सत्ता धर्म बनाम राज धर्म छत्तीसगढ़, मध्य, प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, गोआ, उत्तराखंड, कर्नाटक, गुजरात, भारत में अब लोकतंत्र स्थापित है. संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत भारत के नागरिकों को कई मौलिक अधिकार प्राप्त हैं साथ ही कई जनहितकारी,जनकल्याणकारी कानून इस लोकतंत्र में बनाए गए. इसी के तहत स्वतंत्रता के बाद भारत में जनप्रतिनिधियों के लिए चुनाव आचार संहिता भी तैयार की गई. वैसे भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर प्रतिनिधियों का लोकतंत्र स्थापित है जहां मतदाता अपने प्रतिनिधियों को संसद में विधानसभा में अपने मताधिकार का प्रयोग कर निर्वाचित करते हैं. इस उम्मीद से कि भारत के संविधान में निहित प्रावधानों के अंतर्गत राष्ट्रहित हित और आम जनमानस के सर्वांगीण विकास उनकी सुरक्षा स्वास्थ्य शिक्षा रोजगार और पर्यावरण के लिए समुचित और बेहतर व्यवस्था स्थापित किया जा सकेगा, जिसमें जनप्रतिनिधियों का महत्वपूर्ण योगदान मिलेगा और राष्ट्र की एकता अखंडता के साथ विकास के पथ पर राष्ट्र आगे बढ़ता रहेगा. इस विकास के सहभागीता में देश की न्यायपालिका ,कार्यपालिका और पत्रकारिता की महती भूमिका होगी.

बड़ी विडंबना है कि प्रायः जनप्रतिनिधियों के निर्वाचन के बाद मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री का निर्वाचन इसके बाद मंत्रियों का मनोनयन केके तौर तरीकों से जहां राजनीति, कूटनीति अपनी चरम पराकाष्ठा पर इस देश की संकल्पनाओं,विकास योजनाओं और आम जनमानस की भावना को दरकिनार कर राजनेता अब अपनी अपनी महत्वाकांक्षाओं ,स्वार्थ और पद प्रतिष्ठा के संघर्ष में अपनी इज्जत दांव पर लगा देते हैं.

क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह जनहित में जरूरी है. जहां एक तरफ महत्वपूर्ण ,शासन के पदों में बैठने की होड़ और जुगत लगाना नेताओं का परम कर्तव्य हो गया है. इस देश की विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा तो संभव है और लोकतांत्रिक भी है, लेकिन एक ही दल के नेताओं के द्वारा अपने ही दल के संगठित प्रयास,जिसके कारण राज सत्ता प्राप्त हुआ ,पद प्रतिष्ठा और स्वार्थ पूर्ति में राजसत्ता की व्यवस्था को कमजोर करना, बर्बाद करना,दिग्भ्रमित करना और पार्टी के सांगठनिक शक्ति को भी कमजोर कर देना कहां तक उचित है.

  • क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के चयन तक सीमित है
  • क्या मुख्यमंत्री के पदों का समय काल में बटवारा उचित है
  • क्या साल दर साल प्रधान मंत्री,मुख्यमंत्री के बदलने से राज्य सत्ता अपने दायित्वों का पालन कर सकेगी
  • क्या राजनैतिक दलों के प्रमुख को नेतृत्व परिवर्तन का नेगीशियेशन का अधिकार प्राप्त है
  • क्या निर्वाचन इसलिए किया जाता है की सांसद,विधायक अपने नेता के चयन के बाद निर्बाध गति से राज्य के विकास में योगदान करने के बजाए अपनी कुर्सी बचाने में राज्य सत्ता की पूरी ताकत झोंक दें
  • क्या आम जनता ठगा हुआ महसूस करता रहे
  • क्या अपने जीवन की बेहतरी के सपनों को ना उम्मीदी में बदल कर जीवन नष्ट करता जाए और नेताओं की मान मर्यादा पद प्रतिष्ठा आकांक्षा महत्वाकांक्षा और स्वार्थ के संघर्ष का मात्र मूक साक्षी बना रहे.
  • क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ी बेईमानी, भ्रष्ट आचरण,और मतदाता से विश्वासघात के साथ आम जनता को धोखा देना नहीं

