चूड़ियां सिर्फ स्त्रियों का श्रंगार नहीं होती. इसका राजनीतिक इस्तेमाल भी होता है. दूसरे को नीचा दिखाने के लिए. बीजेपी ने बुधवार को राजधानी में यही काम कांग्रेस नेताओं को नीचा दिखाने के लिए किया. उनकी सभा में पहले भूपेश को चूड़ियां दिखाने की कोशिश की लेकिन जब पुलिस ने उन्हें रोक लिया तो चूड़ियां उनकी ओर फेंकी गई. एक तरफ से चूड़ी और कालिख फेंकी गई तो दूसरी तरफ से सीडी. विरोध यहीं तक रहता तो भी ठीक था. लेकिन चूड़ी दिखाने से शुरु हुआ विरोध पत्थरबाज़ी तक पहुंच गया.

कांग्रेस और बीजेपी के बीच पत्थरबाजी जितनी राजनीति के लिए शर्मनाक है उससे ज़्यादा पुलिस के लिए शर्मनाक है. एक तरफ कांग्रेस और बीजेपी एक दूसरे पर पत्थर बरसा रहे थे. दूसरी तरफ पुलिस इसे रोकने के लिए कोई भी सख्त क़दम उठाने से बचती रही.

पत्थरबाज़ी में पहला निशाना पुलिस वाले बने. पुलिसकर्मी घायल हुए. पुलिस फिर भी खामोश रही. मंच से राष्ट्रीय स्तर के नेता पीएल पुनिया पुलिस से कहते रहे कि कानून व्यवस्था उनकी आंखों के सामने हाथ में लिया जा रहा है वो पत्थरबाज़ों पर नियंत्रण करे, पुलिस फिर भी पुलिस खामोश रही. पुलिसवालों को पत्थरबाज हाथ- पैर से पीटते रहे लेकिन फिर भी पुलिस खामोश रही.

मोर्चे पर पुलिस की कमान एएसपी विजय अग्रवाल के हाथों में थी. पत्थरबाजी के बाद जब उनसे मीडिया ने पूछा कि क्यों पुलिस ने उपद्रवियों को गिरफ्तार करके हालात को काबू में नहीं किया. तो अग्रवाल का जवाब चौंकाने वाला था. उन्होंने कहा कि मुलाहिज़ा कराया जा रहा है उसके बाद कार्रवाई की जाएगी.

पूरे प्रकरण में हैरान करने वाली पुलिस की खामोशी और उसके बाद पुलिस अधिकारी का बयान दरअसल पुलिस की बेबसी बयान कर रही है. जैसा कि उनके लिए पहले से एक लाइन तय हो कि किससे आगे कार्रवाई नहीं करनी है.  एक तरफ पुलिस के जवान बीच-बचाव करते हुए चोटिल हो रहे थे. उनकी वर्दी पर कालिख पुतती रही. दुकानदार अपनी दुकानें बंद करके वहां से भाग रहे थे. स्थानीय नागरिक दहशत में थे. एक तरफ कांग्रेस के बड़े नेता पीएल पुनिया, भूपेश बघेल, चरणदास महंत और सत्यनारायण शर्मा थे दूसरी तरफ बीजेपी के प्रफुल्ल विश्वकर्मा, अशोक पांडेय थे. इनमें से किसी भी नेता को ये पत्थर पड़ता तो क्या स्थिति होती ? अगर हालात हिंसात्मक हो जाते तो ज़िम्मेदारी किसकी होती? ज़ाहिर है ऐसे हालातों से जनता की रक्षा करने वाली पुलिस पर होती.

आखिर पुलिस की मजबूरी क्या थी कि वो किसी भी कीमत पर सब बर्दाश्त करती रही. क्या उसे किसी ने ऐसा करने के लिए ऊपर से कहा गया था या फिर वहां मौजूद कार्यकर्ताओं पर हाथ डालने से पुलिस के हाथ पैर फूल रहे थे. कारण जो भी हो ये रायपुर के पुलिसिया इतिहास की शर्मनाक घटना है. इस घटना से विपक्ष के उस आरोप को बल मिलता है कि पुलिस सत्ता पक्ष के हक में विपक्ष के लोगों की जान जोखिम में डालने से भी नहीं चूकती.

सवाल प्रशासन को लेकर भी उठे हैं. प्रशासन आमतौर पर विरोध करने वालों को कुछ दूरी पर रोक लेती है ताकि अप्रिय स्थिति सामने ना आए. लेकिन गुड़ियारी के इस प्रदर्शन में कांग्रेस का विरोध करने वाले भाजपाईयों को उनके मंच से 25 फीट करीब तक आने दिया. क्या उन्हें कुछ दूर नहीं रोका जा सकता था. क्या उन्हें जानबूझकर सभा स्थल के पास जाने दिया गया.

बीजेपी कार्यकर्ताओं ने पुनिया और भूपेश के आते ही उनकी तरफ चूड़ियां उछालनी शुरु कर दी. उनके आने से पहले बीजेपी महिलाओं के हाथों में 2-4 चूड़ियां थी लेकिन भूपेश बघेल के आते ही चूड़ियों के गुच्छे, मोबिल और स्याही की बोतलें हवा में तैरने लगी. क्या पुलिस को इसकी जानकारी नहीं थी कि ये इन सामानों के साथ आए हैं. अगर जानकारी नहीं थी तो जैसे ही इन सामानों से हमला हुआ वो क्यों खामोश रही. उसने हालात को भांपते हुए कोई सख़्त कदम क्यों नहीं उठाया. आमतौर पर पुलिस ऐसे मौकों पर बल प्रयोग कर देती है. लेकिन करीब आधे घंटे तक पुलिस समझाने के अंदाज़ में उपद्रव करने वालों को समझाती और हड़काती रही. पुलिस सहती रही. इसके पीछे क्या कारण था. ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि प्रदेश में अफसरशाही के हावी होने के आरोप सिद्ध से लगते हैं आखिर जिस राज्य में अफसरों का इतना दबदबा है वहां पुलिस इतनी कमज़ोर कैसे साबित हो रही है.