अनिल सिंह कुशवाह. कह सकते हैं मध्य प्रदेश में दबाव की राजनीति नई नहीं है, लेकिन इस तरह बाबाओं के आगे कोई सरकार पहली बार झुकी है। कबीर का एक दोहा है-‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।’ पर मध्य प्रदेश में ‘बाबागिरी’ ने सरकार और बाबाओं के चित्र और चरित्र पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सवाल यह भी है कि इन बाबाओं ने रेत के अवैध उत्खनन और नर्मदा किनारे पौधे गिनने की जो घोषणा कर रखी थी, यदि 6 करोड़ 67 लाख पौधे लगाने में कोई गड़बड़ी थी भी तो सरकार दोषियों पर कार्रवाई करने से क्यों हिचक रही है ? बाबाओं को राज्य मंत्री दर्जा देकर जो आलोचना हो रही है, उससे अच्छा तो सख्त एक्शन लेकर बाजी पलटी भी तो जा सकती थी। लेकिन, ये मौका कैसे चूक गए चौहान ? आखिर सरकार किसे और क्यों बचाना चाह रही है ?
मध्य प्रदेश में न जाने कितनी समितियां हैं, क्या हर समिति के सदस्यों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है ? वैसे सियासत में वही लोग ज्यादा सफल हैं, जो बाबागिरी (दबाव की राजनीति) कर रहे हैं। नहीं तो क्या बालकृष्ण पाटीदार भी मंत्री बन पाते ? वे बालकृष्ण पाटीदार जो मीडिया के सामान्य सवालों के ठीक से जवाब तक नहीं दे सकते। अपने पहले ही बयान में यह कहकर शिवराज सरकार की किरकिरी करा चुके हैं कि किसान टमाटर उगाते क्यों हैं ? दो बार के विधायक बालकृष्ण पाटीदार में फिर ऐसी क्या योग्यता थी कि उन्हें मंत्री बनाया गया ? विधायक रहते उन्होंने एक भी सवाल विधानसभा में नहीं पूछे ? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब अपना अंतिम मंत्रिमंडल विस्तार करने जा रहे थे तो कयास लगाए गए कि आखिरी दौर में ही सही, इस बार तो ‘भाई’ या ‘ताई’ कोटे से इंदौर से कोई न कोई मंत्री बनेगा ही ! लेकिन, अगले दिन बालकृष्ण पाटीदार को शपथ लेता देख खुद बीजेपी के कई नेता आश्चर्यचकित रह गए ! दरअसल, पाटीदार समाज के अध्यक्ष बालकृष्ण की लॉटरी पाटीदारों के किसान आंदोलन के कारण निकली थी. नहीं तो बीजेपी में उनसे सीनियर कई विधायक लम्बे समय से मंत्री पद की शपथ लेने की आस लगाए बैठे हैं. इनमें कुछ तो अब रिटायरमेंट (मार्गदर्शक मंडल) की दहलीज पर हैं. पक्का नहीं कि इस बार इन्हें विधानसभा का टिकट भी मिलेगा या नहीं, या फिर ‘मार्गदर्शक मंडल’ में शामिल कर लिया जाएगा !
जबकि, दबाव में पाटीदारों का लहसुन भी ‘भावन्तर’ में शामिल कर लिया गया और आम किसानों का लाल सुर्ख टमाटर बेमोल रह गया। लहसुन की किस्मत भी सिर्फ उन्हीं 20 जिलों में फिरी, जो पाटीदार बाहुल्य हैं। बाकी जिलों का लहसुन तो टमाटर की कतार में पड़ा रह गया है। ऐसी ही ‘बाबागिरी’ यानी दबाव की राजनीति के चलते ‘प्रमोशन में आरक्षण’ का मसला भी सही ठहराया जा रहा है। भले ही इसकी कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए सरकार को खजाना खाली होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को डेढ़ करोड़ रुपये से ज्यादा की फीस चुकानी पड़ गई हो। जबकि, दूसरा पक्ष इसी चुनौती में जूझ रहा है कि वह ‘माई का लाल’ है कि नहीं !
