वैभव बेमेतरिहा, रायपुर। मरवाही...छत्तीसगढ़ का वो इलाका जो राजनीतिक लिहाज से प्रदेश और देश में सबसे चर्चित रहा है और आज भी है. इस इलाके को छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय अजीत प्रमोद कुमार जोगी के गढ़ के रूप में जाना जाता है. लेकिन मरवाही है कैसा ? कैसा होना चाहिए था ? कैसा हो सकता है ? मरवाही के लोगों की अपेक्षाएं कितनी पूरी हुई और कितनी अधूरी रही ? इसे जानने, देखने और समझने की एक कोशिश मैंने की है. यह अवसर मुझे मरवाही उपचुनाव में रिपोर्टिंग के दौरान मिला. करीब सप्ताह भर मरवाही दौरे के दौरान मरवाही में जितना मैं घूम सका, लोगों से मिल सका, जान सका उसी को यहाँ पर आपसे सबसे साझा कर रहा हूँ….जैसा मैंने मरवाही को देखा….

छत्तीसगढ़ के पश्चिमी-उत्तरी छोर में नवगठित जिला गौरेला-पेंड्रा-मरवाही में मरवाही एकमात्र विधानसभा क्षेत्र है. फरवरी 2020 में मरवाही विधानसभा बिलासपुर जिले के विभाजन के साथ ही गौरेला-पेंड्रा-मरवाही में चला गया. लेकिन इस जिले की एक रोचक जानकारी यह है कि गौरेला-पेंड्रा-मरवाही तीन अलग-अलग शहर और गाँव हैं, इन तीनों के नाम पर जिला एक है. इसमें गौरेला और पेंड्रा नगर पंचायत है, जबकि मरवाही पाँचवी अनुसूची क्षेत्र में शामिल ग्राम पंचायत है. इस जिले से जुड़ी एक और रोचक जानकारी यह भी है कि गौरेला-पेंड्रा अलग जिला होने के बाद भी बिलासपुर जिले के कोटा विधानसभा क्षेत्र में आता है.

इन रोचक भौगोलिक जानकारियों के बाद आइये सबसे पहले मैं आपको इलाके के उस ऐतिहासिक गौरव-गाथा सुनाता हूँ जिसके बारे में ज्यादातर लोग जानते ही होंगे, लेकिन वर्तमान में हालात क्या है वह मैं आपको इस संस्मरण के जरिए दिखाने की कोशिश करता हूँ.

दरअसल मरवाही उपचुनाव के दौरान मैं 29 अक्टूबर से 4 नवंबर तक मरवाही में रहा. इस दौरान मैं गौरेला-पेंड्रा-मरवाही के कई जगहों पर गया, पेंड्रा से मनेन्द्रगढ़ और गौरेला से अमरकंटक तक दौरा भी किया. इस दौरे में मैंने जो कुछ देखा वहीं यहाँ बता रहा हूँ, सुना रहा हूँ, दिखा रहा हूँ…

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पेंडारी(लुटेरे) और गढ़ी

गौरेला-पेंड्रा-मरवाही का इलाका छत्तीसगढ़ के 36 गढ़ों में से एक गढ़ है. रियासत काल में पेंड्रा जमीदारी रतनपुर राज के अंतर्गत आता था. पेंड्रा में रियासत कालीन निशानियाँ आज भी देखीं जा सकती हैं. आजाद भारत के पूर्व पेंड्रा का सही नाम था पेंडरा. इतिहास के मुताबिक पेंडरा में पेंडारी(लुटेरों) का आतंक था. पेंडारियों की मौजूदगी होने के चलते ही इस इलाके का नाम पेंडरा पड़ा था. पेंड्रा में आज भी जमीदार का परिवार निवासरत है. पुराना महल और मंदिर भी है. महल के ज्यादातर हिस्से खंडहर होते जा रहे हैं. जहाँ महल है उस इलाके को वर्तमान में गढ़ी कहा जाता है. बताते हैं कि गढ़ी के इसी महल में माधव राव सप्रे बतौर शिक्षक राजपरिवार के बच्चों को शिक्षा देने आते थे. हालांकि महल में वह स्थान कहाँ पर इसकी कोई जानकारी वास्तविक रूप में अब नहीं मिलती.


