फोटो- गुगल(साभार)

पं. वैभव बेमेतरिहा, रायपुर।  इस सवाल का जवाब कौन देगा और किससे मांगा जाए।  क्योंकि छत्तीसगढ़ में एक नेता जी सर्वाधिक चिट्ठी मुखिया जी को लिखते हैं। हर आरोप, घटना के बाद तत्काल एक चिट्ठी सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है। लेकिन मुखिया जी चिट्ठी का जवाब देते भी या नहीं इस बारे में ना तो मुखिया के साधकों की ओर से कुछ पता चलता है और ना ही नेता जी की ओर से। खैर बात जल-जंगल-जमीन की हो रही थी और शुरुआत मैंने नेता जी की चिट्ठी से कर दी। इसलिए भी कर दी क्योंकि नेता जी की चिट्ठी फिलहाल प्रसंगवश इसी मुद्दे पर है।

चलिए सीधे उसी मुद्दे पर आते हैं कि आदिवासी अगर अपनी जमीन से ब़दखल हो रहे हैं तो फूल-फल कौन रहे हैं ? बस्तर में लोहा निकालने बड़ा सरकारी कारखाना बना, कुछ गैर सरकारी लोग भी आए। सभी ने सरकार के साथ मिलकर आदिवासियों की जमीन ली और आदिवासियों की जमीन पर ही कारोबार शुरू कर दी। बस्तर से लोहा निकला दुनिया तक जा पहुँची, दुनिया भर से लोग बस्तर आ गए, लेकिन आदिवासी, आदिवासी है कहां ? उनका विकास क्या उसी रफ्तार हुआ, जिस तीव्रता से बस्तर में आदिवासियों का शोषण, उनकी ज़मीन से बेदखली, या ज़मीन से लोहा सहित अन्य खनिज संसाधनों का दोहन हुआ ?

बस्तर ही नहीं बल्कि आप कोरबा, रायगढ़, सरगुजा, कोरिया, सूरजपुर, बलरामपुर और अब जांजगीर में भी आदिवासियों से ली गई ज़मीन या कहिए छीन ली गई जमीनों का आंकलन करेंगे, तो पाएंगे कि आदिवासी विस्थापित हुए हैं, अपनी भूमि से बेदखल हुए हैं। विस्थापन का यह दौर बीते कई दशकों से चल रहा है और निरंतर जारी है। मुझे मालूम नहीं कि जहां से भी आदिवासियों से जमीन छीनी गई, वहां से विस्थापित आदिवासी आज विकास के क्रम में कहां पर खड़े हैं ?

क्योंकि सामान्य आंखों से जो देख पा रहा हूँ उनमें मंत्री, नेता, या सत्ता को चलाने वाले उद्योगपति जैसे ढेरों पूंजीपति विकास क्रम में ‘अग्र’ दिखाई देते हैं और ‘वाल’ पर तरक्की की रंगत दिखती है। बात चाहे आधुनिक राजधानी नया रायपुर की करें या छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी सिरपुर की हर कहीं विकास करते हैं वहीं दिख रहे हैं जो आजकल खूब चर्चा में हैं, खूब छप रहे हैं। अगर मैं सही-सही कह रहा हूँ तो आदिवासी या किसान या माटी पुत्रों की तरक्की की एक-दुक्का तस्वीरें विकास गाथा के साथ पूरी ईमानदारी से छपती है, या उसकी चर्चा होती है। नहीं तो सभी जानते हैं ज्यादातर खबरें तो शोषण, अत्याचार की ही आते रहती हैं। और जो विकास की बाते छपती या खबरे बनती है उसमें विज्ञापन का झूठा लेप लगा होता है जिसे वैसा ही दिखाते हैं, जैसा सरकारें चाहती है। लिहाजा विज्ञापनों को कभी सच मानकर नहीं देखा जाना चाहिए।

मतलब साफ है कि महानदी से लेकर शिवनाथ, हसदों, इंद्रवती और ऐसी कई छोटी और बड़ी नदियों पर आज किसान या आम जनों का कम, बल्कि उद्योगपतियों का हक ज्यादा हो गया है। सिंचाई के नाम पर बनाए जाने वाले चेक डेम, स्टॉप डेम, बैराज में पानी रोककर पानी बेचने का खेल सरकारें खूब कर रही हैं। इसी तरह से जंगल, पहाड़ पर भी कब्जें का खेल बखूबी चल रहा है। सरगुजा में आदिवासियों के उग्र विरोध के बाद भी जंगल-जंगल बेच दिए जा रहे हैं।

दरअसल छत्तीसगढ़ में 2000 से 2017 तक एक बार मंत्रियों के संपत्तियों का सोशल ऑडिट ईमानदारी से हो तो खुलासे संभव है कि चौंकाने वाले होंगे। और ये भी पता चलेगा कि वास्तविक में जल-जंगल-जमीन से बेदखल होने वाले फूल-फल रहे हैं या कोई और ?
और इन सबके बीच मैं यहां पर संदीप अखिल जी के कुछ पंक्तियों को साझा भी कर रहा हूँ, जिसमे में अक्सर वे कहते हैं कि ” बाहर से आने वाले लोग छत्तीसगढ़िया बनने की कोशिश करते हैं, उनकी संस्कृतियों को अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन असल वे बहरूपिया साबित होते रहे हैं। क्योंकि छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया कह देना आसान है छत्तीसगढ़िया होना नहीं।”