के चारों तरफ हर पत्थरों के ढेर देखे जा रहे हैं, जिससे अंदाजा लगाया जा रहा है कि प्रशासन की सख्ती सिर्फ नाम मात्र की है।

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1955 से अब तक 14 लोगों की जा चुकी है जान

पांढुर्णा में गोटमार के पत्थरों ने वर्ष 1955 से लेकर 2022 तक 14 लोगों की जान ली है। मृतक के परिजनों को गोटमार की यादें आज भी गमगीन कर देती हैं। लेकिन फिर भी आज तक कोई भी दबाव इस परंपरा को खत्म नहीं कर पाया।

दरअसल, विश्वभर में प्रसिद्ध गोटमार मेला कल 27 अगस्त को पांढुर्णा में लगेगा। यहां से बहने वाली जाम नदी पर पांढुर्णा और सावरगांव के संगम पर सदियों से चली आ रही गोटमार खेलने की परंपरा को निभाते हुए लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाएंगे। पोला पर्व के दूसरे दिन लगने वाले गोटमार मेले पर भले ही लोग लहुलूहान होंगे और शरीर से खून की धाराएं बहेगी, पर दर्द को भूलकर पूरे जोश व उमंग के साथ परंपरा निभाई जाएगी। गोटमार मेले पर मेले की आराध्य मां चंडिका के मंदिर में हजारों भक्त जुटेंगे और पूजन के साथ मां के चरणों में माथा टेकेंगे। मां चंडिका के दर्शन के बाद ही गोटमार खेलने वाले खिलाड़ी मेले में हिस्सा लेंगे।

विश्व प्रसिद्ध गोटमार मेले की परंपरा निभाने के पीछे कई किवदंतियां और कहानियां जुड़ी हैं। जाम नदी के बीचों-बीच झंडेरूपी पलाश के पेड़ को गाड़कर मेले की परंपरा निभाई जाती है और पत्थरबाजी का खेल खेला जाता है।

जानिए क्या है मेले का इतिहास ?

एक प्रचलित किवदंती के अनुसार पांढुर्णा के युवक और सावरगांव की युवती के बीच प्रेम संबंध थे। प्रेमी युवक ने सावरगांव पहुंचकर युवती को भगाकर पांढुर्णा लाना चाहा, पर दोनों के जाम नदी के बीच पहुंचते ही सावरगांव में खबर फैल गई। प्रेमी युगल को रोकने सावरगांव के लोगों ने पत्थर बरसाए, वहीं जवाब में पांढुर्णा के लोगों ने भी पत्थर फेंके। इस पत्थरबाजी से नदी में ही प्रेमीयुगल की मौत हो गई और तब से गोटमार मेले की परंपरा चली आ रही है।

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भले ही गोटमार मेला सदियों से चली आ रही परंपरा अनुसार मनाया जा रहा है, पर मेले में अपनों को खोने वाले परिवारों का गम भी उभर जाता है। मेले का समय आते ही क्षेत्र के कई परिवारों के सालों पुराने दर्द उभर आते हैं। क्योंकि इन परिवारों ने गोटमार में ही अपनो को खोया है। गोटमार के दौरान अब तक 14 लोग जान गवां चुके हैं। वहीं कई लोग अपाहिज हो चुके हैं।

गोटमार की परंपरा सदियों से चली आ रही है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाकर लहुलूहान करने की इस परंपरा को रोकने प्रशासन ने तमाम प्रयास किए, पर प्रयास असफल रहे हैं। एक बार पत्थरों की बरसात रोकने रबर बॉल का प्रयोग भी हुआ, पर चंद मिनटों में ही रबर बॉल गायब हो गए और खिलाड़ियों ने पत्थरों से ही खेल शुरू कर दिया। बीते पांच-छह सालों से हर बार गोटमार रोकने भरसक प्रयास हो रहे हैं। मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर आपत्ति जताई है, जिसके बाद मेले में पत्थरबाजी को रोकने प्रशासन ने प्रयास किए, पर गोटमार की परंपरा नहीं रूक पाई।

परंपरा पर विसंगतियां हावी होने से बुजुर्ग भी चिंतित

परंपरा पर विसंगतियां हावी होने से क्षेत्र के बुजुर्ग भी चिंतित हैं। बुजुर्गों का कहना है कि गोटमार मेले में काफी बदलाव आ गया है। पहले एक हद में रहकर परंपरा के भांति मेला आयोजित होता था पर अब लोग शराब पीकर आते हैं। गोफन से मेले का स्वरूप बदल गया है। उनका कहना है कि गोटमार में लोगों को परंपरा निभाने की जिम्मेदारी समझनी चाहिए, ताकि इस पारंपरिक मेले का स्वरूप बरकरार रहे।

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