@ अनिल सिंह कुशवाह. भोपाल. मध्य प्रदेश के डीजीपी का एक फरमान तानाशाह होने का इशारा कर रहा है। दिक्कत यह है, एमपी की पुलिस समाज से जुड़ना भी चाहती है और समाज के सबसे बड़े प्लेटफार्म यानी ‘सोशल मीडिया’ को फेस भी नहीं करना चाहती। या फिर ये कहें कि इससे दूर भागना चाहती है। तो क्या पुलिस ऐसा ही कोई दोहरा चरित्र लेकर भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली के सपने देख रही है ? सवाल यह भी है, जो राजनीतिक दल इसी प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर सत्ता तक पहुंचे, उन्हें ये प्लेटफार्म अब अपने ही खिलाफ षड्यंत्र क्यों दिखने लगा ? ऐसा की अब ‘सेनापति’ के सहारे इस पर बंदिशें लगाने की कोशिशें की जाने लगी हैं।
सोशल मीडिया के बारे में कहा जाता है कि यह एक तरह से ‘बूमरेंग’ है। ऐसा हथियार, जो आपके काम आ सकता है, तो चूक या गलती होने पर पलट कर आपको घायल भी कर सकता है। दरअसल, भारत बंद के दौरान 2 अप्रैल को दलित संगठनों द्वारा की गई हिंसा को रोकने में नाकाम रही पुलिस अब मीडिया और सोशल मीडिया पर शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है। डीजीपी को लगता है कि मीडिया और सोशल मीडिया में चले मैसेज के कारण ही हिंसा भड़की ! यही कारण है, डीजीपी ऋषिकुमार शुक्ला ने पुलिस अफसरों और कर्मचारियों को प्रेस मीडिया और सोशल मीडिया से दूर रहने के निर्देश जारी कर दिए। थाना स्तर पर हर कर्मचारी को गाइडलाइन का पालन करने की हिदायत देते हुए कार्रवाई का डर भी दिखाया गया है।
डीजीपी के इस आदेश से सभी हैरान हैं। आश्चर्य इसलिए भी, क्योंकि साल भर पहले ही डीजीपी जब उद्योगपतियों के शहर इंदौर गए थे तो खुद पुलिस अफसरों को इसकी छूट देकर आए थे। खुद भी ट्वीटर अकाउंट खोलकर इसके जरिए शिकायतों का निराकरण और क्राइम कंट्रोल का दावा कर रहे थे। अब यही सोशल मीडिया उन्हें फूटी आंख नहीं सुहा रही है। डीजीपी ने इसी बैठक में घूस लेने वाले पुलिसकर्मियों की कुंडली तैयार करने की बात भी कही थी। अगले ही दिन एक सिपाही ने फेसबुक पोस्ट के जरिए बड़ा सवाल खड़ा कर दिया कि 100 रुपए की शिकायत पर अफसर कार्रवाई की बात कह रहे हैं, तो उन लोगो का क्या होगा जो चुपचाप नोटों के बैग भरकर ले जाते हैं ?
खैर, मध्य प्रदेश में महिलाओं से जुड़े अपराध के आंकड़े आ चुके हैं और इन आंकड़ों से मध्यप्रदेश में महिलाओं की वास्तविक स्थिति खुलकर सामने आ गई है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के गायब होने की घटनाएं मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा हुई हैं। वर्ष 2016-17 में अपहरण की स्थिति ऐसी है कि 75 फिमेल रोजाना प्रदेश में गायब हो रही हैं, इनमें 23 नाबालिग हैं। रेप की घटनाएं भी सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में घटित हुई हैं। 14 महिलाओं को प्रतिदिन दुष्कर्म का शिकार बनाया जा रहा है, जबकि एक महिला से रोज़ाना सामूहिक दुष्कर्म हो रहा है। प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स एक्ट में भी मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है।
तो क्या ये बढ़ते अपराध असल में ‘खम्बा नोंचने’ का कारण हैं ? बढ़ते अपराध आए दिन अखबारों या न्यूज़ चैनल्स की सुर्खियां बन रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी पुलिस की कर्यप्रणाली पर सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे में पुलिस के मुखिया को ये दोनों मीडिया अचानक अपने खिलाफ साजिश लगने लगे। जबकि, होना ये चाहिए था कि सोशल मीडिया के जरिए जनता से सीधा संवाद बनाकर पुलिस क्राइम कंट्रोल की कोशिशें तेज करती। साम्प्रदायिक तनाव, विवाद या अन्य किसी अफवाह फैलने की स्थिति में सोशल मीडिया के माध्यम से जनता को सही स्थिति से अवगत कराया जाता। जिससे कि भ्रम या कानून व्यवस्था की स्थिति न उत्पन्न होने पाए। अफवाहों के खण्डन के लिए प्रत्येक थाना स्तर पर ‘डिजिटल वालंटियर’ बनाए जाते। सीएसपी स्तर के अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाकर सोशल मीडिया के जरिए मिलने वाली सूचनाओं और शिकायतों का परीक्षण कर बेहतर पुलिसिंग की दिशा में ले जाया जाता।