छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित है, जबकि देश के कुल क्षेत्रफल का यह 12 प्रतिशत है। जाहिर है कि प्रदेश के आर्थिक विकास के साथ-साथ देश के आर्थिक विकास में भी यहां के जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पिछले 2 वर्षों के दौरान छत्तीसगढ़ शासन ने अपने निरंतर प्रयासों और नवाचारों से इस भूमिका को और भी विस्तारित करने का काम किया है। किसानों और वनवासियों के जीवनस्तर को एक-साथ ऊंचा उठाने के लिए राज्य अपनी नयी आर्थिक रणनीति पर काम कर रहा है।
जैव-विविधता से भरपूर छत्तीसगढ़ के जंगलों में अनेक तरह के वनोपज और दुर्लभ जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। वनक्षेत्रों के रहवासियों द्वारा परंपरागत रूप से इनका संग्रहण कर आय अर्जित की जाती रही है। वनोपजों के संग्रहण और विक्रय की इस पूरी प्रक्रिया में वनवासियों को कभी भी उनके परिश्रम की सही कीमत नहीं मिल पाई थी, फलतः उनके हिस्से में हमेशा न्यून आय ही आई। दूसरी ओर इन्हीं वनोपजों से बिचौलिये और बड़े व्यापारी अच्छा मुनाफा कमाते रहे। वनों को क्षति पहुंचाए बिना वनक्षेत्रों के विकास की जो रणनीति शासन ने तैयार की है, उसमें वनोपजों के संग्रहण और विक्रय से जुड़ी विसंगतियों को दूर करना सर्वोच्च प्राथमिकता में रहा है। इसी क्रम में तेंदूपत्ता संग्रहण दर को बढ़ाकर 4000 रुपए प्रति मानक बोरा कर दिया गया, जिससे प्रदेश के करीब 13 लाख संग्राहक परिवारों की आय में एक साथ 60 प्रतिशत का इजाफा हो गया। इसी तरह समर्थन मूल्य पर खरीदे जाने वाले लघु वनोपजों की संख्या 7 से बढ़ाकर 52 कर दी गई। इनमें से 38 वनोपजों की खरीदी छत्तीसगढ़ लघु वनोपज संघ द्वारा सीधे की जाती है, जबकि संघ द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 14 वनोपजों की खरीदी स्व सहायता समूहों द्वारा की जाती है।
पिछले दो वर्षों के दौरान वनक्षेत्रों में तेज हुई आर्थिक गतिविधियों का ही यह परिणाम है कि कोरोना-काल में देशव्यापी लॉकडाउन के दौर में भी छत्तीसगढ़ के जंगलों में वनोपजों के संग्रहण का कार्य तेजी से चलता रहा। इस दौरान देश में संग्रहित कुल वनोपजों का 73 प्रतिशत छत्तीसगढ़ ने संग्रहित करते हुए सभी राज्यों में पहला स्थान प्राप्त किया। संग्राहकों ने 130 करोड़ 21 लाख रुपए मूल्य के 04 लाख 75 हजार क्विंटल लघु वनोपजों का संग्रहण किया। संकटकाल में राज्य ने बेरोजगारी दर में नियंत्रण समेत जो आर्थिक उपलब्धियां हासिल की, उनमें वनक्षेत्रों में चल रही आर्थिक गतिविधियों का बड़ा योगदान रहा।
वनोपजों के प्राथमिक प्रसंस्करण को बढ़ावा देने के लिए राज्य में 139 वन-धन केंद्रों की स्थापना की गई है। इनके माध्यम से 103 प्रकार के हर्बल उत्पाद तैयार कर “छत्तीसगढ़ हर्बल्स” नाम से संजीवनी केंद्रों द्वारा विक्रय किए जा रहे हैं। इस कार्य से लगभग 14 हजार स्व-सहायता समूहों के सदस्य लाभान्वित हो रहे हैं। राज्य के पाटन क्षेत्र में एक केंद्रीय प्रसंस्करण इकाई तथा प्रसंस्करण पार्क की स्थापना की जा रही है। इसमें निजी उद्यमियों के भूखंड तथा अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। इस पार्क में विभिन्न प्रकार के लघु वनोपज आधारित उत्पाद वृहद स्तर पर तैयार किए जाएंगे। इसी प्रकार दंतेवाड़ा जिले में भी एक क्षेत्रीय प्रसंस्करण इकाई की स्थापना की जा रही है।
राज्य में लाख उत्पादन को आगामी तीन वर्षों में 4000 टन से बढ़ाकर 10,000 टन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। लाख उत्पादन से फिलहाल करीब 50 हजार परिवारों को 100 करोड़ रुपए की सालाना आय प्राप्त होती है। लाख पालन को कृषि का दर्जा देते हुए ब्याज रहित फसल ऋण तथा फसल बीमा सुविधा का लाभ देने का निर्णय लिया गया है। लाख की खरीदी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करते हुए 20 क्षेत्रीय संयंत्रों के माध्यम से इसका प्रसंस्करण किया जाएगा। प्रसंस्कृत लाख का विक्रय करके 200 करोड़ रुपए से अधिक की आय प्राप्त होगी।
राज्य में वनौषधियों के उपयोग से परंपरागत उपचारकर्ताओं द्वारा सुदूर वनांचलों में प्राचीन परंपरा के अनुसार प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध कराई जा रही है। इस परंपरागत ज्ञान तथा पद्धति का दस्तावेजीकरण करने, उसे संरक्षित करने तथा औषधियों का परीक्षण-प्रमाणीकरण करने के उद्देश्य से “राज्य औषधि पादप बोर्ड” को पुनर्गठित करते हुए “छत्तीसगढ़ आदिवासी, स्थानीय स्वास्थ्य परंपरा एवं औषधि पादप बोर्ड” का गठन किया गया है।
