अनिल सिंह कुशवाह. भोपाल. मध्य प्रदेश में इस समय हर कोई इसी ‘उधेड़बुन’ में लगा हुआ है कि अगली सरकार किसकी बनेगी ? यानी ‘उधेड़’ रहा है और ‘बुन’ रहा है ! इसमे कोई दो राय नहीं कि बीजेपी के लिए माहौल 2008 और 2013 जैसा बिल्कुल नहीं है. यानी, बीजेपी इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. ऐसे में सबकी नजर विरोधी दल यानी कांग्रेस की रणनीति पर है. तो क्या कांग्रेस तय करने वाली है कि मध्य प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी ? पूरे सिनेरियो पर यदि उल्टा सोचे तो जवाब शायद सीधा मिलेगा. मध्य प्रदेश में आज जो भाजपा की स्थिति है, उस पर हर किसी को संशय है कि क्या चौथी बार भी भाजपा मध्य प्रदेश में सरकार बना पाएगी ? ऐसे में भाजपा नहीं, सब कुछ कांग्रेस की रणनीति पर निर्भर है. यदि टिकिट बंटने से लेकर नेताओं की एकजुटता और पोलिंग बूथ तक सधी हुई रणनीति बना ली, तो उसका वनवास खत्म हो जाएगा. नहीं तो, दो दलीय व्यवस्था में ‘वन्स मोर’ बेजीपी तो है ही.

लेखक- अनिल सिंह कुशवाह
लेखक- अनिल सिंह कुशवाह

वैसे, मध्य प्रदेश में भाजपा के सबसे बुरे दौर से गुजरने के पीछे एक नहीं, कई वजह हैं. हर तबका कहीं न कहीं नाराज दिखाई दे रहा है. टैक्स की मार, झूठे वादे, ब्यूरोक्रेसी की हठधर्मिता और भ्र्ष्टाचार से परेशानी की बातें सामने आती रहीं हैं. भ्रष्टाचार के कारण सरकार की योजनाओं का लाभ किसानों को ज्यादा नहीं मिल पा रहा है. सबसे ज्यादा नाराजगी किसानों में ही है. जबकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद किसान पुत्र हैं. शपथ लेने के बाद सबसे पहला ‘कमिटमेंट’ उनका यही आया था कि खेती को लाभ का धंधा बनाएंगे. लेकिन, इतने सालों बाद भी क्या ऐसा हो पाया है ? उल्टे मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ गईं हैं, जो बेहद शर्मनाक और दुखद है. किसानों के नाम पर अगर कोई संपन्न हुआ है तो वह हैं बिचौलिये और इस महकमे से जुड़े अफसर. यही कारण है, मुख्यमंत्री अब किसानों के सम्मेलन बुलाकर घोषणाओं की झड़ी लगाते हैं तो किसान सहज भरोसा नहीं कर पाते. स्व. अनिल दवे का एक कथन याद है, वे कहा करते थे कि जैसा हम कहते हैं, वैसा हो भी, तब लोग लम्बे समय तक आप पर भरोसा कर सकते हैं.

प्रदेश के युवा और छात्रों में भी बीजेपी सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ी है. व्यापमं घोटाले में कानूनी पक्ष कुछ भी कह रहा हो, पर सच यह है कि ये सबसे अमानवीय घोटाला भी था. जिन प्रतिभाओं के लिए हमें रेड कार्पेट बिछाना चाहिए था, उनमें से न जाने कितनों ने हतोत्साहित होकर जान दे दी और खुले ऑफर में जिन मां-बाप ने अपने घर-मकान बेचकर या कर्ज लेकर अपने बच्चों को सिलेक्शन दिलाए, उन्हें भी बेइज्जत होकर अपने बच्चों के साथ जेल जाना पड़ा. जबकि, इस महाघोटाले को अंजाम देने वालों की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. अलबत्ता, एसटीएफ के कुछ अफसर जरूर मालामाल हो गए. लेकिन, क्या इस महाघोटाले को भूला जा सका है ? गुस्से को जरूर दबा दिया गया है, लेकिन यह भी सच है, सत्ता विरोधी लहर कोई एक दिन में नहीं बनती. कई बार इसके परिणाम तत्काल सामने नहीं आ पाते.

