रायपुर। मैदान के अन्दर हो या मैदान के बाहर,एक खिलाड़ी अपने हौसले और जज़्बे से हर बाज़ी जीतने की ताकत रखता है. फिर चाहे वो खेल की बाज़ी हो या जिंदगी की. युवराज सिंह के कैंसर से जंग और जीत की कहानी तो सबको पता है. युवराज को कैंसर से लड़ने की ताकत एक और खिलाड़ी लांस ऑर्मस्ट्रांग की ऑटोबायोग्राफी पढ़कर मिली, जिसमें ऑर्मस्ट्रांग के कैंसर से जंग जीतकर गोल्ड मैडल जीतने की कहानी थी.
आज राष्ट्रीय खेल दिवस के इस मौके पर हम आपको छत्तीसगढ़ की एक ऐसी खिलाड़ी के बारे में बता रहे हैं जिसने 15 साल की उम्र में ब्रेन कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को अपने जज़्बे और जीवटता से मात दी और अब दुबारा दुगुने जोश और जज़्बे से मैदान में वापसी कर चुकी है.फिलहाल वो तैयारी कर रही है ऑलम्पिक में गोल्ड मैडल लाने की.
इस लड़की का नाम है भारती. जो महिला रेसलर है. ये रायपुर की रहने वाली है. इसके पिता भी पहलवान हैं. 2008 में महज़ आठ साल की उम्र में भारती ने कुश्ती लड़ना शुरू कर दिया था. भारती पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद 14 साल की उम्र में ही नेशनल तक पहुंची. सब कुछ अच्छी गति से चल रहा था. फिर अचानक भारती के सिर में एक दिन तेज़ दर्द हुआ. डॉक्टर्स ने बताया की ब्रेन ट्यूमर है. इलाज शुरू होने पर पता चला की ट्यूमर अब कैंसर में बदल चुका है और जल्द ही इसका इलाज करना पड़ेगा.
इसके बाद यकायक भारती की ज़िंदगी बदल गई. जो जंग उसे रोज़ अखाड़े में लड़नी पड़ती थी. वो जंग उसे अस्पताल के बेड पर लड़नी पड़ रही थी. जो पैसे अपने सपने को पूरा करने के लिए बचा रखे थे. वो इलाज में खर्च होने लगे. हालात बदतर हो गए. लड़ाई मौत से थी. ऐसे में बड़े से बड़ा इंसान भी ऐसे हालात में हिम्मत हार जाता है. फिर हमारी ये खिलाड़ी तो महज 15 साल की छोटी बच्ची थी. इलाज के दर्द और कुश्ती ना कर पाने के अफ़सोस के बीच कैंसर से जंग जारी थी. हफ्ते बीते, महीना बीता. धीरे-धीरे एक साल बीत गया. कई दफा लगा कि सारे सपने इस अस्पताल में ही दफ्न हो जाएगा. लेकिन ऐसे हालात में भारती को जीने और लड़ने का हौसला पिता की बताई एक लाइन याद करती थी.
”जो समंदर से टकराए वो तूफ़ान,और जो मुसीबतों से टकराए वो भारती पहलवान”
पिता की कही बात भारती में इतना हिम्मत भर लेती कि वो बिस्तर से उठ बैठती और उसका मन करता कि अभी अखाड़े पहुंच जाए. कुश्ती में जीतने की चाह और अपनी जीवटता से उसने महज एक साल में कैंसर जैसी बीमारी को हरा दिया और अस्पताल से घर लौटने के कुछ ही महीनों बाद दुबारा अखाड़े में लौट आई. अभी वो रोज़ अखाड़े में उतरती है. प्रैक्टिस करती है. साथ में पढ़ाई भी कर रही है.
जिस पिता ने भारती को जीने लड़ने और जीने का हौसला दिया वो कोई और नहीं छत्तीगसढ़ के मशहूर पहलवान अशोक पहलवान हैं. भारती के दादा भी कुश्ती के खिलाड़ी रहे हैं.
भारती को कैंसर को हराए एक साल हो चुके हैं. अब वो कुश्ती की जंग में बड़े- बड़े पहलवानों को हरा रही है. वो पूरी जी-जान से जुटी हुई है. उसका सपना आज भी वही है. ऑलंपिक में जीतना. वो पुरानी बस्ती में अपने पिता से कुश्ती के दांव-पेंच सीख रही है. ये वही अखाड़ा है जिसने राज्य को कई महिला रेसलर दिए हैं.
भारती की कहानी मिसाल है खिलाडियों के जज़्बे की. जो ये बताता है की खेल चाहे कोई भी हो,जीत हमेशा खिलाड़ी की ही होती है. राष्ट्रीय खेल दिवस के इस मौके पर भारती और उसके जैसे देश के सभी खिलाडियों को हमारा सलाम !