अनिल सिंह कुशवाह,भोपाल.  मध्य प्रदेश में इस समय बाबाओं के मठों से सियासत की गंगा बह रही है। चाहे शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का मठ हो या फिर श्रीरविशंकर महाराज की अपनी रावतपुरा सरकार ! राजनेताओं के काफिलों का रुख चुनावी बेला में इन मठों की ओर ही दौड़ते दिख रहे हैं। या फिर यह कहें कि लोकतंत्र का ये धार्मिक रसूख है। सिर झुकाने की अदा को सिर्फ़ वोट बैंक की गंध चाहिए। जहां स्पर्श भी कहे कि यहां कुछ ठोस वोट हैं, तो फिर सिर झुकता ही नहीं, पैरों में लोट जाता है ! आख़िर हम लोकतंत्र के किस दौर में जी रहे हैं ? शायद उस दौर में, जहां जनता को आसमान के सपने दिखाओ और ख़ुद धरती के ऐश भोगो !

अनिल सिंह कुशवाह

 

 

 

 

 

 

पिछले दिनों कोर्ट से आसाराम बापू को उम्र कैद की सजा सुनाए जाने के बाद किसी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ट्वीटर पर याद दिलाया कि आसाराम के नाम पर भोपाल और खंडवा में सड़कों के नाम भी हैं । मुख्यमंत्री ने फौरन रिट्वीट कर जवाब दिया कि ‘हमारे देश मे संविधान, कानून और जनभावना से ऊपर कुछ भी नहीं है, यह वह देश है जहां औरंगजेब रोड का भी नाम बदल दिया गया है । जल्द ही इस मामले पर भी उचित कार्रवाई करेंगे।’
कुछ ही देर में यह खबर भी आ गई कि भोपाल के महापौर आलोक शर्मा आसाराम बापू मार्ग का बोर्ड तोड़ने निकल पड़े हैं। वैसे आसाराम के पास जब भक्तों की भीड़ थी, तब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह बताने से गुरेज नहीं करते थे कि वह आसाराम के सच्चे भक्त हैं और आसाराम के बताए रास्ते पर ही चलना चाहते हैं। उमा भारती ने तो मुख्यमंत्री रहते विधानसभा के अंदर आसाराम के प्रवचन करवाए थे। पूरे मंत्रिमंडल के साथ सत्ता पक्ष के सभी विधायकों के लिए यह प्रवचन सुनना अनिवार्य किया गया था। बीजेपी के ही एक और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर भी अक्सर आसाराम के दरबार में सिर झुकाए देखे गए।

कांग्रेस शासन में तो आसाराम को भोपाल और इंदौर में 15 एकड़ जमीन सिर्फ एक रुपए की लीज पर आश्रम और अन्य गतिविधियों के लिए दे दी गई थी। बाद में आसपास की अन्य सरकारी जमीनों पर भी कब्जे कर लिए गए। तत्कालीन कलेक्टर ने शिकायत के आधार पर एक जांच कमेटी बनाई, जिसमें लीज शर्तों के उल्लंघन से लेकर सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण पाया और चार पेज की एक रिपोर्ट तैयार की गई। लेकिन, इस रिपोर्ट पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। ढाई दशक के चारों मुख्यमंत्रियों ने आसाराम की सेवा में रत्ती भर कसर नहीं छोड़ी।

यानी, नेता बाबाओं से अपना राजनीतिक लाभ लेते हैं तो बदले में बाबाओं को भी कई फायदे मिलते हैं। औने-पौने दामों में सरकारी जमीनों से लेकर वीआईपी सुरक्षा तक बाबाओं को सबकुछ मिलता है। अपने नेताओं को बाबाओं के आगे नतमस्तक देख कर नए लोग भी इन बाबाओं से जुड़ते हैं और इनका दायरा बड़ा होता चला जाता है। यही कारण है, देश भर में आसाराम के 400 से ज्यादा छोटे बड़े आश्रम और करोड़ों भक्त हो गए थे।

खैर, रिट्वीट के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उसी दिन अगले बाबा यानी श्रीरविशंकर महाराज को प्रणाम करने उनके रावतपुरा धाम की ओर निकल पड़े और मठ में ही रात्रि विश्राम किया। पत्नी साधना सिंह भी उनके साथ रहीं। शिवराज शायद पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने भारी लाव-लश्कर के साथ किसी बाबा के आश्रम में रात काटी। एक दिन पहले कांग्रेस के ‘भावी मुख्यमंत्री’ कमलनाथ भी ‘रावतपुरा सरकार’ में हाजिरी दे आए थे।
कमलनाथ करीब तीन साल से प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने की बांट जोह रहे थे। प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने से पहले वे 29 मार्च को छिंदवाड़ा प्रवास के दौरान जैन मुनि विमल सागरजी के दर्शन करने भी पहुंचे और आशीर्वाद लिया। हनुमान जयंती पर छिंदवाड़ा के सेमरिया में 101 फीट ऊंची हनुमान प्रतिमा का लोकार्पण किया तो इसमें कथावाचक मोरारी बापू को भी बुलाया।