माधव राव सप्रे और पत्रकारिता

माधव राव सप्रे…छत्तीसगढ़ के वो महान विभूति हैं जो छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के जनक कहे जाते हैं. वो महान विभूति जिन्होंने पेंड्रा में रहकर हिंदी की पहली कहानी टोकरी भर मिट्टी लिखी. दरअसल पेंड्रा की पहचान प्रदेश ही न ही देश में सालों से ही शिक्षा और साहित्य के गढ़ के रूप में रही. उन्होंने सन् 1900 में पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र  नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन कर प्रदेश में पत्रकारिता की नींव रखी थी. लेकिन दुखद पहलू यह है कि पेंड्रा में माधव राव से जुड़ी स्मृतियों को सहजने का कोई काम मुझे नहीं दिखा. मैंने माधव राव सप्रे के निवास स्थान और छत्तीसगढ़ मित्र के प्रकाशन स्थल को तलाशने की कोशिश भी की, लेकिन सही जानकारी मुझे नहीं मिल पाई. संभव है स्थान आज भी मौजूद हो, पर वह आम लोगों से दूर क्यों है ये सवाल कायम है ? सवाल यह भी कि अगर है तो उसे स्मारक के तौर विकसित करने का काम क्यों नहीं किया गया ?

रवीन्द्र नाथ टैगोर और सैनेटोरियम

इसी तरह से पेंड्रा से महान साहित्यकार गुरुदेव रवीन्द्र टैगोर का भी नाता है. बताते हैं कि रवीन्द्र नाथ टैगोर सन् 1918 के आस-पास पेंड्रा आए थे. वे अपनी पत्नी के इलाज के लिए पेंड्रा आए थे. उनकी पत्नी टीबी रोग से ग्रसित थीं. उस दौर में पूरे देश में टीबी के लिए तीन स्थानों पर ही अस्पताल थे. जिसमें से एक छत्तीसगढ़ का पेंड्रा भी था. पेंड्रा में टीबी का यह अस्पताल सैनेटोरियम के नाम से जाना जाता है. बताया जाता है कि पेंड्रा में टीबी के अस्पताल का निर्माण इसलिए किया गया था, क्योंकि यहाँ सराई के वृक्षों का सघन जंगल रहा. बताते टीबी के इलाज सराई वृक्षों की मौजूदगी वाली जगह पर करना लाभकारी होता है. लेकिन यहाँ भी एक दुखद बात ये है कि एक महान साहित्यकार से जुड़ी स्मृतियों को सहजने का काम इस स्थान पर भी नहीं किया गया. रवीन्द्र नाथ टैगोर जिस बरगद के नीचे बैठकर आराम करते रहे वह वट वृक्ष तो आज भी है, लेकिन अन्य कोई और निशानियाँ नहीं. जरूरी है कि उस जगह को गुरुदेव की याद के रूप में सहेज कर रखी जाए.

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जोगी, पोर्ते और सरकारी स्कूल

पेंड्रा की पहचान में वो सरकारी बहुदेशीय स्कूल भी है, जहाँ से छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी, भाजपा सरकार में मंत्री रहे दिग्गज आदिवासी नेता भंवर सिंह पोर्ते जैसे बड़ी राजनीतिक हस्तियों के साथ ही ढेरों अधिकारी-कर्मचारी, वैज्ञानिक शिक्षित होकर निकले. वर्तमान में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सलाहकार प्रदीप शर्मा, जनसंपर्क आयुक्त तारन प्रकाश सिन्हा, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डॉ. अनुपमा सक्सेना जैसे नाम शामिल हैं, जिन्होने यहाँ स्कूली पढ़ाई पूरी की है. यह स्कूल इलाके प्रथम विधायक मधुरा प्रसाद दुबे के नाम पर है.

