रूपेश गुप्ता, रायपुर। दिग्विजय सिंह 17 साल पहले तक छत्तीगसढ़ के मुख्यमंत्री थे. विभाजित मध्यप्रदेश में वे तीन साल और मुख्यमंत्री रहे. लेकिन इन तीन सालों में वे मध्यप्रदेश बहुत ही अलोकप्रिय हो गए. उनकी अलोकप्रियता का आलम है कि जिस राज्य में उन्होंने दस साल मुख्यमंत्री के तौर पर बिताया है उस राज्य में कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता और कार्यकर्ता उन्हें अगले विधानसभा चुनाव से अलग रखना चाहते हैं. जबकि छत्तीसगढ़ में वे अलोकप्रिय होते उससे पहले नया राज्य बन चुका था नये मुखिया अजीत जोगी कमान संभाल चुके थे।

मध्यप्रदेश में सत्ता जाने के बाद दिग्गी राजा जनता और संगठन में अपनी पकड़ कमज़ोर कर रहे हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ के हालात दूसरे है. यहां राज्य के राजनीतिक हालत में दिग्विजय सिंह की जरुरत यहां के कई नेता महसूस कर रहे हैं. इसकी बानगी 25 मई को देखने को मिली. जब कांग्रेस के नेता सुभाष धुप्पड़ ने शरणागत होकर कहा राजन हमें संरक्षण दो !

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि माइनस जोगी राज्य के जिनते भी कांग्रेस के प्रमुख नेता पार्टी में हैं. वे सभी दिग्विजय सिंह के आदमी हैं. प्रदेश अध्यक्ष हों या फिर नेता प्रतिपक्ष, छत्तीसगढ़ में दोनों पद के लिए आज भी उनकी ही मर्ज़ी चलती है. इसी बात से खिन्न होकर पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जब दिग्विजय सिंह प्रदेश कांग्रेस के कार्यक्रम में आए थे तो जोगी ने कह दिया था कि राज्य में छत्तीसगढ़ियों की राजनीति चलेगी किसी गढ़ वाले की नहीं. उनका इशारा दिग्विजय सिंह की ओर था क्योंकि वो जानते थे कि रायपुर के लिए पत्ते भोपाल और दिल्ली में बैठकर दिग्विजय सिंह ही फेंटा करते है.

 

हांलाकि अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह की छाया से भी पार्टी को दूर रखा. लेकिन जब जोगी का राज खत्म हुआ तो एक एक करके सारे नेता फिर से दिग्गी राजा के पीछे हो लिए. एक जमाने में जो लोग विद्याचरण शुक्ल या श्यामाचरण शुक्ल के खेमे के थे वे भी अपने नेता का प्रभाव कम होने के बाद दिग्गी कैंप के आदमी बन गए.

 

शायद इसीलिए 26 मई नंदकुमार पटेल के बेटे उमेश पटेल को अपने पिता की प्रतिमा का अनावरण करना था तो उन्हें दिग्विजय सिंह ही याद आए. 25 जून को जब दिग्विजय सिंह खरसिया गए तो छत्तीसगढ़ का ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं होगा तो उनका साथ पाने की हरसत लिए खरसिया नहीं गया. इसलिए अगर एयरपोर्ट पर महंत खेमे के विश्वसनीय सुभाष धुप्पड़ दिग्विजय सिंह से कहते हैं – ‘हे ! राजन हमें संरक्षण दो’- तो इसकी बहुत सारी वजहें नज़र आती हैं.तो इसके पीछे की वजहों को जानना ज़रुरी हो जाता है.

दरअसल, राज्य में कांग्रेस इस समय कई तरह के संकट के दौर से गुजर रही है. सबसे बड़ा, संकट लंबे समय से सत्ता से दूर रहने का है. 13 साल बाद पार्टी में कोई नेता नहीं दिखता जो रमन सिंह की शख्सियत को चुनौती दे सके. और जिसे बलरामपुर से कोंटा तक जनता पहचानती हो. चाहे चरणदास महंत हो, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बघेल या टीएस सिंहेदव, सब अपने-अपने क्षेत्र के नेता हैं. जबकि रमन सिंह को मुख्यमंत्री के नाते प्रदेश का बच्चा-बच्चा जानता है.

कांग्रेस पार्टी के अंदरखाने बड़े नेताओं के बीच मतभेद की खबरें भी अब किसी से छिपी नहीं है. जोगी विरोध के चलते सभी नेता एकजुट हो गए थे. लेकिन जोगी के पार्टी से जाते ही सब फिर गुटों में बंट गए. सभी नेता एक दूसरे की शिकायतें आलाकमान तक लगातार पहुंचा रहे हैं. ऐसे हालात में कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जिसकी स्वीकार्यता सभी गुटों में हो. अजीत जोगी द्वारा नई पार्टी बनाए जाने के बाद हालात और बिगड़ने की आशंका कार्यकर्ताओं को आशंकित कर रही है. इन सारी बातों का असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ रहा है.