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की तादाद रोजाना बढ़ रही है। खासकर फेसबुक और व्हाट्सऐप तो आधुनिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो गए हैं। प्रत्येक चार में से एक व्यक्ति सामाजिक माध्यम पर उपस्थित है। सोशल मीडिया अपने आप में एक समाज है। तो इस ‘समाज’ से पुलिस को दूर रखने का फैसला कितना उचित है ? बल्कि इसके बारे में जानने समझने के लिए इसके साथ खड़ा होना इस समय ज्यादा जरूरी है। यह ऐसा संचार माध्यम है, जो तेजी से सन्देश फैलाता है। सामर्थवान के खिलाफ ये निरीह का हथियार है। लेकिन, अभी इसका दुरुपयोग प्रारंभिक स्तर पर है।
जिस तरह आजादी के पूर्व पत्रकारिता मिशन थी, फिर प्रोफेशन हो गई, मालिका का सीधा हित जुडऩे से कमीशन हो गई और अब सोशल मीडिया के आने से इसे सूचना जगत हथियार (वीपन) के रूप में देखा जा रहा है। जो कई स्तर पर असल लोकतंत्र लेकर आया है। कई ऐसे मौके आए हैं, जब सोशल मीडिया के कारण कई खबरें मुख्य धारा की मीडिया को कवर करनी पड़ी हैं। ऐसे में इससे पुलिस का भागना सही फैसला बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। बल्कि, इससे जुड़कर लोगों को बुराईयों, अच्छाइयों के प्रति सजग करने की जरूरत है। सोशल मीडिया पर मुक्त बहस के ज़रिए कई असामाजिक तत्वों पर रोक लगाने में सफलता मिल सकती है। पुलिस में नेतृत्व करने वालों को सोशल मीडिया का साथ लेना चाहिए और पुलिसिंग को अपडेट करने में इसका उपयोग करना चाहिए। इसके माध्यम से अपराध नियंत्रण, सूचना एकत्रिकरण, जाँच व कानून व्यवस्था बनाने और सामुदायिक पुलिसिंग भी की जा सकती है। यानी, कम कीमत में ज्यादा मानव संसाधन जुटाया जा सकता है।
जैसा मैसूर पुलिस ने सोशल मीडिया के जरिए न केवल अपराध पर नियंत्रण पाने में सफलता पाई है, बल्कि अपनी छवि भी सुधारी है। कर्नाटक पुलिस भी सोशल मीडिया का सफलतापूर्वक उपयोग कर रही है। यूपी पुलिस को तो ‘सोशल मीडिया एम्पावरमेंट’ अवार्ड से नवाजा जा चुका है। यूपी पुलिस के अफसरों को हजारों शिकायतें रोज मिलती हैं, जिनका वहीं पर निस्तारण करने की कोशिश की गई। आलोचना हुई तो उसे स्वीकार कर सुधारा। पुलिस के अच्छे कामों को लोगों तक ले गए तो जहां सिस्टम से शिकायत हुई लोगों को सॉरी भी बोला गया। लेकिन, मध्य प्रदेश पुलिस ने 2 अप्रैल की हिंसा के पीछे अपने इंटेलिजेंस की असफलता को स्वीकारने और सुधारने की बजाय पूरा ठीकरा मीडिया व सोशल मीडिया पर फोड़ दिया। इस हिंसा के बाद डीजीपी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में पुलिस अधीक्षकों को खीजकर यह कहते सुने गए कि मीडिया पर कंट्रोल करें ? अगले दिन कुछ अखबारों में यह छप गया तो शक की सुई हर एक पर आकर टिक गई। इसके बाद एक सर्कुलर जारी कर यह सख्त हिदायत दे दी गई कि बिना अनुमति पत्रकारों से दोस्ती रखना भी मप्र सिविल सेवा आचरण नियम 1965 के खिलाफ है।
वैसे, मध्य प्रदेश में ऐसे कई काबिल पुलिस अफसर रहे हैं, जिन्होंने मीडिया से बेहतर तालमेल की दम पर न केवल साम्प्रदायिक तनाव टाले, बल्कि कई पेचीदा मामले तक सुलझाए हैं। मीडिया से बेहतर संबंधों के चलते 3 आईपीएस अफसर तो राजधानी (भोपाल) में 4-4 साल लम्बी सफल कप्तानी तक कर चुके हैं। इंटेलिजेंस और मीडिया की दोस्ती से कई बार सरकार को भी ऐसे इनपुट मिले, जो संकटमोचक बन गए या विपक्ष के खिलाफ हथियार बन गए। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं। लेकिन, इन संबंधों को यदि संदेह की नजर से देखा जाने लगेगा तो पुलिस का तंत्र कितना और कैसे सुधरेगा ? इन हालातों में यदि मजिस्ट्रेट के पॉवर भी पुलिस को दे दिए गए तो क्या गारंटी है कि पुलिस कमिश्नर प्रणाली (पीसीपी) यानी ‘पब्लिक कट ऑफ पुलिस’ बनकर फिर तानाशाह नहीं बन जाएगी ?
दरअसल, माहौल इस समय डर का ही है। राज्य सरकार जहां चुनावी बेला में ऐंटी इंकम्वेनशी से घबराई हुई है तो पुलिस के मुखिया हर ‘आहट’ को अपने खिलाफ मानकर चल रहे हैं। कलेक्टर और एसपी को ‘जमावट’ में अपने फिट नहीं होने का डर है। जनता को ब्यूरोक्रेसी की हठधर्मिता, असुरक्षा और महंगाई का डर है तो मीडिया और सोशल मीडिया को अपने विचारों पर ‘चाबुक’ चलने का डर है ?
(यह लेखक के निजी विचार हैं)