वनों तथा वनवासियों ने हमेशा एक-दूसरे को सुरक्षित-संवर्धित किया है। इस परस्परता को और सघन करते हुए वनक्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को कृषि, मछलीपालन, चराई, रहवास तथा अन्य निस्तार के लिए व्यक्तिगत तथा सामुदायिक अधिकार पत्र वितरित किए जा रहे हैं। सामुदायिक वन अधिकार के तहत कृषि करने वाले वनवासी आम कृषकों की तरह शासन की कृषि-योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। धान उत्पादकों से उनका उत्पाद समर्थन मूल्य पर शासन द्वारा खरीदा जाता है। अब तक 14 लाख 31 हजार 504 हेक्टेयर वनक्षेत्र में 24 हजार 528 सामुदायिक वन अधिकार पत्र प्रदान किए जा चुके हैं। इसके अलावा सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन तथा पुनर्जीवन के लिए सामुदायिक वन संसाधन अधिकार भी दिए गए हैं। अब तक 05 लाख 91 हजार 88 हेक्टेयर वन क्षेत्रों में 1366 सामुदायिक वन संसाधन अधिकार पत्र प्रदाय किए जा चुके हैं।
वन्य प्राणियों तथा मानव के बीच द्वंद्व को नियंत्रित करने के लिए वाइल्ड लाइफ कॉरीडोर में आनेवाले क्षेत्रों में वन्य प्राणियों के रहवास में सुधार तथा सुगम आवागमन की व्यवस्था की जा रही है। राज्य के सभी वाइल्ड लाइफ कॉरीडोरों की पहचान, उनके प्रबंधन की योजना तैयार की गई है। वर्ष 2020-21 में इसके लिए 85 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। जैव विविधता के संरक्षण के लिए राज्य में 5698. 47 हेक्टेयर क्षेत्र में 24 बायोडावर्सिटी पार्कों की स्थापना की जा रही है। इसके लिए लगभग 52 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। प्रदेश में हाथियों और मानव के बीच बढ़ते द्वंद्व को रोकने हाथी रहवास विकास के लिए लेमरू एलीफेंट रिजर्व की स्थापना की जा रही है। इसके लिए 94 करोड़ रुपए स्वीकृत किए जा चुके हैं। इस योजना के क्रियान्वयन के लिए भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून से अनुबंध किया जा रहा है।
राज्य में बिगड़े वनों के सुधार की योजना पर भी व्यापक स्तर पर काम किया जा रहा है। वनक्षेत्रों को सघन करने के साथ-साथ उनके भीतर प्राकृतिक रूप से पनपने वाली विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियों की सुरक्षा को भी महत्व के कार्यों में शामिल किया गया है। बांस वनों से एक बड़े समुदाय की आजीविका जुड़ी रही है, इसकी व्यापक उपलब्धता ने बीजापुर जैसे बांस-संपन्न क्षेत्रों में कागज-उद्योग की संभावनाओं को भी जन्म दिया है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए बांस वनों के संवर्धन तथा प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
शासन द्वारा न केवल वनों को संरक्षित और संवर्धित किया जा रहा है, साथ ही वनक्षेत्रों में बहने वाले नालों के पानी को सहेजने का भी काम किया जा रहा है। इससे वनों के साथ-साथ वनक्षेत्रों में कृषि करने वाले रहवासियों को भी सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो सकेगा। नरवा विकास योजना के तहत कैंपा मद से 1955 नालों में 25 लाख 26 हजार जल संरचनाएं स्वीकृत की गई हैं। इन संरचनाओं में ब्रशवुड, चैकडेम, अर्देन गली प्लग, गेबियन स्ट्रक्चर, स्टॉप डेम, तालाबों आदि शामिल हैं। इन कार्यों से बड़े पैमाने पर रोजगार का भी सृजन हो रहा है। भूमि का कटाव रोकने के लिए प्रदेश की नदियों के तटों पर भी बड़े पैमाने पर पौधों का रोपण किया जा रहा है।
थोड़े ही समय में वनक्षेत्रों के रहवासियों के जीवनस्तर में जो बदलाव आया है, उसका असर इन क्षेत्रों के स्थानीय बाजारों में देखा जा सकता है। विश्वव्यापी मंदी के बावजूद वनक्षेत्रों समेत छत्तीसगढ़ के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में रौनक बनी रही। राज्य ने जो आर्थिक उपलब्धियां हासिल की है, उसकी सराहना रिजर्व बैंक ने भी की है। तात्कालिक गतिविधियों के जरिये अर्थव्यवस्था को गतिशील रखने के साथ-साथ राज्य शासन दूरगामी लक्ष्यों को लेकर भी आगे बढ़ रहा है। राज्य की नयी उद्योग नीति में कृषि के साथ-साथ वनोत्पादों पर आधारित प्रदूषण मुक्त उद्योगों की स्थापना को भी प्राथमिकता सूची में रखा गया है। हम परस्परता की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ते हुए एक ऐसा ईको सिस्टम विकसित कर रहे हैं, जिसमें जंगल मनुष्यों के जीवन को संवारेंगे और मनुष्य जंगलों को।
लेखक – मोहम्मद अकबर,
(वन, आवास एवं पर्यावरण, परिवहन, विधि एवं विधायी मंत्री छत्तीसगढ़)