रायपुर। राजधानी के अंबेडकर अस्पताल में भर्ती 17 वर्षीय युवक, जो कि मायस्थेनिया ग्रेविस का मरीज था. डॉक्टरों ने उसका सफल ऑपरेशन कर नया जीवन दिया है. यह सफल ऑपरेशन कार्डियोथोरेसिक, वैस्कुलर सर्जन एवं विभागाध्यक्ष डॉ. कृष्णकांत साहू और उनकी टीम ने किया है. ऑपरेशन के बाद मरीज 42 दिनों तक वेंटिलेटर में था.

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रायपुर के गुढ़ियारी क्षेत्र का रहने वाला 17 वर्षीय मुकेश पटेल जो कक्षा दसवीं का छात्र है. उसे 10 महीने पहले थकान और कमजोरी की शिकायत हुई. धीरे-धीरे कमजोरी इतनी ज्यादा हो गई कि वह अपनी आंख बड़ी मुश्किल से ही खोल पाता था. खाना भी नहीं खा पा रहा था. कुछ दिनों तक यह बीमारी उसको समझ में नहीं आई. सांस लेने और चलने में परेशानी आने पर मरीज को अंबेडकर अस्पताल के मेडिसिन विभाग में ले जाया गया, जहां पर डॉ. आर. के. पटेल ने छाती का सिटी स्कैन कराया, तो पता चला कि मरीज के छाती के अंदर हृदय के ऊपर थाइमस ग्रंथि में कैंसर है. जिस कारण उसको मायस्थेनिया ग्रेविस की बीमारी हो गई है. उसके बाद मरीज को डॉ. कृष्णकांत साहू विभागाध्यक्ष हॉर्ट चेस्ट एंड वैस्कुलर सर्जरी के पास भेजा गया. उन्होंने बाहर के न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. रितेश साहू से संपर्क कर मरीज की हालत को स्थिर करने के लिए विचार विमर्श किया. उसके बाद ऑपरेशन के लिए योजना बनाई गई.

क्या होता है मायस्थेनिया ग्रेविस ?

इस बीमारी में मरीज की मांसपेशियाँ खासकर आंख, सांस नली फेफड़ा डायफ्रॉम और हाथ पैर की मांसपेशियाँ बहुत ही ज्यादा कमजोर हो जाती है. जिससे बीमारी के प्रारंभ में थकान, चलने में परेशानी और कमज़ोरी आती है. बीमारी बढ़ने पर आंख खोलने और सांस लेने में तकलीफ होने लगती है. यह सब इसलिए होता है, क्योंकि मरीज के शरीर में एक विशेष प्रकार की एंटीबॉडी बननी प्रारंभ हो जाती है, जो हमारे शरीर की मांसपेशियों को क्रियाशील रखने वाली न्यूरोट्रांसमीटर्स जिसको ऐसीटाइलकोलीन कहा जाता है. यह न्यूरोट्रांसमीटर एक विशेष प्रकार के रिसेप्टर से जुड़कर मांसपेशियों में संकुचन पैदा करता है. उस रिसेप्टर को यह एंटीबॉडी नष्ट कर देता है. जिससे मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती है. यह बीमारी थाइमस ग्रंथि के कैंसर वाले मरीज़ों में अक्सर होता है. यह बीमारी एक लाख लोगों में से 0.3 लोगों में होता है.

ऐसे हुआ मरीज का इलाज

यह ऑपरेशन बहुत ही हाई रिस्क था, क्योंकि यह ट्यूमर हृदय के ऊपर स्थित था. महाधमनी और फेफड़े की धमनियों से चिपका हुआ था. मरीज की छाती को बीच से खोलकर हॉर्ट के ऊपर स्थित ट्यूमर को निकाला गया. लगभग 12x10x6 सेमी. का यह ट्यूमर लगभग 800 ग्राम का था. ऑपरेशन के बाद मरीज को वेंटिलेटर पर रखा गया, लेकिन मांसपेशियाँ कमजोर होने के कारण कई प्रयासों के बाद भी वेंटिलेटर से बाहर नहीं निकाल पा रहे थे. चार दिनों बाद मरीज के गले में स्थित सांस नली में छेद (tracheostomy) करके वेंटिलेटर को लगाया गया. मरीज के शरीर में स्थित एंटीबॉडी को निकालने के लिए प्लाज्माफेरेसिस करवाया गया. छत्तीसगढ़ में पहली बार इस बीमारी के लिए प्लाज्माफेरेसिस (plasmapheresis) का प्रयोग किया गया. करीब 5 चक्र प्लाज्माफेरेसिस हुआ. हर दूसरे दिन मरीज को एंबुलेंस द्वारा डी केएस हॉस्पिटल ले जाया गया. प्लाज्माफेरेसिस नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. आर. के. साहू और टीम द्वारा किया गया. यह बहुत ही चुनौती पूर्ण कार्य था क्योंकि अभी तक मेडिकल कॉलेज में इस तकनीक का उपयोग नहीं किया गया था.

इस योजना से हुआ निःशुल्क इलाज

प्लाज्माफेरेसिस तकनीक से किसी भी मरीज का इलाज एक बहुत ही खर्चीली प्रक्रिया है, लेकिन इस मरीज का इलाज शासन की डॉ. खूब चंद बघेल स्वास्थ्य सहायता योजना के अंतर्गत किया गया. मरीज को इस योजना का लाभ दिलाने में स्वास्थ्य सहायता योजना के नोडल ऑफिसर डॉ. श्रीकांत राजिमवाले और अंबेडकर अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. विनित जैन का बहुत बड़ा योगदान रहा. इन सब उपायों के बाद मरीज 42 दिनों बाद वेंटिलेटर से बाहर आया.

इस मरीज के ऑपरेशन से पूर्व और ऑपरेशन के बाद यानी प्री ऑपरेटिव, पोस्ट ऑपरेटिव केयर में मेडिकल कॉलेज अस्पताल के सभी विभागों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही. फिजियोथेरेपी विभाग, एनेस्थेसिया और क्रिटिकल केयर विभाग, रेडियोलॉजी विभाग, पैथोलॉजी विभाग, मेडिसीन विभाग, नेफ्रोलॉजी विभाग एवं नर्सिंग स्टॉफ के सहयोग से मरीज को सामान्य स्थिति में लाने में मदद मिली. मरीज को नली (feeding tube) के सहारे खाना दिया जाता था जिसका ध्यान एसीआई की डाइटिशियन नेहा जैन ने रखा. कुल मिलाकर यह टीम वर्क का बहुत अच्छा उदाहरण है. आज यह मरीज अपने पैरों पर चलकर इस अस्पताल से डिस्चार्ज होने जा रहा है.