अमेरिका तथा यूरोपीय देश यथा इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन आदि में कोरोना महामारी की भयावहता देख-सुनकर आत्मा कांप उठती है। निःसंदेह भारत की घनी आबादी, बस्तियों का जुड़ाव आदि देखते हुए इस महामारी की विकरालता को तुलनात्मक रूप से नियंत्रित व सीमित करने में भारत सफल रहा है। इसके लिए जहां शासन-प्रशासन अभिनंदन का पात्र है, वहीं दूसरी ओर डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, नगर प्रशासन के अधिकारी-कर्मी, पुलिस के लोग तथा मीडियाकर्मी आदर के पात्र हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इनकी सेवा, समर्पण व त्याग को प्रणाम करता है।
इस वायरस के विरुद्ध संघर्ष में प्रधानमंत्री के आह्वान पर पूरा देश एकजुट रहा, यह भी गौरव की बात है। अपने देश में इस वायरस से पीड़ित लोगों में 67 प्रतिशत भाग दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात व तमिलनाडु प्रांतों का है। इनमें भी अधिकांश संख्या मुम्बई, अहमदाबाद, दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद, कलकत्ता, इंदौर, आदि महानगरों की है। किन्तु पूर्वोत्तर के प्रांतों सहित असम, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, ओड़िशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे पर्वतीय व वनाच्छादित प्रांतों में पीड़ित संख्या तो तीन इकाई तक ही सीमित है अर्थात ज्यादा प्रदूषित प्रांत व नगर में इस महामारी की मार दर्दनाक है। इस स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए, भविष्य के भारत की आर्थिक आधारशिला खड़ी करनी चाहिए।
देश में प्रथम लॉकडाउन की घोषणा करते हुए माननीय प्रधानमंत्री ने निवेदन किया था कि जो जहां है, वहीं रहे। सभी नियोक्ता व उद्योगपति श्रमिकों को बिना काम के वेतन देवें। उन्होंने यहां तक कहा कि मकान मालिक भी न मकान खाली करवायें और न किराया लेवें । प्रदेश की सरकारें इन आदेशों का सुनिश्चित करवायें तथा श्रमिकों को भोजन उपलब्ध करायें। कुछ प्रदेशों की सरकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। वे सरकारें शायद मजदूर को बोझ समझ रही थीं, परिणामस्वरूप दिल्ली के बस स्टैंड व मुम्बई के रेल्वे स्टेशन पर श्रमिकों का मेला लगा रहा। यदि मजदूरों की उनके स्थानों पर निवास व भोजन आदि की व्यवस्था हो जाती तो परेशान मजदूरों का परिवार को साथ लेकर, बच्चे को कंधों में उठाकर 1000-1200 किमी पैदल चलने का दर्दनाक सिलसिला देश को देखने के लिए नहीं मिलता।
प्रांतों की सरकारों ने श्रमिकों को उनके मूल प्रांतों में भेजने के लिए विशेष श्रमिक रेलगाड़ी चलाने के लिए केन्द्र से आग्रह किया। जब केन्द्र की सरकार 85 प्रतिशत रेल भाड़ा दे सकती है, देशभर के क्वारेंटाइन होम में रुके प्रवासी मजदूरों को रोज तीन बार मुफ्त भोजन दे सकती है, तो प्रांतीय सरकार के आग्रह पर श्रमिकों को उनके कार्य स्थल पर भी भोजन आदि के लिए राज्य सरकारों को पैकेज दे सकती थी। अर्थात इसे निर्धारित योजना के विपरीत जल्दबाजी में लिया गया निर्णय कहा जा सकता है। जहां एक ओर इस चूक का दुष्परिणाम गांव-गांव में कोरोना वायरस के फैलाव का खतरा देश को उठाना पड़ेगा, वहीं दूसरी ओर उनके कार्य-स्थल पर उद्योग-धंधों को मजदूरों का अभाव रहेगा, जो भारत के अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट होगी। बढ़ती हुई वैश्विक महामारी का पूरा देश एकजुट होकर और राजनीति के किन्तु-परन्तु से ऊपर उठकर मुकाबला करे, यह समय की आवश्यकता है। इसे भविष्य के भारत-निर्माण के अवसर के रूप में देखना चाहिए। अपनी विकास नीति, उद्योग नीति व श्रम नीति की समीक्षा करने का यह एक सुअवसर भी है।
