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रायपुर। त्रेतायुग में एक श्रवण कुमार थे जो अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा पर ले गए थे. छत्तीसगढ़ में भी एक ऐसा ही श्रवण कुमार है.
हांलाकि युगों के अंतर से कहानी में इतनी तब्दीली आ गई है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार को अपने माता-पिता को कंधे पर उठाना पड़ा था आज के श्रवण कुमार को माता पिता की बजाय अपने छोटे भाई को कंधे पर उठाना पड़ता है. इसी तरह, त्रेता के श्रवण कुमार को तीर्थयात्रा के लिए ये काम करना पड़ा. आज का श्रवण कुमार को पिछले तीस सालों से ये काम इसलिए करना पड़ रहा है कि वो ज़िंदा रहे.
आरंग के इस श्रवण कुमार का भाई मिलाप दास दिव्यांग है. मिलाप अपने पैरों पर चलना तो दूर मिलाप खड़े भी नहीं हो सकता. किसी भी काम के लिए बड़े भाई का ही सहारा है. उस पर विडंबना ये कि पत्नि भी दृष्टिहीन है. पूरा परिवार बहुत ही मुश्किल हालातों में जिंदगी गुजारने को मजबूर है.
पहली नज़र में ये कहानी मानवीय रिश्तों की मिसाल लग सकती है. लेकिन असल में ये सरकारी तंत्र की असंवेदनशीलता और लापरवाही की परतें भी खोलती है.
दरअसल मिलाप दास ने समाज कल्याण विभाग में ट्राईसाइकिल के लिए काफी लम्बे समय से आवेदन दिया हुआ है. लेकिन समाज कल्याण विभाग से इन्हें अब तक ट्राईसाइकिल नहीं मिला है. कई हज़ार आवेदनों की तरह यह आवेदन भी फाइलों में दबके रह चुका है. जितना मुश्किल मिलाप के लिए गाँव से अपने भाई के कंधे पर समाज कल्याण विभाग के दफ्तर पहुंचना होता है उतना ही आसान समाज कल्याण विभाग के लिए ये कहना होता है कि जब ट्राईसाइकिल आएगी, दे दिया जायेगा.
यहां ये सवाल उठाना लाज़मी है कि जब एक साल में एक बेहद ज़रूरतमंद को ट्राईसाइकिल नहीं दे पा रहा है तो उसे समाज का कल्याण करने से पहले खुद के कल्याण की ज़रूरत है.