यदि कोई विवाद निर्वाचित सांसदों में ,विधायकों में है या नेतृत्व पर संकट है या नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत है या आम जन में नेतृत्व के प्रति आक्रोश है तो इसका निर्णय सांसद, विधायक दल की बैठक में क्यों नहीं या वैधानिक सभा के अंतर्गत क्यों नहीं किया जाता क्या इस देश में राजनीतिक पार्टियां या राजनीतिक पार्टियों को संचालित करने वाली अन्य संस्था अब विधायक या सांसदों के अधिकारों का प्रयोग खुद करने लगी है, क्या राजनीतिक दल के नेता अब संवैधानिक पद पर लोगों को बिठाना चाहते हैं उसके पीछे का कारण क्या है, कि व्यवस्था को बीच में भंग कर बाधा डालकर नेतृत्व परिवर्तन किया जाए और नेतृत्व परिवर्तन की मांग करने वाले समूह को यह बात क्यों समझ नहीं आती और राजनीतिक दल के नेता निर्वाचन के बाद पदों का बंटवारा किन शर्तों के आधार पर करते हैं, जिससे बाद में आम जनता , राजनेता और राजनीतिक दलों के बीच रहस्य बना रहता है और चलने वाली सरकार किसी भय और अस्थिरता के भय से निर्भीक होकर काम नहीं कर पाती जिसका खामियाजा आम जनता पर पड़ता है.

राजनैतिक वैमनस्यता पार्टी के अंदर ही बढ़ती जाती है और पार्टियां कमजोर होती जाती है. पद पर आसीन लोग अपनी कुर्सी बचाने की जुगाड़ में आम जनता के प्रति अपने दायित्व और कर्तव्य को पूरा नहीं कर पाते. आमजन जिन्होंने अपने बहुमूल्य मतदान का उपयोग कर प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया है. वह ठगा सा महसूस करते हुए राजनीतिक उलझन के शिकार हो जाते हैं. यह कदापि उचित नहीं की कोई राजनीतिक दल नागरिकों के मतदान से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अधिकारों का उपयोग करें और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के द्वारा सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय को राजनीतिक पार्टी के शीर्ष नेताओं के द्वारा बदल दिया जाए या बदलने का प्रयास किया जाए या किन्ही शर्तों के अधीन समय का बंटवारा कर दिया जाए कदापि उचित और जनहित में भी नहीं.

कई राज्यों में पार्टीयों के द्वारा, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की स्वार्थ पूर्ण अति महत्वाकांक्षा, और नेतृत्व की होड़ ने कई राज्यों को राजनैतिक अस्थिरता के दौर से गुजार दिया है जिसका खामियाजा लोकतंत्र की बुनियाद नागरिकों, और देश की आम जनता को भोगना पड़ता है.

अब मात्र सत्ता की होड़ में लगे राजनेता, जनता की परवाह नहीं करते, इतिहास गवाह है. पहले सत्ता प्राप्त हुई ज्ञान बल से, फिर सत्ता बाहुबल से, फिर सत्ता धन बल से, फिर सत्ता छल बल से, फिर सत्ता धोखाधड़ी से, अब सत्ता दलबदल, खरीद फरोख्त से,राजनैतिक स्तर निम्नतर होता जा रहा है. लोकतंत्र के नाम पर राजनैतिक दल एकाधिकार स्थापित करने में लगा है. राष्ट्रीय राजनैतिक विचारधारा ,कूटनीति के भेंट चढ़ गया है, यही कारण है कि स्वार्थहीत ने जनहित को नजरअंदाज कर दिया है. अब समय आ गया है कि भ्रामक, विकास में बाधाक परिस्थितियों को साफ किया जाना जनहित में होगा. जय हिन्द

लेखक- त्रिभुवन सिंह
जन अधिकार परिषद छत्तीसगढ़