देश में इस समय सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स-फ़ेसबुक और व्हाट्सएप -आदि पर नागरिकों के जीवन में कथित तौर पर घृणा फैलाने और सत्ता-समर्थक शक्तियों से साँठ-गाँठ करके लोकतंत्र को कमज़ोर करने सम्बन्धी आरोपों को लेकर बहस भी चल रही है और चिंता भी व्यक्त की जा रही हैं। पर बात की शुरुआत किसी और देश में सोशल मीडिया की भूमिका से करते हैं:

खबर हमसे ज़्यादा दूर नहीं और लगभग एकतंत्रीय शासन व्यवस्था वाले देश कम्बोडिया से जुड़ी है। प्रसिद्ध अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की वेब साइट द्वारा जारी इस खबर का सम्बंध एक बौद्ध भिक्षु लुओन सोवाथ से है, जिन्होंने अपने जीवन के कई दशक कम्बोडियाई नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई में गुज़ार दिए थे। अचानक ही सरकार समर्थक कर्मचारियों की मदद से बौद्ध भिक्षु के जीवन के सम्बंध में फ़ेसबुक के पेजों पर अश्लील क़िस्म के वीडियो पोस्ट कर दिए गए और उनके चरित्र को लेकर घृणित मीडिया मुहीम देश में चलने लगी। उसके बाद सरकारी नियंत्रण वाली एक परिषद द्वारा बौद्ध धर्म में वर्णित ब्रह्मचर्य के अनुशासन के नियमों के कथित उल्लंघन के आरोप में लुओन सोवाथ को बौद्ध भिक्षु की पदवी से वंचित कर दिया गया। उनके खिलाफ इस प्रकार से दुष्प्रचार किया गया कि उन्होंने गिरफ़्तारी की आशंका से कहीं और शरण लेने के लिए चुपचाप देश ही छोड़ दिया।सबकुछ केवल चार दिनों में हो गया।

फ़ेस बुक सरीखे सोशल मीडिया प्लेटफार्म के राजनीतिक दुरुपयोग को लेकर तमाम प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में जो चिंता ज़ाहिर की जा रही है, उसका कम्बोडिया केवल छोटा सा उदाहरण है।हम अपने यहाँ अभी केवल इतने खुलासे भर से ही घबरा गए हैं कि एक समुदाय विशेष को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न करने के उद्देश्य से प्रसारित की जा रही पोस्ट्स को किस तरह बिना किसी नियंत्रण के प्रोत्साहित किया जाता है। अभी यह पता चलना शेष है कि देश की प्रजातांत्रिक सम्पन्नता को एक छद्म एकतंत्र की आदत में बदल देने के काम में मीडिया और सोशल मीडिया के संगठित गिरोह कितनी गहराई तक सक्रिय हैं।

कोरोना ने नागरिकों की जीवन पद्धति में सरकारों की सेंधमारी के लिए अधिकृत रूप से दरवाज़े खोल दिए हैं और इस काम में सोशल मीडिया का दुनिया भर में ज़बरदस्त तरीक़े से उपयोग-दुरुपयोग किया जा रहा है। महामारी के इलाज का कोई सार्थक और अत्यंत ही विश्वसनीय वैक्सीन नहीं खोज पाने या उसमें विलम्ब होने का एक अन्य पहलू भी है ! अलावा इसके कि महामारी का दुश्चक्र लगातार व्यापक होता जाएगा और संक्रमण के साथ-साथ मरनेवालों की संख्या बढ़ती जाएगी, नागरिक अब अधिक से अधिक तादाद में अपने जीवन-यापन के लिए सरकारों की कृपा पर निर्भर होते जाएँगे। पर इसके बदले में उन्हें ‘अवैध’ रूप से जमा किए गए हथियारों की तरह अपने ‘वैध’अधिकारों का ही समर्पण करना पड़ेगा।