इधर, बम्पर रोजगार के जुमले उछालकर निवेशकों को मध्य प्रदेश बुलाने के नाम पर टैक्सपेयर मिडिल क्लास का धन भी खूब खर्च किया गया. लेकिन, बेरोजगारों के सपने पूरे नहीं हुए. खुद सरकारी आंकड़े कहते हैं, मध्यप्रदेश में लगभग 1 करोड़ 41 लाख युवा हैं. पिछले 2 सालों में राज्य में 53% बेरोजगार बढ़े हैं. दिसम्बर 2015 में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 15.60 लाख थी जो दिसम्बर 2017 में 23.90 लाख हो गई है. एक अनुमान के मुताबिक राज्य में हर छठे घर में एक युवा बेरोजगार है और हर 7वें घर में एक शिक्षित युवा बेरोजगार बैठा है. इस समय नौकरीपेशा वर्ग भी सबसे ज्यादा नाराज दिखाई दे रहा है. भाषणों-घोषणाओं के कारण इतनी उम्मीदें जगा दी गईं कि इन्हें मनाने में अब सत्ता और संगठन को न जाने कितने और कैसे जतन करने पड़ रहे हैं ? क्या फिर भी नाराजगी दूर हो पा रही है ? भाजपा के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यक्रमों में अब भीड़ भी उतनी नहीं जुट पाती जो पहले पंडाल भर दिया करती थी. ये स्थिति तब है, जब विधानसभा के आम चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं. ऐसे में हर कोई एक दूसरे से यही सवाल पूछ रहा है कि सरकार किसकी बनेगी ? जब दफ्तरों और चौक-चौराहों पर लोग खुलकर चर्चा करने लगें तो यही सत्ता विरोधी लहर कहलाती है. ऐसे में जनता से ‘भयभीत’ बिगेस्ट पार्टी बीजेपी यदि लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा के भी चुनाव कराने की सोच रही है, तो ये डर रहना चाहिए !

इस ‘उधेड़-बुन’ में बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सत्ता वापस लेने को तैयार है ? अगर है तो उसके पास जीत की रणनीति क्या है ? हाल के कोलारस और मुगांवली उप चुनाव की बात करें तो दोनों सीटों की शानदार जीत ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं को उत्साह से भर दिया है. लेकिन, क्या ये करंट टिकिट बंटने और पोलिंग बूथ की निर्णायक लड़ाई तक बरकरार रह पाएगा ? अगर ये दोनों उप चुनाव सेमीफाइनल थे, तो क्या कांग्रेस फाइनल तक ऐसे ही ताकत, ऊर्जा, एकजुटता और सधी हुई रणनीति के साथ दिखेगी ?
2008 में भी विधानसभा चुनाव से ठीक 8 महीने पहले शिवपुरी में उप चुनाव हुए थे. कांग्रेस ने यह उप चुनाव जीता भी और कार्यकर्ता भी सक्रिय हुआ. लेकिन, फाइनल में कांग्रेस औंधे मुंह गिर गई. हालांकि, तब सिनोरियों कुछ अलग था. सत्ता से बाहर हुए 5 साल ही हुए थे, कांग्रेस नेता यह महसूस ही नहीं करा पाए थे कि वह विपक्ष में हैं. इसलिए, सड़क पर भी कोई भूमिका दिखाई नहीं दी. जरूरी है पहले खुद महसूस करें तो जनता को भी महसूस होने लगता है.