ऐसे हालात में जिम्मेदारी प्रदेश प्रभारी महासचिव के कंधों पर आ जाती है. लेकिन प्रदेश का वर्तमान नेतृत्व प्रभारी महासचिव बीके हरिप्रसाद के साथ ही कंफर्ट है. बाकी नेता और कार्यकर्ताओं का जुड़ाव वैसा नहीं है. हरिप्रसाद कड़े तेवर वाले नेता हैं, पिछले चुनाव तक उनकी सक्रियता ऐसी थी कि कार्यकर्ता उनके कड़े तेवर सहकर भी पूरी ऊर्जा के साथ उनके साथ भिड़े रहते थे. लेकिन जिस तरीके से पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से हरिप्रसाद ने अपने आप को सीमित कर रखा है. वो बात कार्यकर्ताओं को परेशान करती है.

जब राज्य में पार्टी नेताओं के बीच आपसी खींचतान मची हो, मुकाबला और कड़ा होने वाला हो, समीकरण पार्टी के हक में न हों तो प्रभारी महासचिव  की भूमिका बढ़ जाती है. लेकिन लगता नहीं कि हरिप्रसाद अब उस ऊर्जा और दिलचस्पी के साथ काम कर रहे हैं जो पिछले चुनाव तक दिखता था.2013 के विधानसभा चुनाव से पहले हरिप्रसाद हर हफ्ते छत्तीसगढ़ आते थे. लेकिन यहां चुनाव क्या हारे राज्य में हरि दर्शन दुर्लभ हो गए. वे खुद, . वे यहां के प्रभारी के पद से हटने की इच्छा भी जता चुके हैं और इस्तीफा भी दे चुके हैं.

लेकिन माना जा रहा है कि नए विकल्प के सामने न आने तक उन्हें काम संभालना पड़ रहा है. कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन में बदलाव का इंतज़ार पूरी पार्टी को है. कुछ नेता मानते हैं कि संकट यह है कि बदलाव के बाद महासचिव पद का दायित्व किसी नए नेता को अगर दिया जाता है तो उसे काम शून्य से करना होगा और फिर उसके पास वक्त कम पड़ जाएगा. जाहिर है महासचिव पद के लिए राज्य कांग्रेस को ऐसे नेता के की जरुरत है तो पहले से नेताओं से वाकिफ हो और जो कम समय में पार्टी को एकजुट रखने के साथ कार्यकर्ताओं में ताकत भर दे.

इन तमाम ज़रूरतों को पूरा करने में वैसे तो दिग्विजय सिंह सबसे फिट बैठते हैं. हांलाकि कई नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि इस बात की संभावना न के बराबर है क्योंकि छत्तीसगढ़ के साथ मध्यप्रदेश के चुनाव हैं. लिहाज़ा उन्हें अपने राज्य को देखना है. वहां प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक की अहम जिम्मेदारी दिग्वजिय सिंह के कंधों पर रहेगी और आपसी खींचतान कम होगी.

इसके अलावा, इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दिग्वजिय सिंह फिर से महासचिव न बनाया जाए. दिग्विजय सिंह ने भी रायपुर में साफ कह दिया है कि वे छत्तीसगढ़ के महासचिव बनने के इच्छुक नहीं हैं. उसकी बड़ी वजह है कि दो बार के बड़े राज्य के मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय कांग्रेस के रणनीतिकार क्यों एक छोटे से राज्य तक सीमित रखना चाहेंगे.

लेकिन रायपुर -भोपाल से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस की राजनीति को जानने वाले एक कांग्रेसी की माने तो कांग्रेस के भीतर के जो सियासी समीकरण जो बनते दिख रहे हैं. उसमें दिग्विजय सिंह की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है. मध्यप्रदेश में ये बात मोटे तौर पर तय हो चुकी है कि दिग्विजय सिंह की भूमिका अब सीमित रहेगी. राज्य की कमान कभी भी कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिल सकती है. कमलनाथ का तो बंगला प्रदेश की कमान संभालने के लिए तैयार भी हो रहा है. दोनों में से कमान किसी भी नेता को मिले, कोई भी नहीं चाहेगा कि जब कमान उनके हाथ में हो तो वहां दिग्विजय का कोई दखल हो.