आज भी यह सरकारी स्कूल जिले में महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित है. स्कूल भवन बहुत पुराना है इसलिए रख-रखाव में विशेष ध्यान देने की जरूरत है. स्कूल परिसर बहुत ही बड़ा और पीछे एक मैदान है उसे विकसित किया जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ है. स्कूल परिसर में फिलहाल जिन विभूतियों ने पढ़ाई की है, उनके नाम के बोर्ड निकालकर किनारे रख दिए गए हैं. बताया गया कि नए सिरे से लगाएंगे. लेकिन उसमें पूरी जानकारियाँ नहीं मिलती. इस स्कूल में सालों पहले छात्रों ने मिलकर एक स्वीमिंग पुल तैयार किया था. लेकिन दुर्भाग्य है कि स्वीमिंग पुल बंद पड़ा हुआ और रख-रखाव के अभाव में खराब हो रहा है.

पेंड्रा, पठार और अरपा

पेंड्रा से ही बिलासपुर क्षेत्र की जीवनदायिनी अरपा निकली है. लेकिन इसे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि पेंड्रा में उद्गम स्थल के प्रमाण ही गायब. पेंड्रा से लगे अरनपुर गाँव में एक नाला के पास अरपा के उद्गम होने की बात कही जाती है, लेकिन वहाँ जाने पर किसी भी तरह से कोई निशानी नहीं मिलती, सिवाय एक सरकारी बोर्ड के.

दरअसल अमरकंटक में माँ नर्मदा के उद्गम स्थल की तरह अरपा के उद्गम स्थल को भी सहेजने की कोशिश की जानी चाहिए थी, लेकिन वह यहाँ नहीं हुई. आज भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं दिख रहा है. हालांकि अरपा बचाओ संघर्ष समिति की ओर इस पर खूब संघर्ष हुआ, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई है.

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जंगल-पहाड़ और पांडव

पेंड्रा का पूरा क्षेत्र जंगल और पहाड़ से घिरा हुआ है. यह इलाका प्रदेश में एक हिल स्टेशन की तरह है. पर्यटन के लिहाज से यहाँ अपार संभवानाएं दिखती है. फिर चाहे इलाके में राजमेरगढ़ हो, धरमपानी हो, कबीर चबूतरा हो या पांडवों का बीताया अज्ञातवास स्थल. हर जगह घूमने-देखने को बहुत कुछ है, लेकिन इन जगहों पर विकास वर्तमान में कुछ खास दिखा नहीं. पेंड्रा से करीब 8 किलोमीटर दूर धनपुर गाँव की उस पहाड़ी पर भी गया जहाँ बताते हैं कि पांडवों ने अपना अज्ञातवास का एक वर्ष बीताया था. पहाड़ी पर एक गुफा और कुछ प्राचीन मुर्तियाँ बिखरी हुई मिलती हैं. लेकिन पौराणिक, ऐतिहासिक महत्वों या तथ्यों को सहेजने का कोई प्रयास नहीं दिखता.


जोगी का गाँव “जोगीसार”

आइये अब आपको मैं अजीत जोगी का गाँव जोगीसार लिए चलता हूँ. बिलासपुर से रतनपुर-केंदा होते हुए जब केंवची-अमरकंटक मार्ग की ओर आगे बढ़ते हैं, तो सड़क किनारे ही बसा मिलेगा जोगीसार. जोगीसार एक बड़ा गाँव है. गाँव की बस्तियाँ फैली हुई हैं. गाँव में सड़क किनारे कुछ दुकानें हैं, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है, मुख्य मार्ग की सड़क अच्छी है. पेयजल की सुविधा भी है. विकास के अन्य कार्य भी गाँव में दिखे. लेकिन जोगीसार जैसे ही आप पूर्व दिशा में अंदरुनी गाँवों से होते हुए पेंड्रा की ओर आगे बढ़ेंगे तो रास्ते खराब मिलेंगे.