2008 के चुनाव में कांग्रेस के जो अध्यक्ष थे, उनके समर्थक अपने ही दल के प्रतिस्पर्धी नेताओं के दिलाए टिकट वाले उम्मीदवारों की जमीन खिसकाने में कई जगह शिद्दत से जुटे हुए थे. शायद, उन्हें ’10 जनपथ’ पर भरोसा नहीं था. मान रहे थे, सरकार बन रही है पर डर था 10 जनपथ से ‘ताज’ कोई और न ले आए. तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तो फंड की भी कोई कमी नहीं थी. एक-एक सीट के लिए इतने ब्रीफकेस भेजे गए कि उम्मीदवारों को भी लगा कि जब वैसे ही जीत रहे हैं तो क्यों न ‘धन संचय’ कर लिया जाए. 2013 के विधानसभा चुनाव में जरूर कांग्रेसियों को थोड़ा अहसास हुआ. लेकिन, मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? इस सवाल ने फिर किए कराए पर पानी फेर दिया. कमलनाथ के सीएम बनने की धुन ने पर्चे-पोस्टर तक सड़कों पर बंटवा दिए. 2008 में जहाँ तबके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी की टीम शपथ लेने के लिए नए शूट सिलवा चुकी थी, तो 2013 में कमलनाथ के समर्थक ओवर कॉन्फिडेंट होकर उजूल फिजूल हरकतें कर रहे थे. 2013 के प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया और नेताप्रतिपक्ष अजय सिंह के समर्थक भी अपने-अपने नेताजी के बंगलों पर रोज मंत्रिमंडल बना रहे थे, तो रोज किसी को हटा रहे थे.

ये ऐसी ‘धुन’ थी कि कांग्रेसियों को आपस में लड़ते देख जनता ने कांग्रेस को ही ‘धुन’ दिया. अब 2018 के चुनाव फिर सामने हैं. क्या कांग्रेस के किसी नेता ने इस बार भी ऐसा कोई मुगालता पाल रखा है ? हालांकि, इन साढ़े 14 सालों में कांग्रेस नेताओं को अब अपने विपक्ष में होने का पूरा अहसास हो चुका है. लेकिन, पार्टी की माली हालत अब ऐसी है कि दफ्तर का खर्चा चलाने के लिए भी सदस्यता शुल्क का एक-एक पैसा गिना जा रहा है. जबकि, बीजेपी ने सत्ता में लगातार रहते हुए चुनावों को अब इतना महंगा कर दिया है कि जिसकी जेब मे तगड़ा पैसा है, वहीँ चुनाव में फाइट देने की सोच सकता है.

खैर, आगे बात करें उससे पहले भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के इस ‘ऑफ द रिकार्ड’ बात का जिक्र करना जरूरी है. वे स्वीकार करते हैं कि उनकी सरकार से जनता नाराज है. लेकिन, जवाब उनका यह है कि “प्रदेश स्तर पर देखेंगे तो ऐसा ही लगेगा. पर एक-एक सीट की बात करें तो कांग्रेस के पास दमदार और सर्वमान्य उम्मीदवार कहां हैं ? अब भी कोई कमलनाथ गुट का है तो कोई दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया या सुरेश पचौरी कोटे से टिकट के लिए मारामारी करता दिखाई देगा.”
सवाल कांग्रेस से, क्या इस बार भी ऐसा होगा ? जनता सरकार से नाराज है, लेकिन कांग्रेस की रणनीति ठीक नहीं रही तो हो सकता है मुकाबला दलों के बीच न होकर कई जगह उम्मीदवारों के बीच दिखाई दे ? वैसे, दो दलीय व्यवस्था में दूसरे दल के सामने अंतिम वक्त तक बाजी पलटने के अवसर खुले रहते हैं. बस, पिछले अनुभवों से सबक लेने की जरूरत है. इसलिए कांग्रेस के लिए मौजूं है- ‘हौसला दर्द यहाँ मिला है तो दवा भी यहीं मिलेगी..!’