सरकारें अगर इस तरह की भयंकर आपातकालीन परिस्थितयों में भी अपने राजनीतिक आत्मविश्वास और अर्थव्यवस्थाओं को चरमराकर बिखरने से बचाने में कामयाब हो जातीं हैं, तो माना जाना चाहिए कि उन्होंने एक महामारी में भी अपनी सत्ताओं को मजबूत करने के अवसर तलाश लिए हैं। चीन के बारे में ऐसा ही कहा जा रहा है। महामारी ने चीन के राष्ट्राध्यक्ष को और ज़्यादा ताकतवर बना दिया है। रूस में भी ऐसी ही स्थिति है। दोनों ही देशों में सभी तरह का मीडिया इस काम में उनकी मदद कर रहा है। रूस में तो पुतिन के धुर विरोधी नेता नेवेल्नी को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का ज़बरदस्त तरीक़े से उपयोग किया गया। रूस के बारे में तो यह भी सर्वज्ञात है कि उसने ट्रम्प को पिछली बार विजयी बनाने के लिए फ़ेसबुक का किस तरह से राजनीतिक इस्तेमाल किया था।

नागरिकों को धीमे-धीमे फैलने वाले ज़हर की तरह इस बात का कभी पता ही नहीं चल पाता है कि जिस सोशल मीडिया का उपयोग वे नागरिक आज़ादी के सबसे प्रभावी और अहिंसक हथियार के रूप में कर रहे थे वही देखते-देखते एकतंत्रीय व्यवस्थाओं के समर्थक के विकल्प के रूप में अपनी भूमिका-परिवर्तित कर लेता है।(उल्लेखनीय है कि महामारी के दौर में जब दुनिया के तमाम उद्योग-धंधों में मंदी छाई हुई है, सोशल मीडिया संस्थानों के मुनाफ़े ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ गए हैं।अख़बारों में प्रकाशित खबरों पर यक़ीन किया जाए तो चालीस करोड़ भारतीय व्हाट्सएप का इस्तेमाल करते हैं ।अब व्हाट्सएप चाहता है कि उसके पैसों का भुगतान किया जाए। इसके लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति चाहिए। इसीलिए व्हाट्सएप की नब्ज पर भाजपा की पकड़ है।)

ऊपर उल्लेखित भूमिका का सम्बंध अफ़्रीका के डेढ़ करोड़ की आबादी वाले उस छोटे से देश ट्यूनिशिया से है, जो एक दशक पूर्व सारी दुनिया में चर्चित हो गया था। सोशल मीडिया के कारण उत्पन्न अहिंसक जन-क्रांति ने वहाँ न सिर्फ़ लोकतंत्र की स्थापना की बल्कि मिस्र सहित कई अन्य देशों के नागरिकों को भी प्रेरित किया। ट्यूनिशिया में अब कैसी स्थिति है ? बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी, ख़राब अर्थव्यवस्था के चलते लोग देश में तानाशाही व्यवस्था की वापसी की कामना कर रहे हैं। वहाँ की वर्तमान व्यवस्था ने उन्हें लोकतंत्र से थका दिया है। ट्यूनिशिया के नागरिकों की मनोदशा का विश्लेषण यही हो सकता है कि जिस सोशल मीडिया ने उन्हें ‘अरब क्रांति’ का जन्मदाता बनने के लिए प्रेरित किया था वही अब उन्हें तानाशाही की ओर धकेलने के लिए भी प्रेरित कर रहा होगा या इसके विपरित चाहने के लिए प्रोत्साहित भी नहीं कर रहा होगा।

नागरिकों को अगर पूरे ही समय उनके आर्थिक अभावों , व्याप्त भ्रष्टाचार और जीवन जीने के उपायों से ही लड़ते रहने के लिए बाध्य कर दिया जाए और सोशल मीडिया के अधिष्ठाता अपने मुनाफ़े के लिए राजनीतिक सत्ताओं से साँठ-गाँठ कर लें तो उन्हें (लोगों को) लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं, मानवाधिकार और संवैधानिक संस्थाओं का स्वेच्छा से त्याग कर एकाधिकारवादी सत्ताओं का समर्थन करने के लिए अहिंसक तरीक़ों से भी राज़ी-ख़ुशी मनाया जा सकता है।और ऐसा हो भी रहा है !