कमलनाथ दो बार शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से मिलने उनके झोतेश्वर स्थित आश्रम में भी जा चुके हैं।
स्वरूपानन्द, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भी आध्यात्मिक गुरु हैं। स्वरूपानन्द सरस्वती की सलाह पर ही दिग्विजय सिंह अब नर्मदा परिक्रमा के बाद कांग्रेस के रूठे हुए नेताओं और कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए 15 मई से ‘एक और यात्रा’ पर निकलने वाले हैं।

कांग्रेस के अंदर ‘सीएम रेस’ में थोड़ा पिछड़ गए ज्योतिरादित्य सिंधिया भी बाबाओं और मठों में माथा टेकते नजर आ रहे हैं। सिंधिया भी स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती का आशीर्वाद लेने पहुंचे। लेकिन, मठ परिक्रमा में सिंधिया से ज्यादा जल्दबाजी में कमलनाथ दिखेे। इतनी जल्दी में कि एक बार उनका हैलीकॉप्टर भी रास्ता भटक चुका है।

कहते हैं राजनीति में समय का बड़ा महत्व होता है। कभी-कभी आपकी कही हुई बात से भी ज्यादा अहम यह हो जाता है कि वह किस समय कही गई। यूपी के भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कुछ महीने पहले एक बयान दिया था कि राम रहीम और रामपाल जैसे बाबा ‘वोटों की राजनीति’ से ही निकले हैं। उनका यह बयान पंजाब और हरियाणा के बाद क्या अब मध्य प्रदेश के राजनेताओं पर भी फिट बैठ रहा है ? क्या योगी और भोगी के बीच की लाइन इतनी धुंधली हो चुकी है कि विश्वास करना मुश्किल हो गया है ? धर्म बाजार में आ चुका है और बाजार के दो ही धर्म होते है, पॉवर और पैसा !

अब यह भ्रम नहीं पाला जाना चाहिए कि सियासत सिर्फ़ सियासतदानों के बल पर चलती है, बाबाओं के सामने सिर झुकाकर भी रफ़्तार पकड़ती है। यह सही है कि धर्म ने समाज को नैतिक बनाने में मदद की है। लेकिन, इसके साथ-साथ धर्म ने अंधश्रद्धा और कर्मकांड भी दिए हैं। आम लोग तरह-तरह के असुरक्षा भाव और चिंताओं से पीड़ित रहते हैं। आधुनिक बाबा उन्हें भावनात्मक सहारा उपलब्ध करवाते हैं और इसी कारण बड़ी संख्या में लोग उनके मठों-आश्रमों में जुटते हैं। लेकिन, वे कब ‘वोट बैंक’ बन जाते हैं ? यह उन्हें भी नहीं पता चल पाता।

जवाब आसान है, चुनाव आते ही नेता मठों और बाबाओं के यहां दौरे क्यों करते हैं ? वैसे, राजनीति को राजनीति के रास्ते आना चाहिए। लेकिन, इन मठों के ज़रिए लोगों तक राजनीतिक पहुंच बनाने का मतलब है कि नेता इतने मौकों पर आपसे झूठ बोल चुके हैं कि अब इन बाबाओं के सहारे आपके बीच आ रहे हैं। देश में इस समय बाबाओं को लेकर बहस भी छिड़ी हुई है। बावजूद इसके, बाबाओं के भक्तों की संख्या घट नहीं रही है। इस तरह के लाखों अंधभक्त आज मौजूद हैं, जिनसे तार्किक बहस करना लगभग असंभव है।
फिर भी इस बात पर जोरदार बहस की जरूरत है कि बाबाओ-धर्मगुरुओं और राजनीति का गठबंधन हमारे और आपके हितों के लिए कितना अनुकूल है ? क्या वाकई, धर्म का पाठ पढ़ाया जा रहा है या फिर भक्तों को धर्मांध और ‘वोट बैंक’ बनाया जा रहा है ? इसी कारण सियासत को बाबा लोग बहुत पसंद आते हैं। बाबा, राजनेताओं का और राजनेता, बाबाओं का बखूबी इस्तेमाल करते हैं।