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पुरुषोत्तम पात्र, गरियाबंद. लंका से आई लंकेश्वरी देवी की परिक्रमा के बाद देवभोग में लंकेश का दहन किया जाता है. 16वीं शताब्दी से पहले कलिंगा के राजाओं ने लंका से देवी को लेकर आए थे, जिसकी पूजा काली व दुर्गा स्वरूप में होती है.
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देवभोग की दशहरा को शाही दशहरे का दर्जा मिला हुआ है. दशहरा के दिन आसपास के गांव में विराजित ग्राम देवता विग्रह के रूप में अपने पताका के साथ दशहरे के दिन देवभोग पहुंचते हैं. फिर गांधी चैक में मौजूद रावण के विशालकाय पुतले का परिक्रमा करते हैं. परिक्रमा लंकेश्वरी देवी के नेतृत्व में होता है, फिर जमीदारों के ईष्ट देव रहे कचना ध्रुवा अपने पताका से पुतले को मारते हैं तब जाकर रावण दहन किया जाता है.
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यंहा के दशहरे के इतिहास 200 साल से भी ज्यादा पुराना है. तत्कालीन जमीदार लाल नागेंद्र शाह के पूर्वजों के जमाने से शाही दशहरा मनाया जाता है. तब 84 गांव की ग्राम देव को बुलाया जाता था, पर अब वही देवी आते हैं, जिन्हें जमीदार पूजा करते थे. विगत 80 साल से शाही दशहरा से लेकर देवी देवताओं के पूजन का जिम्मा जमीदार दाऊ परिवार के लोग उठाते आ रहे हैं. सबसे पहले दशरथ दाऊ को इसका जिम्मा मिला था, अब उनकी तीसरी पीढ़ी के मुखीया परपोता जयशंकर दाऊ दशहरे की रस्म को पूरा कर रहे हैं. देवी सेवा के लिए दाऊ परिवार के भरण पोषण के लिए जमीदारो ने 50 एकड़ से भी ज्यादा कृषि भूमि सौंपा है.
18वी शताब्दी में पहुंची लंकेश्वरी
देवभोग से 35 किमी दूर स्थित जूनागढ़ में लंकेश्वरी देवी का मंदिर है. मध्यकालीन इतिहास में पश्चिम ओड़िसा यानी उस वक्त के कलिंगा क्षेत्र में सोम, छिंदका नागा, गंगा, नागा वंशी राजाओं का उल्लेख है. जूनागढ़ से 50 किमी दूरी में 12वीं शताब्दी से होते आए शासको का प्रमाण भी है. 18वीं शताब्दी के बाद कलिंगा के इस इलाके तक इष्ट इंडिया कंपनी की पहुंच हो चुकी थी. शाह परिवार छुरा से लेकर देवभोग तक जमीदारी सम्भाल रहे थे. जूनागढ़ क्षेत्र के जमीदारों से भी मधुर संबंध थे. माता लंकेश्वरी को शुरू से ही युद्ध व विजय की देवी का दर्जा मिला हुआ था.
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1914 में लंकेश्वरी देवी का मंदिर बनाया
जमीदारों ने बरही ग्राम जो देवभोग से 12 किमी दूर है वहां स्थापित कर इसकी पूजा अर्चना शुरू की. देवी का अब तक कोई स्वरूप नहीं बताया गया है. दुर्गा व काली के रूप में मान्यता देकर पत्थर में स्थापित कर पूजा जाता है. देवभोग में 1913 में जगन्नाथ मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद अगले वर्ष 1914 में लंकेश्वरी देवी का मंदिर बनाया गया. बलि प्रथा की मान्यता थी. आम जनों को मंदिर या देवालय प्रवेश वर्जित है. मंदिर में कोई पट नहीं होता, आयताकार एक विशाल छिद्र बनाया गया है, ताकि पुजारी आ जा सके. यहां दशहरा के दिन ही पूजा होती है.
इसलिए देवभोग में भी मंदिर बना
1955 में नारायण अवस्थी ने बेटे जीवन लाल के नाम पर देवभोग के मुख्य चैराहे में मौजूद 2 एकड़ जमीन खरीद लिया था. जमीन खरीदी के बाद परिवार के सदस्यों को शारीरिक तकलीफें थी, जिसके कारण का आभास 1985 में हुआ. घर की बड़ी बहू भगवती देवी को दशहरे में शारीरिक तकलीफें शुरू हो जाती थी. 5 साल से तकलीफें झेलने के बाद भगवती देवी को आने वाले सपने का चर्चा परिवार में हुआ. भगवती देवी ने सपने का जिक्र कर बताया था कि खरीदी गई जमीन के उस हिस्से में जहां जमीदारो का खलिहान हुआ करता था, वहां लंकेश्वरी की मंदिर बनाना है.
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1985 में मंदिर बनाकर लंकेश्वरी की स्थापना की
भगवती देवी के सुपुत्र दुर्गा चरण अवस्थी ने बताया कि बताए गए जगह पर नींव खोदते ही पहले से बने ढांचा दिखाई दिया, उसी पर 1985 में मंदिर बनाकर लंकेश्वरी की स्थापना की गई. पट केवल दशहरे के दिन खुलता है. बरही के पुजारी ही प्रवेश करते हैं. बरही से आये पताका ही रावण का परिक्रमा करता है. लंकेश्वरी देवी के प्रति आस्था इलाके भर के लोग रखते हैं. बंद पट के बाहर प्रत्येक मंगलवार को पूजन होता है.
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