जो संविदाकर्मी 42 दिन लम्बी हड़ताल कर सरकार से आश्वासन के अलावा कुछ हासिल नहीं कर सके। वहीं शिक्षाकर्मी, कर्मी कल्चर से निकलकर पहले गुरुजी, फिर अध्यापक और अब शिक्षा विभाग में मर्ज होने जा रहे हैं। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जो ‘बाबागिरी’ कर सरकार से अपनी मांगे मनवाने में सफल हो गए या हो रहे हैं। खैर, यहां प्रसंग 5 बाबाओं की ‘बाबागिरी’ का है। नए राज्य मंत्री दर्जा कम्प्यूटर बाबा तो इतनी जल्दी में थे, कि उन्होंने सुबह होने या पेंटर की दुकान खुलने तक का धैर्य नहीं रखा और अपने कम्प्यूटर से ही सादे कागज पर राज्य मंत्री का दर्ज मिलने का प्रिंट निकाल कर लग्जरी कार के फ्रंट ग्लास पर चिपका लिया। लगा जैसे सरकार से कोई डील थी ? ये वही बाबा हैं, जिन्होंने राज्य मंत्री बनाए गए एक अन्य बाबा योगेंद्र महंत के साथ मिलकर रेत के अवैध उत्खनन व नर्मदा के किनारे सरकार के 6 करोड़ 67 लाख पौधों को गिनने के लिए एक अप्रैल से रथ यात्रा शुरू करने का ऐलान कर दिया था। जिसे नर्मदा घोटाला रथ यात्रा नाम दिया गया था। बाबा और उनके चेले आरटीआई भी लगा रहे थे। अगर 6 करोड़ 67 लाख पौधे लगे हैं तो सरकार को फिर कैसा डर था ? दिग्विजय सिंह भी नर्मदा परिक्रमा कर रहे हैं। वे कह चुके हैं कि जल्द इस बारे में बड़ा खुलासा करेंगे। वैसे नर्मदा परिक्रमा के दौरान उन्हें सिर्फ 3 पौधे ही जीवित अवस्था में मिले हैं। अच्छा होता कि बीजेपी सरकार तत्काल जांच करवाती और दोषी अफसरों पर सख्त कार्रवाई कर दिग्गी राजा या कंप्यूटर बाबा के मुद्दे को फुस्स कर देती। ऐसे में मुख्यमंत्री की जो इमेज बनती, वह ‘बैकफुट’ की न होकर ‘सख्त मिजाज’ बनती। जैसा वह अक्सर सभाओं और भाषणों के जरिये बतलाने की कोशिश भी करते हैं। खैर, जो योगेंद्र महंत दो बार चुनाव लड़कर पार्षद भी नहीं बन पाए थे, वे बाबा का चोला पहनते ही ‘राज्य मंत्री’ बन गए। सवाल यह भी है कि क्या कम्प्यूटर बाबा और योगेंद्र महंत सहित 5 बाबाओं की लोकप्रियता क्या इतनी है कि बीजेपी के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री को डरा सके। वह बीजेपी, जिसके पास प्रदेश की 7 करोड़ आबादी में से एक करोड़ से ज्यादा पार्टी सदस्य हैं।
‘राज्य मंत्री’ बने इन बाबाओं को सुविधा देने में अब हर महीने लाखों रुपये खर्च होंगे। वह भी तब, जब सरकार पर एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है। जनता पर टैक्स या सेस बढ़ाकर सरकार चल रही है। मध्य प्रदेश पैट्रोल-डीजल पर सबसे ज्यादा टैक्स वसूलने वाला राज्य है। फिर भी सरकार को ‘उड़नखटोलों’ की सवारी पसंद है। मध्य प्रदेश में पुलिस फोर्स भी इतनी कम है कि 2 अप्रैल के आंदोलन को संभालना गंभीर चिंता का विषय बन गया और 8 लोगों की जान चली गई। दंगे वाले जिलों के कलेक्टर और एसपी कह रहे हैं कि पुलिस फोर्स कम था ? मुख्यसचिव और डीजीपी अब इन जिलों में पसीना बहा रहे हैं। अब इन बाबाओं की सुरक्षा में पुलिस ‘स्टेटस सिंबल’ बनेगी। जबकि, प्रदेश में अपराधों का ग्राफ बढ़ रहा है। बुजुर्गों पर अपराध, बच्चों पर अपराध और महिलाओं पर अपराध रोकने में मध्य प्रदेश की पुलिस शर्मनाक आंकड़ों के साथ देश में शीर्ष पर है। एनसीआरबी की रिपोर्ट जारी ही इसलिए होती है, ताकि सरकारें सबक लें और स्थिति सुधारें।
मंदसौर गोलीकांड में भी मृतकों को एक-एक करोड़ का मुआवजा देकर शिवराज सरकार ने सबको चौंकाया था, अब बाबाओं को राज्य मंत्री बनाकर टैक्स की मार झेल रही जनता को ‘डबल स्ट्रोक’ दिया है। सवाल यह है कि इन बाबाओं के कितने भक्त हैं, जो खुश हुए ? अगर ये फैसला वोट बैंक को ध्यान में रखकर लिया गया है तो पुजारियों का कुछ हजार वेतन बढ़ा दिया जाता तो ज्यादा असरकारी होता। पुजारियों को अभी 500 से 1000 रुपये तक वेतन मिल रहा है, वह भी नियमित नहीं। मंदिरों में जितने लाखों लोग जाते हैं और पुजारियों के संपर्क में हैं, उस हिसाब से इन बाबाओं के भक्तों की संख्या 0.01 प्रतिशत भी नहीं हैं। एक वक्त था, जब साधु-संतों का खर्च समाज उठाया करता था। लेकिन, जब से सरकार ने सामूहिक विवाह से लेकर ये खर्चे भी उठाने शुरू कर दिए, समाज अब इस तरह के सामाजिक कामों से पीछे हटता जा रहा है। श्रद्धालुओं की धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं के दोहन की परिपाटी नई नहीं है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षो से ऐसे साधु-संतों की बाढ़-सी आ गई है, जो धर्मगुरु होने का चोला ओढ़ कर आपराधिक कृत्यों और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहे हैं। धार्मिक-आध्यात्मिक संतों की विद्वता और वीतराग की चिर-परंपरा का स्थान अब धन-संपत्ति के लोभ और वासना की कुंठा की तुष्टि ने लिया है। कबीर तब भी सही थे, आज भी सही हैं कि ‘मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा !’ यह दोनों तरफ से सच है- संतई का आवरण ओढ़ कर घोर कुत्सित जीवन जीनेवालों का भी और उस जीवन का शिकार होनेवालों का भी। न तो उनमें सच्चा वैराग्य पैदा हुआ है और न इनमें सच्ची भक्ति ! खैर, कहते हैं कि साधु-संत या बाबाओं को एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए। वे विचरण करते हैं और अपनी टोली भी बढ़ाते रहते हैं। बाबा जिस गांव में डेरा डालते हैं, उस गांव से 1-2 चेलों को ‘सन्यासी’ बनाकर अपने साथ ले जाते हैं। फिर शिवराज सरकार ने तो 5 बाबाओं को राज्य मंत्री बना दिया है ?