अगर पार्टी ज्योतिरादित्य या कमलनाथ को कमान देती है.  दिग्विजय सिंह को मध्यप्रदेश से बाहर रखना होगा. जानकार मानते हैं कि ऐसे हालात में उनके कद और अनुभव को देखते हुए छत्तीसगढ़ में सेट कर दे तो इसका पार्टी को दोहरा फायदा हो सकता है. चर्चा है कि इस बारे में प्रदेश के एक बड़े नेता राहुल गांधी से यह मांग भी कर चुके हैं. लेकिन दिग्विजय सिंह जिस तरीके से गोआ में जीत के बाद भी कांग्रेस की सरकार नहीं बनवा पाए उससे उनकी रणनीतिक कौशलता वाली छवि फीकी पड़ी है. तो क्या दिग्विजय को लेकर पार्टी ऐसे राज्य में दांव लगाएगी जहां सत्ता का फैसला महज़ दशमलव कुछ फीसदी से छिटक रही हो.

 

छत्तीसगढ़ के लिए कार्यकर्ता कोई ऐसा महासचिव चाहते हैं जो यहां कार्यकर्ताओं को पहचानता है. कुछ कार्यकर्ता चाहते हैं कि भक्त चरणदास को प्रमोट करके प्रभारी महासचिव बनाया जाए. तो कुछ मुकुल वासनिक से प्रभावित दिखते हैं. और जो चुनावी राजनीति को करीब से जानते हैं वे चाहते हैं कि दिग्विजय सिंह को ही कमान दी जाए. हांलाकि एक बड़े नेता किसी युवा चेहरे को महासचिव बनाने के हक़ में है ताकि टिकट बंटवारे में उन्हें ज्यादा दिक्कत न हो.

हांलाकि जानकार मानते हैं कि दिग्विजय सिंह के महासचिव बनाने भर से पार्टी मुकाबले में आ जाएगी. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि छत्तीसगढ़ में दिग्विजय सिंह से बाहर कुछ नहीं है. सभी नेता उनके बनाए हैं. चरणदास महंत, भूपेश बघेल, टीएस सिंहेदव, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू सब दिग्विजय कैंप के हैं. दिग्गी राजा के रहते सारी गुटबाज़ी खत्म हो जाएगी. इसकी बानगी अक्सर उनके छत्तीसगढ़ दौरे पर दिखती है जब वे आते हैं गुटों में बंटी कांग्रेस एक साथ खड़ी दिखती है. मुख्यमंत्री रहते दिग्वजिय सिंह प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान चुके हैं. इस लिहाज़ से आवाम में वे जाना पहचाना नाम है. इससे पहले केवल कांग्रेस में अजीत जोगी ही ऐसे नेता थे जिन्हें सब जगह पहचाना जाता था, अब वो भी नहीं हैं.

दिग्विजय सिंह रणनीतिक कौशल में भी माहिर हैं. दिग्विजय सिंह छत्तीसगढ़ में हर कांग्रेस कार्यकर्ता को पहचानते हैं. ये भी याद रखना होगा कि मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह दूसरी बार छत्तीसगढ़ की वजह से ही जीते थे. उन्हें ये बखूबी मालूम है कि यहां किसे क्या काम सौंपना है. वे घर से काम करने वाले कांग्रेसी को निकालकर लगाने की क्षमता रखते हैं. पार्टी के एक नेता के मुताबिक उनके आने से जुटी भीड़ ही पार्टी  कार्यकर्ताओं को चार्ज करने के लिए काफी है.

जिन दो मामलों में राज्य की कांग्रेस कमज़ोर दिखती है दिग्विजय सिंह उसे भी दुरुस्त कर सकते हैं. राज्य के नौकरशाह मध्यप्रदेश से आए हैं. वरिष्ठ नौकरशाहों के दिग्विजय सिंह से संबंध ठीक-ठाक हैं. चुनाव में इन नौकरशाहों की भूमिका अहम होती है. इसके अलावा वे आसानी से चुनावी संसाधन भी जुटा लेंगे. इन सारी बातों को कार्यकर्ता बखूबी समझ रहा है. इसलिए वो दिग्विजय सिंह के सामने शरणागत है.

हांलाकि कार्यकर्ताओं की इस इच्छा में कई इफ और बट हैं. सबसे पहले तो समझना होगा कि दिग्गी राजा खुद क्या चाहते हैं. हांलाकि सच ये है कि खुद दिग्विजय सिंह  को इस तरह के राजनीतिक जीत की दरकार है. उम्र के इस दौर में लगातार असफलाओं के दाग को धोने का ये उनके पास एक अच्छा अवसर बन सकता है. दूसरी बात एक जीत न सिर्फ उन्हें सक्रिय रखने के लिए ज़रूरी है बल्कि उनके बेटे को स्थापित करने के लिहाज़ से जरुरी है.

लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी है आलाकमान का रुख.  ये भी देखना होगा कि छत्तीसगढ़ से पहले मध्यप्रदेश में आलाकमान उनकी भूमिका को सीमित करता है या नहीं. अगर सीमित की जाती है तो फिर इस मसले पर आलाकमान का क्या रुख रहता है. जब तक इस मसले पर ठोस फैसला नहीं आता तब तक कयासों का बाज़ार गर्म है.

(यह लेखक के निजी विचार हैं)