पी रंजन दास, बीजापुर। हाथ-पांव की हड्डियां कमजोर पड़ चुकी हैं, त्वचा सिकड़ चुकी है, आंखें धुंधली और चेहरे को बेतहाशा झुर्रियों ने ढक लिया है. यहां तक की तन को ढके कपड़े भी फट चुके हैं. मुफलिसी में जो दिन देख रही हूं, उस पर तरस क्या आना, यहां सुनने वाला, देखने वाला कोई नहीं है, तो बस उपर वाले का सहारा है. आंखों की कमजोर पड़ चुकी रोशनी से वो देख नहीं पा रही थी, किसी तरह थर्रथर्राते हाथों से इशारा करते अपनी पीड़ा जाहिर करने की कोशिश कर रही थी, जिस हाल में है उस पर अफसोस ना जताते, ऊपर की तरफ उंगलियों से इशारा करते, भगवान पर आखिरी उम्मीद का भरोसा जता रही थी.
ये किसी रील लाइफ की नहीं, बल्कि रियल लाइफ की आपबीती है. उम्रदराज नागक्का पिरला की बदनसीबी की कहानी है, जो जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर सरकार और उसके दावों की हकीकत को शायद आइना दिखा रही है.
छत्तीसगढ़ के बीजापुर को पड़ोसी राज्य तेलंगाना से जोड़ती भोपालपट्नम-तालड़ागुड़ा नेशनल हाइवे से गुजरते वक्त ताड़लागुड़ा गांव से पहले सड़क किनारे एक टूटी-फूटी कुटिया है, जिस पर खपरे और एस्बेस्टस की टूटी-फूटी शीट तो है, लेकिन कुटिया की चार दीवारी नहीं, कुछ प्लास्टिक की पन्नी और ग्रीन मैट को बल्लियों के सहारे तानकर नागक्का का यह आशियाना है, जिसमें वह अपने एक पुत्र के साथ जिंदगी गुजार रही है. संतान भी कुली-भुती कर गुजारा करता है, लेकिन उसके घर से बाहर रहने पर चलने-फिरने, देखने-सुनने में लाचार नागक्का पूरी तरह बेसहारा हो जाती है.
हड्डियों में पहले जैसा जोर नहीं कि अपने बूते वह दो वक्त का खाना पका ले. मजबूरी ऐसी कि इस वृद्धा को अपना पेट भरने आस-पड़ोस के घरों में जाकर खाना मांगना पड़ता है. रहम दिल पड़ोसी कुछ खाना दे दे, तब जाकर पेट भरता है. ताड़लागुड़ा नेशनल हाइवे किनारे टूटी-फूटी कुटिया में जिसके भीतर दो चारपाई को छोड़ कोई खास सामान नहीं है.
कपड़े-लत्ते से लेकर बर्तन जहां-तहां बिखरे पड़े मिलेंगे. चूहे-बिल्ली, कुत्तों से लेकर जहरीले जीव तक घर के भीतर विचरण करते दिख जाएंगे. ऊंचा सुनती हैं, लेकिन हिंदी समझ नहीं पाती, इसलिए कोई कुछ पूछे तो पड़ोस के लोग सामने आकर उसकी पीड़ा व्यक्त करते हैं.
पड़ोसियों की मानें तो नागक्का के पास राशन कार्ड तक नहीं है. आधार कार्ड है या नहीं, वो यह भी नहीं जानती. जीवन इस कदर बदहाल कि दो वक्त का खाना भी उसे नसीब नहीं है. सरकार की तरफ से मिलने वाला वृद्धा पेंशन का भी ठीकाना नहीं, थोड़ी-बहुत जो मदद मिलती है, वो भी पड़ोसियों से. इसकी सुध लेने वाला और कोई नहीं, कोई रिश्तेदार है, यह भी नहीं जानते. बस किसी तरह जिंदगी का पहिया जैसे-तैसे घूम रहा है.
पड़ोसियों की मानें तो पंचायत चाहे तो इसकी मदद कर सकता है. बावजूद सुध लेने आज तक कोई नहीं आया. वह जैसी है उसे उसकी हाल पर सभी ने छोड़ रखा है. कुछ साल पहले पति गुजर गए. महिला की हालत को देखकर लगता है शायद संतान भी उसकी जतन ना कर रहा हो. अब तो उम्र के साथ बुढ़ापे से जुड़ी बीमारियों ने भी उसे जकड़ लिया है.
इधर , तमाम कठिनाईयों के बाद भी नागक्का की धुंधली आंखों में कोई खास सपना नजर नहीं आता. उसे जरा भी मलाल नहीं कि कोई उसकी सुध लेने पहुंच रहा या नहीं, बस भरोसा है तो उपर वाले पर, जिसकी तरफ अपनी उंगलियों से इशारा करते मानो वह अपने अंत का दिन गिन रही हो.
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