पश्चिम के विकास मॉडल के कारण देश को अधिकतम रोजगार देने वाले मध्यम लघु व कुटीर उद्योग समाप्त हो गये और हमारे हाथ आया, जानलेवा प्रदूषण व बेरोजगारी तथा बैंकों को डुबाने वाली अर्थव्यवस्था; दूसरी ओर चीन ने कुटीर, मध्यम, लघु उद्योग को तकनीक उपलब्ध कराके भारत के बाजार पर कब्जा कर लिया। हमारा कितना दुर्भाग्य कि हम चीन से खिलौना, घड़ी, टार्च, रंग आदि भी आयात करते हैं! भारत में क्या 18 वीं सदी व उसके पूर्व लोहा, कपड़ा, सीमेन्ट (चूना) नहीं था? यदि नहीं थी तो मात्र आधुनिक तकनीक, फिर भी प्रत्येक गांव स्वावलंबी था तथा व्यक्ति व समूह के लिए कुछ-न-कुछ काम था। आज तो दुर्भाग्य से जनसंख्या का एक बड़ा भाग मात्र सरकार पर ही निर्भर है। पुरुषार्थहीन नागरिकों की बड़ी फौज हम खड़ी कर रहे। हमें धीरे-धीरे इस कार्य-संस्कृति व राजनीति से बाहर निकलना पड़ेगा ।
अभी भी धरती (कृषि व वन) का जीडीपी में बड़ा हिस्सा है और ये क्षेत्र ज्यादा रोजगार देने वाले हैं। खाद्य व वनोपज आधारित विभिन्न छोटे-छोटे प्रसंस्करण-उद्योगों को प्राथमिकता में रखना पड़ेगा। यह आनंद की बात है कि केन्द्र सरकार ने अभी-अभी इसकी घोषणा भी की है। भारत अकेले विश्व को शक्कर, कपड़ा, दवाइयां, लोहा, सीमेंट आदि की पूर्ति कर सकता है। एक ओर जहां आवश्यकता है प्रकृति से सुसंगत कम ऊर्जा-भक्षी व कम पूंजी वाली विकेन्द्रीकृत उद्योग नीति की, वहीं दूसरी ओर श्रमिकों को प्रोत्साहित करने वाली, शोषण से मुक्त रखने वाली तथा उन्हें सम्मान देने वाली श्रम नीति की। ‘चाहे जो भी मजबूरी हो, हमारी मांग जरुरी है’ -इस नीति का तिरस्कार करने वाली श्रम नीति बने, क्योंकि इससे देश को भारी नुकसान हुआ है।
इधर, प्रवासी श्रमिकों पर एक नजर डालने पर यह स्पष्ट होता है कि उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ से मजदूरों की ज्यादा संख्या रोजी-रोटी के लिए महानगरों में गई है, उसमें भी पहला एवं दूसरा क्रमांक बिहार व उत्तरप्रदेश का है। इसका कारण संभवत: वहां की घनी जनसंख्या है। परंतु मेरी दृष्टि में यह एकमेव कारण नहीं है। मुझे ऐसा महसूस होता है कि इन प्रांतों में जो डेयरी, चमड़ा, केमिकल, चूड़ी, ताला आदि के लघु व कुटीर उद्योग थे, जिन्हें परतंत्रता काल में नष्ट किया गया था, उनका स्वतंत्र भारत में समुचित विकास नहीं हुआ और यही वहां के मजदूरों की गरीबी का कारण बना। शायद सामान्य जनों के पास कृषि भूमि भी नहीं थी, तथा बड़े व मझले उद्योगों में इनका कोई स्थान नहीं था।
कोरोना संक्रमण के इस दौर में अब अपने गृह प्रदेशों को लौट रहे इन श्रमिकों को इस प्रकार के कुटीर व लघु उद्योग में लगाना चाहिए। जैसे पिछले दिनों माननीय प्रधानमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र में बुनकर उद्योगों को प्रोत्साहित किया। चूंकि कृषि ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, इसलिए भूमिहीन लोगों को कृषियोग्य भूमि पट्टे पर देनी चाहिए तथा उस पर बिजली-पानी की निःशुल्क व्यवस्था सरकार की ओर से की जानी चाहिए। झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में खाद्य व वनोपज आधारित छोटे-छोटे प्रसंस्करण इकाइयों का जाल फैला देना चाहिए। यह भी देखने में आता है कि यहां स्थापित उद्योगों में स्थानीय व्यक्तियों को काम पर नहीं रखा जाता है क्योंकि उनका मानना है कि स्थानीय व्यक्ति ईमानदारी से काम नहीं करते हैं, अतः ऐसी श्रम नीति बने कि उद्योगों में तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में स्थानीय व्यक्तियों को ही अवसर मिले ।
लेखक
प्रांत संघचालक : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (छत्तीसगढ़ प्रांत)