सड़क है कि नहीं…

खराब सड़क की एक बड़ी समस्या पूरे मरवाही इलाके में देखने को मिली. पेंड्रा जैसे ही मरवाही की ओर जाएंगे कुछ किलोमीटर जाने के बाद ही सड़क खराब होती चली जाएगी. दानीकुंडी के बाद मरवाही मार्ग और भी खराब हो जाता है. पेंड्रा से मरवाही की दूरी करीब 40 किलोमीटर है. मतबल 40 किलोमीटर तक सड़क पूरी तरह से खराब है. मरवाही जैसे ही मनेन्द्रगढ़ की ओर बढ़ेंगे कहीं-कहीं कुछ किलोमीटर के पैच में सड़क अच्छी मिल जाती है. हालांकि पेंड्रा से दानीकुंडी जाने का एक बाइपास मार्ग भी है, जिसे देखकर लगता है कि वह सड़क नई-नई बनी होगी. क्योंकि यह सड़क कुछ ठीक और ट्रैफिक से दूर है. मरवाही के आगे कुम्हारी के पास दाएं ओर से एक रास्ता मनेन्द्रगढ़ की ओर भी जाता है. यह रास्ता भी कुछ ठीक है. लेकिन कई जगहों पर खराब भी. अमूमन यही हालात पूरे मरवाही विधानसभा क्षेत्र में देखने को मिल जाता है.

फाइल

खेत हैं पर सिंचाई नहीं 

खराब सड़क की समस्या के साथ मरवाही इलाके में सिंचाई सुविधा की कमी भी देखने को मिली. विशेषकर धान की खेती करने वाले किसान सिंचाई की समस्या गिनाते मिले. यात्रा के दौरान कुछ जगहों पर बांध तो दिखे, लेकिन गाँवों में नहरों का अभाव दिखा. किसान पानी की कमी से चिंतित नज़र आएं. हालांकि पेयजल की व्यवस्था अब धीरे-धीरे सड़क किनारे बसे गाँवों में दूर होती भी दिखी. गाँवों में पानी के टंकी और नल कनेक्शन देखने को मिला. लेकिन जंगल के अंदर गाँवों में ऐसी सुविधाओं को विस्तार नहीं हो सका है. पानी के साथ ही इलाके में बिजली की समस्या भी लोग बताते रहे. लोगों कहना था बिजली ज्यादातर समय जाती ही रहती है.

चुनौतियाँ जो अब भी यही है

सड़क-पानी-बिजली की मूलभूत सुविधाओं से जूझते मरवाही इलाके में स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं बढ़ी तो है, लेकिन अच्छी है यह कहना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा. इलाके में रोजगार की भी पर्याप्त कमी देखने को मिलती है. आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में आदिवासी खेती और वनपोज पर ही निर्भर हैं. युवाओं के सामने बेरोजगारी बड़ी चुनौती है. स्व-रोजगार के साधन में इस इलाके में अधिक देखने को नहीं मिले.

एक नई उम्मीद…

ऐसे में अब गौरेला-पेंड्रा-मरवाही के लोगों को उम्मीद है कि इलाके में एक नया सवेरा होगा. नवगठित जिले के बाद बुनियादी सुविधाओं में तेजी से विस्तार होगा. सड़क, पानी, बिजली की समस्या दूर होंगी. पर्यटन के जरिए रोजगार को बढ़ावा मिलेगा. महान विभूतियों से जुड़ी यादों को सहेजने और संवारने का काम होगा. गौरेला-पेंड्रा-मरवाही का प्रदेश ही देश और विदेश में नाम होगा.